भारत में भगवान शिव की पूजा मानव और लिंग दो रूपों में की जाती है। लेकिन शिव मंदिरों में प्रधान देवता की मूर्ति के रूप में शिवलिंग की स्थापना की जाती है और मुख्य रूप से उनकी पूजा होती है। आम हिंदू धर्मावलंबी भी विभिन्न प्रकार के पदार्थों से शिवलिंग की स्थापना कर उसकी पूजा करते हैं। भारत में शिवलिंग पूजा की परंपरा प्राचीन काल से ही रही है जिसके साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध हैं। कूर्म पुराण एवं लिंग पुराण में लिंग पूजा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डाला गया है। वामन पुराण में उन पवित्र स्थानों के माहात्म्य का वर्णन किया गया है जहां प्राचीन शिवलिंगों की स्थापना की गई थी। महाभारत में उपमन्यु आख्यान में शिवलिंग पूजा की महिमा का वर्णन किया गया है।
शिव का लिंग रूप उनका साक्षात आत्म रूप है। लिंग पुराण में कहा गया है कि लिंग पूजा से पार्वती और परमेश्वर दोनों की पूजा हो जाती है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य भाग में त्रिलोकीनाथ विष्णु और ऊपर महादेव स्थित हैं। वेदी महादेवी हैं। अतः एक लिंग की पूजा में सब की पूजा हो जाती है।
लिंग का अर्थ
लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न, प्रतीक या लक्षण है। सांख्य दर्शन में प्रकृति को और प्रकृति से विकृति को भी लिंग कहा गया है। लिंग पुराण में लिंगे सर्वं प्रतिष्ठितं कहकर चराचर जगत की प्रतिष्ठा लिंग में ही बताई गई है।
देव चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द शिवजी के ही लिंग के लिए आता है। स्कंद पुराण में लयनाल्लिंगमुच्यते कहा गया है जिसका अर्थ लय या प्रलय होता है।
यह लिंग-योनि जिसका व्यवहार शिव पूजा में होता है प्रकृति और पुरुष के सहयोग से होने वाली सृष्टि की उत्पत्ति का सूचक है। शिवलिंग का अर्थ प्रकट करने वाला है क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। इसका दूसरा अर्थ आलय है अर्थात यह प्राणियों का परम कारण है और निवास स्थान है। इसका तीसरा अर्थ है लीयते यस्मिन्निति लिंगम अर्थात सब दृश्य जिसमें लय हो जाएं वह परम कारण लिंग है।
निराकार, निर्विकार, व्यापक दृक् या पुरुष तत्व का प्रतीक ही लिंग है और अनंत ब्रह्मांडोत्पादनी महाशक्ति प्रकृति ही योनि, अर्घा या जलहरी है। ना केवल पुरुष से सृष्टि हो सकती है और न केवल प्रकृति से। पुरुष निर्विकार, कूटस्थ है और प्रकृति ज्ञानविहीन, जड़ है। अतः सृष्टि के लिए दृक्-दृश्य, प्रकृति-पुरुष का संबंध अपेक्षित होता है। श्रीमद्भागवत गीता में भी प्रकृति को परमात्मा की योनि कहा गया है।
शिव पुराण में लिंग शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है –
लिंगमर्थ हि पुरुषं शिवं गमयतीत्यदः।
शिवशक्त्योश्च चिह्नस्य मेलनं लिंगमुच्यते।।
अर्थात शिव शक्ति के चिन्ह का सम्मेलन ही लिंग है। लिंग में विश्वप्रसूतिकर्ता की अर्चा करनी चाहिए। यह परमार्थ शिव तत्व का बोधक होने से भी लिंग कहलाता है। प्रणव भी भगवान का ज्ञापक होने से लिंग कहा गया है।
अन्यत्र पृथ्वी को पीठ और आकाश को लिंग कहा गया है। जैसे वेदी पर लिंग विराजता है वैसे ही पृथ्वी पर आकाश है।
लिंग को परमानंद का कारण माना गया है क्योंकि इससे ज्योति और प्रणव की उत्पत्ति हुई है।
शिवलिंग की उत्पत्ति कथा
शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा का वर्णन शिव पुराण, लिंग पुराण इत्यादि में मिलता है। लिंग पुराण में वर्णित कथा के अनुसार शिवलिंग के उद्भव की कथा स्वयं ब्रह्मा जी ने ऋषियों को बताई थी। वह कथा कुछ इस प्रकार है –
ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी में विवाद
एक बार ब्रह्मा जी जनलोक की रक्षा के लिए विष्णु जी के पास समुद्र में गये। उस समय सृष्टि का स्थितिकाल पूर्ण हो चुका था। सूर्य की किरणों से पशु, मनुष्य, पिशाच तथा राक्षसादि जलकर नष्ट हो चुके थे। उस समय विष्णु जी अन्धकारमय समुद्र में निश्चिंत होकर शयन कर रहे थे। सर्वात्मा, महाबाहू, कमलनयन नारायण को इस प्रकार सोता देखकर ब्रह्मा जी उनकी माया से मोहित हो गये और उन्हें जगाते हुए कहने लगे – पुत्र उठो, मैं तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे सामने खड़ा हूं।
निद्रामय विष्णु जी ने जैसे ही नेत्र खोले, ब्रह्मा जी को देखकर हँसते हुए कहा – वत्स स्वागत है, आओ, तुम्हारा कैसे आगमन हुआ।
अपने लिए ‘वत्स’ और तुम शब्दों का प्रयोग सुनकर ब्रह्मा जी को बहुत क्रोध आया और उन्होंने आवेश में बोला – जगत की रचना और संहार करने वाले मुझ अनादि पितामह परमेश्वर को तुम और वत्स कहने वाले तुम कौन हो ?
ब्रह्मा जी की बात सुनकर विष्णु जी ने कहा, देखो ! संसार का कर्ता मैं हूं तो तुम मुझ अव्यय शरीर से उत्पन्न हुए हो। मुझे आश्चर्य इस बात का है कि तुम अपने स्रष्टा, जगन्नाथ, अच्युत विष्णु को किस प्रकार भूल गए।
फिर थोड़ी देर बाद विष्णु जी ने कहा, यह दोष तुम्हारा नहीं है। मेरी माया प्रबल है और मोहिनी है। उसके प्रभाव से तुम भी बच नहीं सके हो किन्तु मेरे इस वचन को सत्य जानो कि मैं ही संसार का कर्त्ता और हर्त्ता हूँ। मैं परब्रह्म और परम तत्त्व हूँ। मैं ही परा ज्योति हूँ। इस संसार में तुम्हें जितने भी रूप देखने में आए हैं, वे सब के सब मेरे हैं।
विष्णु जी के ऐसा कहने पर और ब्रह्मा जी के इस प्रकार स्वीकार न किए जाने पर दोनों में वाक्युद्ध हुआ और फिर दोनों में द्वन्द्व युद्ध होने लगा। इस स्थिति में प्रलय का दृश्य उत्पन्न हो गया। इसी समय दोनों के विवाद की शान्ति के लिए तथा प्रवोधित करने के लिए इनके मध्य प्रलयकालीन सहस्त्रों अग्नियों के समान प्रज्ज्वलित, आदि-मध्य-अन्त से रहित, क्षय बुद्धि से विमुक्त अनुपम लिंग प्रकट हो गया ।
लिंग परीक्षा
लिंग के प्रकट होने पर ब्रह्मा जी और विष्णु जी इसके प्रभाव से मोहित हो गए। तब विष्णु जी ने यह प्रस्ताव किया कि हमलोग इस लिंग की परीक्षा करते हैं। ब्रह्मा जी भी इसके लिए तैयार हो गए। विष्णु ने कहा कि मैं इसकी गहराई की परीक्षा करता हूँ, और तुम इसकी ऊँचाई की परीक्षा करो। ऐसा निश्चय होते ही विष्णु ने नीले अंजन के सदृश पर्वत जैसा दस योजन लम्बा और चार योजन चौड़ा, मेरू पर्वत के समान ऊँचा, तीखी दाढ़ों वाला, प्रलयकालीन सूर्य के समान धधकता हुआ भयंकर युद्ध करने वाला अजेय वाराह रूप धारण कर लिया। ब्रह्मा जी ने ऊंचाई का अनुमान लगाने के लिए हंस रूप धारण कर लिया।
विष्णु जी लिंग का पता करने के लिए एक सहस्त्र वर्ष पर्यन्त त्वरित गति से नीचे की ओर गए किन्तु उन्हें लिंग के मूल का पता नहीं चला। इसी प्रकार से इतनी ही अवधि तक ब्रह्मा जी भी ऊपर की ओर उड़ते हुए गये किन्तु लिंग के छोर का पता नहीं चला। थक-हारकर दोनों वापस आ गए और उन्हें अपनी स्थिति का एहसास हो गया। उन्होंने यह जान लिया कि हम शिव की माया से विमोहित हैं। तब उन्होंने उस लिंग की परिक्रमा कर उसे प्रणाम किया। यही भगवान शिव का प्रथम शिवलिंग माना गया। इसके पश्चात ही लिंग को शिव का प्रतीक मानकर पूजा करने की परंपरा आरंभ हुई।
शिव पुराण में वर्णित कथा लिंग पुराण में वर्णित उपरोक्त कथा से थोड़ी भिन्नता के साथ कही गई है। परंतु दोनों कथाओं का मूल तत्व एक ही है।
शिवलिंग की संरचना
शिवलिंग के स्वरूप का विस्तृत वर्णन लिंग पुराण एवं मत्स्य पुराण में किया गया है।
शिवलिंग मंदिर के मुख्य भाग को गर्भगृह में स्थापित किया जाता है। शिवलिंग का ऊपरी हिस्सा पराशिव एवं निचला हिस्सा पराशक्ति है। लिंग के निचले अंश को पीठ (पाषाण का निर्मित आधार) में स्थित रखा जाता है जिसे योनि कहते हैं। इस प्रकार ये दोनों सृष्टि की उत्पत्ति के मूल कारण (पुरुष तत्व एवं प्रकृति तत्व) पुरुष तथा प्रकृति के प्रतीक कहे गए हैं।
शिवलिंग के भाग
शिवलिंग तीन भागों में विभाजित होता है –
ब्रह्मा भाग – यह शिवलिंग का सबसे निचला भाग होता है जो चौकोर होता है। इसे पीठ भी कहा जाता है।
विष्णु भाग – यह शिवलिंग का मध्य भाग होता है। यह अष्टकोणीय होता है। इसे भद्र पीठ कहा जाता है।
रूद्र भाग – यह शिवलिंग का सबसे ऊपरी भाग है जो वर्तुलाकर (गोल) होता है। इसे पूजा-भाग भी कहते हैं। इसे भोग पीठ कहा जाता है।
लिंग की आकृति मंदिर के द्वार सीमा पर निर्भर करती है ताकि प्रत्येक द्वार से उपासक देवता का दर्शन कर सकें।
शिवलिंग की पीठिका
जिस प्रकार लिंग भगवान शिव का प्रतीक होता है उसी प्रकार पीठ माता पार्वती का। शिवलिंग की पीठ सामान्यतः तीन तरह की होती है –
वर्गाकार – उत्तर भारतीय मंदिर निर्माण शैली (नागर शैली) में शिवलिंग की पीठ वर्गाकार होती है।
अष्टभुजाकार – दक्षिण भारतीय मंदिर निर्माण शैली (द्राविड शैली) में शिवलिंग की पीठ अष्टभुजाकार होती है।
गोलाकार – मध्य भारतीय मंदिर निर्माण शैली (बेसर शैली जिसमें उत्तर और दक्षिण की मंदिर निर्माण शैलियों का मिश्रण होता है) में शिवलिंग की पीठ गोलाकार होती है।
पीठ की रचना नारी गुप्तांग के अनुरूप होती है। इसके 5 भाग होते हैं – 1. योनिद्वार, 2. जलधारा, 3. धृतवारि, 4. निम्न, 5. पट्टिका।
शिवलिंग से जल के निकलने का जो मार्ग होता है उसे योनिमार्ग कहते हैं। शिवलिंग का ब्रह्मा भाग एवं विष्णु भाग पीठ में स्थिर किए जाते हैं। केवल पूजा भाग पर जल, पुष्प, नैवेद्य आदि अर्पित किए जाते हैं।
शिवलिंग के प्रकार
अचल लिंग – जो शिवलिंग मंदिरों में स्थापित होते हैं उन्हें अचल लिंग कहा जाता है। अचल लिंगों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन शास्त्रों में किया गया है।
स्वयम्भुव लिंग – स्वयम्भुव लिंग भारत में 69 स्थानों पर पाए जाते हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं – वाराणसी, प्रयाग, काशी, रुद्रकोटि, उज्जैन, केदार, मुक्तेश्वर, कैलाश, गंगासाग, गंधमादन, हेमकुंड इत्यादि।
दैविक लिंग – दैविक लिंग की आकृति ज्वाला के समान होती है। इसका ऊपरी भाग खुरदरा होता है।
गाणपत्य तथा आर्ष लिंग – ये गणों तथा ऋषियों द्वारा स्थापित लिंग हैं। आर्ष लिंग का ना तो कोई रूप और ना ही कोई मान विहित है।
मानुष लिंग – यह मनुष्य द्वारा प्रतिष्ठापित लिंग हैं। अचल लिंगों में इनकी संख्या सर्वाधिक है। मानुष लिंग की ऊंचाई के आधार पर इनके अलग-अलग प्रभेद किए गए हैं। मुख-लिंग, धारा लिंग, सहस्त्र लिंग इत्यादि मानुष लिंग के कुछ प्रकार हैं।
मुख-लिंग – जब शिवलिंग के पूजा भाग पर मुख की आकृति तैयार की जाती है तो उस शिवलिंग को मुख-लिंग कहा जाता है। मुख-लिंग में एक, तीन, चार, पांच मुख भी निर्मित होते थे।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार पांच मुख शिव के 5 रूपों – सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान का परिज्ञान कराता है।
लिंग पुराण में पंचमुखी शिवलिंग के महत्व का वर्णन किया गया है। ऊपरी मुख को ईशान, पूर्वी को तत्पुरुष, दक्षिण मुख को अघोर, पश्चिमी मुख को वामदेव तथा उत्तर मुख को सद्योजात नाम दिया गया है।
महाभारत में दक्षिण दिशा में स्थित मुख को भयंकर कहा गया है।
धारा लिंग – धारा लिंग में पूजा-भाग के कटान से कई लहरें बन जाती हैं और जल दो कटानों के मध्य से पीठ पर गिरता है।
सहस्त्र लिंग – सहस्त्र लिंग में पूजा-भाग को हजारों लंबवत तथा समानांतर रेखाओं द्वारा उत्कीर्ण किया जाता है।
सर्व-सम लिंग – इस लिंग के पूजा भाग पर पंचानन शिव के प्रसिद्ध पंचरूपों – वामदेव, तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात तथा ईशान में से कोई एक या सभी रूप की उपस्थिति होती है।
चल लिंग – जब मिट्टी का शिवलिंग बनाकर पार्थिव पूजा की जाती है और पूजा के पश्चात शिवलिंग को नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है, वैसे शिवलिंग को चल शिवलिंग कहते हैं। चल लिंग कई प्रकार के होते हैं –
मृणमय लिंग – मृणमय लिंग की रचना कच्ची या पक्की मिट्टी से की जाती है।
लोहज लिंग – धातुओं से निर्मित लिंग को लोहज लिंग कहा जाता है। लोहज लिंग आठ धातुओं से निर्मित किए जा सकते हैं। विदित हो कि रावण स्वर्ण लिंग की पूजा करता था।
रत्नज लिंग – रत्नज लिंग सात भिन्न प्रकार के रत्नों से निर्मित किए जा सकते हैं।
दारुज लिंग – भिन्न-भिन्न प्रकार की लकड़ियों से निर्मित लिंग को दारुज लिंग कहा जाता है। इन लिंगों की रचना में शमी, मधूक, तिन्दुक, अर्जुन पीप्पल, उदुंबर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
शैलज लिंग – छोटे-छोटे बाण लिंगों की गुरियों को शैलज लिंग कहा जाता है।
क्षणिक लिंग – क्षणिक लिंगों की रचना वैसे पदार्थों से की जाती है जो सर्वत्र मिलते हैं, जैसे बालू, धान, मिट्टी, पुष्प इत्यादि। इन लिंगों का पूजा के उपरांत तुरंत विसर्जन कर दिया जाता है।
गंध लिंग – यह दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन और तीन भाग कुमकुम से बनता है।
बाण-लिंग – बाण-लिंग (शालग्राम के सदृश्य) प्राकृतिक रूप में एक आकार (लिंग) बन जाता है जिसे नर्मदा या रेवा नदी के गर्भ से प्राप्त करते हैं। इस कारण इसे नर्मदेश्वर भी कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शिवभक्त बाणासुर ने 14 करोड़ शिवलिंग की विभिन्न स्थानों में स्थापना की थी। जिसे बाण-लिंग कहा जाता है। ये बाण-लिंग वर्तुल आकृति में नर्मदा, गंगा तथा अन्य पवित्र नदियों में मिलते हैं।
लिंगोद्भव मूर्ति – शिवलिंग से उत्पन्न मनुष्य आकार में देव प्रतिमा लिंगोद्भव मूर्ति कही जाती है। दक्षिण भारत में ऐसी मूर्तियां देखने को मिलती हैं।
पारद लिंग – पारे से निर्मित लिंग को पारद लिंग कहा जाता है। पारद शब्द में ‘प’ विष्णु का, ‘आ’ कालिका का, ‘र’ शिव का और ‘द’ ब्रह्मा का प्रतीक है। पारद लिंग की पूजा से धन, ज्ञान, सिद्धि और ऐश्वर्य में वृद्धि होती है।
शिवलिंग के प्रकार और उनका माहात्म्य
- मृणमय लिंग – समस्त सिद्धियों की प्राप्ति वाला
- लोहज लिंग – धन प्रदान करने वाला
- रत्नज लिंग – श्री प्रदान करने वाला
- दारुज लिंग – भोग और सिद्धि दोनों देने वाला
- शैलज लिंग – सिद्धियों को देने वाला
- यवगोधूमशालिज लिंग – पुत्र लाभ के लिए (जौ, गेहूं, चावल के आटे से निर्मित)
- सिताखंडमय लिंग – आरोग्य लाभ देने वाला
विभिन्न प्रकार के द्रव्यों से शिवलिंग का निर्माण कर भगवान शिव की पूजा की जाती है परंतु शास्त्रों में कुछ पदार्थों से निर्मित शिवलिंग की पूजा का निषेध किया गया है। इनमें शामिल हैं – तांबा, सीसा, रक्तचंदन, शंख, कांसा, लोहा इत्यादि।
देवी-देवताओं द्वारा शिवलिंग की पूजा
मनुष्य ही नहीं देवी-देवता भी विभिन्न द्रव्यों द्वारा निर्मित शिवलिंग की पूजा करते हैं जिसका वर्णन पुराणों में किया गया है। यह इस बात का प्रमाण है कि समस्त चराचर जगत शिव के लिंग की पूजा करके ही स्थित है। देवी-देवताओं के द्वारा जिन पदार्थों से निर्मित शिवलिंग की पूजा की गई उसकी सूची निम्न है –
12 ज्योतिर्लिंग
हिंदू धर्म में ज्योतिर्लिंगों की संख्या 12 है। ज्योतिर्लिंग शब्द ज्योति और लिंग से मिलकर बना है। ज्योति प्रकाश का वाचक है और लिंग शब्द चिह्न का। ज्योति का प्रादुर्भाव सूर्य से माना जाता है और सूर्य 12 आदित्य के रूप में शास्त्रविश्रुत हैं। अतः 12 आदित्य के रहने के कारण उनकी ज्योति भी उस अनुरूप 12 ही हुई। इस कारण 12 ज्योतिर्लिंग माने गए हैं।
ज्योतिर्लिंग भी एक प्रकार से शिवलिंग ही हैं परंतु ये शिवलिंग से भिन्न और विशिष्ट हैं। शिवलिंग की स्थापना जहां मनुष्यों या ऋषि-मुनियों द्वारा की गई है या की जाती है वहीं ज्योतिर्लिंग के संबंध में यह मान्यता है कि इसमें भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए हैं।
भारत के 12 ज्योतिर्लिंग
भगवान शिव रुद्र रूप में वस्तुतः अग्नि के प्रतीक हैं। अग्नि की शिखा ऊपर उठती है इसलिए शिव के उर्ध्व लिंग की कल्पना की गई है। शिवलिंग को ज्योतिर्लिंग करने का यही अभिप्राय है। अग्नि वेदी पर जलते हैं इसलिए शिव जलधारा के बीच में स्थापित किए जाते हैं। भगवान शंकर जल के अभिषेक से प्रसन्न होते हैं।
अग्नि के दो रूप हैं – घोरा तनु व अघोरा तनु। अपने भयंकर घोर रूप से वह संसार का संहार करने में समर्थ होता है, साथ ही अघोर रूप में वही संसार का पालन करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार भगवान शिव अपने रौद्र रूप में संसार का संहार करने में समर्थ हैं और वही संसार की मंगल कामना में भी समर्थ हैं।
आप इन्हें भी पढ़ सकते हैं –
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग – दर्शन से मोक्ष प्राप्ति
सबसे ऊंचाई पर स्थित केदारनाथ ज्योतिर्लिंग
प्रथम ज्योतिर्लिंग सोमनाथ ज्योतिर्लिंग
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को कामना लिंग क्यों कहते हैं?
भारत में लिंग पूजा का इतिहास
- भारत में लिंग पूजा के प्रचलन का प्रमाण प्रागैतिहासिक काल से ही मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता के काल में अत्यधिक संख्या में लिंगों की उपस्थिति मिलती है। वैदिक काल में भी आर्य तथा अनार्य लोगों के द्वारा शिवलिंग की पूजा होती थी।
- गुप्त शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के मथुरा स्तंभ लेख में शिवलिंग की स्थापना का वर्णन मिलता है। उसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में करमदंडा से प्राप्त शिवलिंग के चौकोर ब्रह्मा भाग पर अभिलेख खुदा है जिसमें शिव प्रतिमा की स्थापना तथा दान का विवरण दिया गया है। गुप्त काल में मुख-लिंग की स्थापना का प्रमाण मिलता है। गुप्तकालीन एक या चतुर्मुख लिंग उत्तर प्रदेश और बिहार से प्राप्त हुए हैं। मुख-लिंग की आकृति में जटा, मुकुट, चंद्रमा विभूषित हैं तथा ललाट पर तीसरा नेत्र स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इन लक्षणों द्वारा शिव के गुणों की कल्पना की जा सकती है।
- पंचमुख लिंग को कुषाणकाल से ही तैयार होने लगा था जिसका विशेष प्रचार गुप्त काल में हुआ।
- मध्य प्रदेश के नागौद रियासत में मुख-लिंग की अनेक मूर्तियां मिली हैं।
- बाणभट्ट के हर्षचरित में पंच ब्रह्म रूप शिव पूजा का वर्णन किया गया है। बाणभट्ट ने अपनी पुस्तक कादंबरी में सैकत लिंग तथा शौक्तिक लिंग का वर्णन किया है।
- दक्षिण भारतीय शिवलिंग में आंध्र प्रदेश के गुड्डीमल का मुख-लिंग इतिहास तथा कला की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह शिवलिंग 5 फीट ऊंचा काले पत्थर का बना है जिसमें पीठ का अभाव है।
अति उत्तम, ज्ञानवर्धक