वेदव्यास कौन थे?

वेदव्यास कौन थे? 

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महर्षि वेदव्यास भारतीय धर्म-साहित्य संपदा के शिरोमणि हैं। वेदों को व्यवस्थित करने वाले और महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास पराशर ऋषि और सत्यवती के पुत्र थे। महर्षि वेदव्यास को भगवान विष्णु के 24 अवतारों में गिना जाता है। महर्षि व्यास भगवान् नारायण के कलावतार थे। कुछ पुराणों में इन्हें ब्रह्मा का अवतार भी माना गया है।

वेदव्यास का जीवन परिचय

  • पिता का नाम – पराशर ऋषि
  • माता का नाम – सत्यवती
  • जन्म स्थान – यमुना नदी के द्वीप पर
  • गुरु का नाम – वेदव्यास जन्म से ही सर्वज्ञान संपन्न थे। हालांकि कुछ जगहों पर ब्रह्मा जी को वेदव्यास का गुरु माना गया है।
  • भाई का नाम – भीष्म, चित्रांगद और विचित्रवीर्य
  • पत्नी का नाम – आरुणी या वटिका या पिंजल
  • पुत्र का नाम – शुकदेव, धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर
  • शिष्यों के नाम – पैल, जैमिनि, वैशम्पायन, सुमन्तु और रोमहर्षण
  • योगदान – वेदों का विभाजन और पुराण, महाभारत तथा ब्रह्मसूत्रों की रचना
    वेदव्यास के पुत्र शुकदेव जी के जन्म से संबंधित कथा का  विस्तारपूर्वक वर्णन निम्न आलेख में किया गया है –
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वेदव्यास कौन थे?

वेदव्यास को यह श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने वेदों को चार भागों में व्यवस्थित किया महाभारत की रचना की पुराणों की रचना की और वेदांत दर्शन का प्रतिपादन किया। विद्वानों में इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि ये सभी एक ही व्यक्ति थे या एक ही नाम के अलग-अलग व्यक्ति या यह कोई उपाधि थी जो इन कार्यों को करने वाले महर्षियों को प्रदान की जाती थी।  

भारतीय परम्परा में इन सबको एक ही व्यक्ति माना गया है। हालांकि पुराणों में अठारह व्यासों का उल्लेख है जो ब्रह्मा या विष्णु के अवतार कहलाते हैं। पृथ्वी पर विभिन्न युगों में वेदों की व्याख्या व प्रचार करने के लिए वे अवतीर्ण होते रहे हैं। 

व्यास का अर्थ होता है ‘सम्पादक’। यह उपाधि अनेक पुराने ग्रन्थकारों को प्रदान की गयी है। किन्तु विशेषकर वेदव्यास उपाधि वेदों को व्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले उन महर्षि को दी गयी है जो चिरंजीव होने के कारण ‘शाश्वत’ कहलाते हैं। 

यही नाम महाभारत के संकलनकर्ता, वेदान्त दर्शन के स्थापनकर्ता तथा पुराणों के व्यवस्थापक को भी दिया गया है। ये सभी व्यक्ति वेदव्यास कहे गये है। 

वेदव्यास के अन्य नाम

  • द्वैपायन – वेदव्यास का जन्म यमुना के द्वीप में हुआ था। इस कारण इन्हें ‘द्वैपायन’ कहा जाता है।
  • कृष्णद्वैपायन – इनका वर्ण कृष्ण (श्याम) था, अतएव वे ‘कृष्णद्वैपायन’ नाम से प्रख्यात हैं।
  • बादरायण – बदरीवन में रहने के कारण वे ‘बादरायण’ भी कहे जाते हैं।
  • पाराशर्य – ऋषि पराशर के पुत्र होने के कारण इन्हें ‘पाराशर्य’ कहा जाता है।
  • वेदव्यास – मनुष्यों की आयु और शक्ति को अत्यन्त क्षीण होते देखकर वेदों का व्यास (विस्तार) किया अर्थात वेदों को चार भागों में व्यवस्थित किया। इसीलिये वे ‘वेदव्यास’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

महर्षि वेदव्यास का जन्म

महर्षि वेदव्यास के जन्म से संबंधित कथा का वर्णन महाभारत के आदि पर्व में किया गया है। महाभारतकार व्यास के पिता ऋषि पराशर एवं सत्यवती थीं। यहां उन्हीं की कथा का उल्लेख किया गया है।

पूर्व काल में पुरुवंश में वसु नामक एक राजा थे। भगवान इंद्र ने बसु की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें चंदेरी नामक एक सुंदर राज्य एवं अपना विमान प्रदान किया था। राजा वसु इन्द्र के दिये हुये विमान पर चढ़ कर आकाश में घूमा करते थे और उन के पास गंधर्व और अप्सरा आती थीं, इस कारण उनका नाम उपरिचर वसु विख्यात हो गया। .

चंदेरी नगर के समीप शुक्तिमति नामक एक नदी बहती थी। उस नदी को कोलाहल नामक पर्वत ने काम के वश होकर रोक लिया था जिससे राजा वसु को उस पर्वत पर क्रोध आ गया। राजा ने क्रोध से उस पर्वत को लात मारी और उसमें एक विवर हो गया। उस विवर से निकलने के क्रम में शुक्तिमति नदी का कोलाहल से संसर्ग हुआ। इससे शुक्तिमति नदी के गर्भ ठहर गया और एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई। नदी ने राजा की प्रीति के कारण वह दोनों राजा को अर्पण कर दिये। राजा ने लड़के का नाम वसुपद रख कर उसको अपना सेनापति बना लिया और गिरि की उस कन्या को अपनी पत्नी बनाया।

गिरिका समय पाकर ऋतुवती हुई, परंतु जिस दिन वह ऋतु स्नान करने को थी उस दिन पितरों ने राजा को कहा कि मृग मारकर वन से लाकर श्राद्ध करो। उनकी आज्ञा पाकर राजा शिकार करने के लिए वन में चला गया।

वसन्त ऋतु के मौसम में जब राजा वन में पहुंचा तो वहां की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर उसका मन कामातुर हो गया। रतिक्रिया की कल्पना कर राजा का वीर्य गिर पड़ा। उस वीर्य को राजा ने वृक्ष के पत्ते में ले लिया और इस विचार से कि मेरा वीर्य और मेरी सुकुमार स्त्री का ऋतु काल व्यर्थ न जाय अपने विमान में बैठे हुये श्येम नामक पक्षी से कहा यह मेरा वीर्य है इस को शीघ्र ले जा कर मेरी स्त्री गिरिका को दे दे| 

वह पक्षी उस वीर्य को लेकर वहां से उड़ा। रास्ते में उस पक्षी को उसकी जाति के दूसरे पक्षी ने देखा और उस वीर्ययुक्त पत्ते को मांस समझ कर उसके सामने आया। दोनों लड़ने लगे जिससे वीर्य यमुना में गिर गया। यमुना में जहां वीर्य गिरा था वहां देव योग से अद्रिका नामक अप्सरा जो एक ब्राह्मण के शाप से मछली हो गई थी यमुना में फिरती हुई वहां आ पहुंची और उस वीर्य को निगल गई। 

दस मास बीतने पर उस मछली को निषादों ने पकड़ लिया और उसका पेट चीरने पर उसमें से एक कन्या और एक बालक निकला। उनको देख कर निषाद आश्चर्यचकित हो गये और उन दोनों को राजा के पास ले जा कर अपर्ण कर दिया।

राजा ने उस लड़के को अपने पास रख लिया और उसका नाम मत्स्यराज दिया। 

राजा ने उस कन्या को निषाद को देकर कहा कि यह तुम्हारी कन्या हो। निषाद ने उसको अपनी कन्या के समान पाला और उसका नाम सत्यवती रखा। परंतु उसके शरीर से मछली की गंध आने के कारण उसका नाम मत्स्यगंधा पड़ गया।

जब मत्स्यगंधा बड़ी हुई तो अपने पिता की आज्ञा से पिता की नाव को महात्माओं की सेवा के लिये यमुना में चलाया करती थी। एक दिन पाराशर ऋषि तीर्थ यात्रा करते हुये वहां पहुंचे और उस कन्या के सुंदर स्वरूप को देख कर मोहित हो गये। पाराशर ऋषि ने कामवश होकर मत्स्यगंधा से कहा – हे कल्याणी, तू मेरे साथ रमण कर।

मत्स्यगंधा ने कहा – महाराज दोनों ओर ऋषि गण खड़े हैं। उनकी उपस्थिति में हमारा समागम नहीं हो सकता है।

यह सुनकर पराशर ऋषि ने अपने योग के प्रभाव से चारों ओर कुहरा उत्पन्न कर दिया ताकि कोई किसी को ना देख सके। 

सत्यवती उस अन्धकार को देख कर चकित हो गई और उनको बड़ा तपस्वी जान कर बोली – महाराज मैं अभी कन्या हूं और मेरा धर्म अपने पिता की आज्ञा के अनुसार चलना है। आपके साथ समागम करने से मेरा कन्याभाव चला जायेगा। पुनः मैं पिता के घर क्योंकर जा सकूंगी और जीऊंगी। इस बात का आप विचार कर लीजिये और फिर जो इच्छा हो सो कीजिये!

तब पराशर ऋषि ने कहा – जो मैं कहूँ सो तुम करो। तुम्हारा कन्याभाव नहीं जायेगा और जो वर तुम मांगना चाहो मांग सकती हो।

सत्यवती ने कहा – महाराज मेरी देह सुगन्धित हो जाये। 

पराशर ऋषि ने उसको मनोवांछित वर दया और उसके साथ संसर्ग किया। पराशर ऋषि के वरदान से उसकी देह बहुत सुगन्धित हो गई। इससे उसका नाम गंधवति विख्यात हुआ। जब मनुष्यों ने उसकी देह की गंध को एक योजन से सुंघा तो उसका नाम योजनगंधा रखा गया।

पराशर ऋषि के संसर्ग से सत्यवती ने यमुना द्वीप पर एक पुत्र को जन्म दिया। यही पुत्र बाद में वेदव्यास कहलाए। धरती पर पदार्पण करते ही अचिन्त्य शक्तिशाली व्यास जी ने अपनी माता से कहा- आवश्यकता पड़ने पर जब भी मुझे स्मरण करोगी, मैं अवश्य तुम्हारा दर्शन करूँगा। ऐसा कहकर वे माता की आज्ञा से तपःचर्या में लग गये।

आगे चलकर सत्यवती का विवाह महाराज शांतनु से हुआ। शांतनु से सत्यवती को दो पुत्र हुए – चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद की मृत्यु युद्ध में हो गई, वहीं विचित्रवीर्य संतानहीन मृत्यु को प्राप्त हो गया। वेदव्यास ने धार्मिक तथा वैराग्य जीवन का चयन किया था किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किये जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाये।

वेदव्यास का योगदान 

वेदपुरुष श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञ-अनुष्ठान के उपयोग को ध्यान में रखकर एवं धर्म को होने वाली हानि से बचाने के लिए वेद को चार भागों में व्यवस्थित कर दिया और इन चारों भागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। द्वैपायन ने ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद का अध्ययन क्रमशः अपने शिष्यों पैल, जैमिनि, वैशम्पायन और सुमन्तु को तथा महाभारत का अध्ययन रोमहर्षण को कराया।

वेद को सुनना शूद्रों और स्त्रियों के लिये वर्जित था। उनके उद्धार के लिए सकल वेदार्थों का संग्रह कर उनके हित के लिए इतिहास-पुराणों की सृष्टि की। उन पुराणों में निष्ठा के अनुरूप आराध्य की प्रतिष्ठा कर उन्होंने वेदार्थ को चारों वर्णों के लिये सहज सुलभ कर दिया। 18 पुराणों के अतिरिक्त बहुत से उपपुराण तथा अन्य ग्रन्थ भी व्यास द्वारा निर्मित हैं। महर्षि व्यास ने ब्रह्मसूत्रों की भी रचना की।

अत्यन्त विस्तृत पुराणों में कल्पभेद से चरित्रभेद पाये जाते हैं। समस्त चरित्र इस कल्प के अनुरूप हों तथा समस्त धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सम्बन्धी सिद्धान्त भी उनमें एकत्र हो जायँ, इस निश्चय से वेदव्यास ने महाभारत की रचना की। महाभारत को ‘पंचम वेद’ और ‘कार्ष्णवेद’ भी कहते हैं।

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