वराह अवतार की कथा

भगवान विष्णु के वराह अवतार की कथा

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भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध करने के लिए वराह अवतार धारण किया था। भगवान विष्णु के 10 अवतारों में वराह अवतार उनका तीसरा अवतार है। हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया था जिससे समस्त लोक में अधर्म का प्राबल्य हो गया था। लोक से अधर्म को समाप्त करने के लिए ही भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण किया था। वराह का अर्थ होता है शुकर। वराह अवतार के समय भगवान विष्णु का शरीर मनुष्य रूप में था तथा सिर वराह के रूप में था। भागवत पुराण में भगवान विष्णु के वराह अवतार की कथा और हिरण्याक्ष का विस्तार से वर्णन किया गया है। 

वराह अवतार की कथा 

महर्षि कश्यप और दैत्यों की माता दिति के गर्भ से जुड़वाँ भाई के रूप में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो दैत्य पैदा हुए। जन्म के साथ ही ये अति बलशाली थे। अपने बल का प्रयोग करते हुए इन्होंने धरती पर अधर्म का प्रसार करना प्रारंभ कर दिया। सभी प्रकार के यज्ञ, अनुष्ठान, हवन इत्यादि को समाप्त कर दिया। यज्ञ, हवन इत्यादि से देवताओं को जो शक्ति और सम्मान प्राप्त होता था उसे निस्तेज करने के लिए इन्होंने ऐसा प्रयास किया था। दोनों भाइयों ने अपनी शक्ति का प्रयोग कर स्वर्ग पर भी कब्जा जमा लिया।  

जब हिरण्याक्ष ने स्वर्ग लोक को जीत लिया तब देवता गण पृथ्वी पर विचरण करने लगे। इससे कुपित होकर हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छुपा दिया। धरती को समुद्र में छुपा देने से चारों ओर हाहाकार मच गया, देवता त्राहि-त्राहि करने लगे। अपनी शक्ति के अभिमान में हिरण्याक्ष ने पाताल लोक के देवता वरुण देव को भी युद्ध के लिए ललकारा लेकिन उन्होंने युद्ध करने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उन्होंने कहा कि मेरी इतनी शक्ति नहीं कि मैं तुमसे युद्ध कर सकूं। तुम्हें युगपुरुष नारायण से युद्ध करना चाहिए। 

इधर पृथ्वी को समुद्र में छुपाने और स्वर्ग पर कब्जा जमाने के कारण देवताओं में हाहाकार मचा था। तब देवताओं ने ब्रह्मा जी और विष्णु जी से हिरण्याक्ष से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु की स्तुति की और भगवान विष्णु ब्रह्मा जी की नासिका से वराह के रूप में अवतरित हुए। 

वराह अवतार लेकर विष्णु जी पृथ्वी को समुद्र से निकालने के लिए समुद्र में चले गए। इधर हिरण्याक्ष विष्णु जी को खोजते हुए समुद्र में चला गया। जहां उसने देखा कि एक वराह पृथ्वी को समुद्र से ऊपर ले जा रहा है। उसने उस वराह को युद्ध के लिए ललकारा। भीषण युद्ध के पश्चात भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। इसके बाद भगवान वराह ने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया और अंतर्ध्यान हो गए।

हिरण्याक्ष कौन था?

हिरण्याक्ष कौन था?हिरण्याक्ष के जन्म के पीछे दो घटनाओं का संयोग जुड़ा हुआ है।

एक बार ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादि ऋषि भगवान विष्णु से मिलने के लिए बैकुंठ धाम गए। सनकादि ऋषि चार भाई थे – सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार। चारों भाई हमेशा बाल रूप में ही रहते हैं। इन्हें देवताओं का पूर्वज माना जाता है। जब सनकादि ऋषि बैकुंठ धाम पहुंचे तो वहां भगवान विष्णु के 2 पार्षद जय और विजय द्वार पर पहरा दे रहे थे। इन दोनों पार्षदों ने सनकादि ऋषि को भीतर जाने से रोक दिया। सनकादि ऋषि ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया कि वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्त हैं, उन्हें अंदर जाने दिया जाए। परंतु उन दोनों द्वारपालों ने उन्हें फिर भी भीतर जाने नहीं दिया। 

इससे क्रोधित होकर सनकादि ऋषि ने उन दोनों को श्राप देते हुए कहा – तुम्हारे अंदर भगवान विष्णु के समीप रहने का अहंकार उत्पन्न हो गया है इसलिए तुम पापी योनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो। 

जब यह बात भगवान विष्णु को पता चली कि सनकादि ऋषि दर्शन के लिए आए हुए हैं और द्वारपालों ने उन्हें अंदर आने से रोक दिया है तो वह स्वयं सनकादि ऋषि से मिलने द्वार पर आए। उन्होंने सनकादि ऋषि से क्षमा प्रार्थना की और कहा – आपने उचित ही इनके अहंकार का इन्हें दंड दिया है। 

उन्होंने द्वारपालों की तरफ से क्षमा मांगते हुए कहा – द्वारपालों द्वारा की गई गलती स्वयं उसके स्वामी द्वारा की गई गलती के समान है इसलिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूं। 

भगवान विष्णु के क्षमा मांगने पर और विनम्र व्यवहार पर सनकादि ऋषि प्रसन्न हो गए और उन्होंने भगवान विष्णु से कहा – हे प्रभु, यदि आप चाहें तो इन दोनों द्वारपालों को दिए गए श्राप से आप मुक्त कर सकते हैं। 

भगवान विष्णु ने कहा – मैं ब्राह्मणों के शब्दों को असत्य साबित नहीं करना चाहता इसलिए इन्हें अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ेगा। 

भगवान विष्णु ने तब कहा – इन्हें तीन योनि तक दैत्य लोक में जन्म लेना होगा और मेरे द्वारा ही इनका संहार होगा। मेरे द्वारा इनके संहार के बाद यह पुनः बैकुंठ लोक में वापस आ जाएंगे। 

शाप से ग्रसित होकर जय, विजय का जन्म सतयुग में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में हुआ। हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर किया एवं हिरण्यकशिपु का वध नरसिंह अवतार धारण कर किया। 

त्रेता युग में यही दोनों रावण और कुंभकरण के रूप में उत्पन्न हुए। इन दोनों के पिता महर्षि विश्रवा और माता कैकसी थे। इन दोनों का संहार भगवान श्री राम के द्वारा किया गया। 

द्वापर युग में जय शिशुपाल के रूप में व विजय दंतवक्र के रूप में उत्पन्न हुआ। जय के पिता राजा दमघोष और माता सुतसुभा थी। विजय के पिता वृद्धशर्मा और माता श्रुतदेवी थी। इन दोनों का अंत भगवान श्री कृष्ण के द्वारा किया गया। 

तीन जन्मों की समाप्ति के बाद ये दोनों पुनः बैकुंठ धाम में वापस आ गए।

हिरण्याक्ष के जन्म का दूसरा सिरा कुछ इस प्रकार है –

महर्षि कश्यप ने दक्ष प्रजापति की प्रथम सत्रह कन्याओं से विवाह किया था। उसी में एक कन्या दिति थी। एक शाम जब महर्षि कश्यप प्रभु की आराधना में ध्यान लगाए हुए थे तभी दिति उनके पास आई। संतानोत्पत्ति की लालसा में कामवासना से युक्त होकर दिति ने महर्षि से रति के लिए कहा। 

महर्षि कश्यप ने कहा कि संध्या का समय रतिक्रिया के लिए नहीं है। इस समय प्रभु महादेव अपने यक्षों, भूतों, प्रेतों के साथ विचरण करते हैं। यदि आप इस समय रतिक्रिया में संलग्न रहते हैं तो प्रभु इससे अप्रसन्न हो जाएंगे। संध्या का समय संतानोत्पत्ति के लिए उचित नहीं होता है। संध्या का समय भगवान की आराधना का समय है। उचित समय होने पर ही संतानोत्पत्ति के लिए रतिक्रिया में प्रवृत्त होना चाहिए। दिति के बार-बार जिद करने की वजह से महर्षि कश्यप रतिक्रिया में संलग्न हुए। 

गर्भधारण करने के पश्चात दिति को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने प्रभु महादेव से क्षमा मांगते हुए कहा कि वह मेरा गर्भ नष्ट ना करें और हमारे ऊपर अपनी कृपा बनाए रखें। 

महर्षि कश्यप ने जब दिति को अपनी गलती के लिए क्षमा मांगते और अपनी संतान के लिए मंगलकामना करते हुए देखा तो उन्होंने दिति से कहा – तुमने गलत समय में गर्भ धारण किया है। इसके कारण तुम्हारे गर्भ से दो अत्याचारी पुत्र पैदा होंगे। इससे संपूर्ण लोक में अधर्म का प्रसार होगा और लोगों को अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ेगा। भगवान स्वयं इसके अत्याचारों से कुपित होकर इसका संहार करेंगे। तुम्हें अपनी गलती का एहसास है और तुम इसके लिए क्षमाप्रार्थी हो इस कारण तुम्हारा पौत्र भगवान का बहुत बड़ा भक्त होगा।

शाप से ग्रसित जय, विजय ही हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में दिति के गर्भ से जुड़वाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए तथा हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद हुए। प्रहलाद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे।

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