उपनिषदों का विवेच्य विषय

उपनिषदों का विवेच्य विषय

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उपनिषद ब्रह्म प्रतिपादन के सन्दर्भ में वेद की सारगर्भ बातों का समाहार हैं। उपनिषदों में केवल पाण्डित्यपूर्ण एवं गम्भीर दार्शनिक विचारधारा मात्र ही नहीं है, अपितु वे यथार्थमय लोक के सामान्य तत्वों से भी परिचय कराते हैं, जिनका सम्बन्ध जीवन के विविध क्षेत्रों से है। किन्तु यह निश्चित है कि इन उपनिषदोंं का मूल प्रतिपाद्य दार्शनिक विचारधारा ही है। सामान्य दृष्टि से यद्यपि सभी उपनिषदोंं का अपना निजी स्वरूप है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से प्राचीन प्रामाणिक उपनिषदोंं में कुछ ऐसे दार्शनिक सिद्धान्तों का अन्तःप्रवाह मिलता है, जिनकी एकरूपता सर्वत्र बनी रहती है।  

मुख्यतः उपनिषदों में निम्न विषयों का प्रतिपादन हुआ है–

ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन 

ब्रह्म को अखण्ड और अनन्त शक्ति कहकर उसके निर्गुण रूप का विवेचन करना उपनिषदों का सर्वोत्कृष्ट विषय रहा है। उपनिषदों का ब्रह्म एक ऐसी शक्ति है, जो जगत् में व्याप्त होकर भी जगत् से बाहर भी अपना अस्तित्व रखता है। इन्द्रियों से अतीत ईश्वर निष्क्रिय न होकर नितान्त सक्रिय भी है। वह चलकर भी नहीं चलता है। वह दूर भी है और पास भी है। उपनिषदों में ईश्वर को अन्तर्यामी और बाह्ययामी भी सिद्ध किया गया है। यथा-

‘गीता’ का समम्त रहस्य ईश्वर के इसी स्वरूप पर टिका हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में ऐसी विभावना का बहुत सुन्दर चित्रण किया गया है-
बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना। 
कर बिनु कर्म करइ विधि नाना।

ब्रह्म और आत्मा के संबंधों का विश्लेषण 

उपनिषद के दार्शनिक सिद्धान्तों में, जो सभी प्रामाणिक उपनिषयों में समान रूप से अनुस्यूत हैं, जगत् की ब्रह्मता और ब्रह्म की आत्मस्वरूपता के सिद्धान्त प्रमुख हैं। इस प्रकार उपनिषद वर्णित दार्शनिकों का सम्पूर्ण चिन्तन-मनन ब्रह्म और आत्मा सम्बन्धी विचारों पर केन्द्रित है। उपनिषदों में ब्रह्म का प्रयोग सर्वव्यापी अद्वैत सत्य के रूप में किया गया है। उपनिषदों में ब्रह्म और जगत् के बीच भेद का निराकरण पूर्णरूपेण किया गया है।

आत्मा और ब्रह्म के इस ऐक्य का प्रतिपादन छान्दोग्योपनिषद में ‘तत्त्वमसि’ सिद्धान्त के रूप में अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से किया गया है। कठोपनिषद में उक्त विचार को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो इस जगत् में भेद देखता है वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त नहीं होता, परन्तु अद्वैत विद्या से बुद्धि के संस्कृत होने पर द्वैत दृष्टि का विनाश सम्भव है। 

जीवात्मा के रहस्य की व्याख्या 

माण्डूक्योपनिषद में जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति तथा समाधि या तुरीय नामक चार प्रवस्थाओं के आधार पर जीवात्मा के समग्र स्वरूप का चित्रण किया गया है। अन्ततः जीवात्मा आनन्द और ज्ञान का ही स्वरूप है। उपनिषद में जीवात्मा को अंगूठे के परिमाण वाला भी कहा गया है। जीवात्मा को इतना छोटा बताने का अभिप्राय केवल यही है कि जीवात्मा का दर्शन हृदय के रोहिताकाश में ही सम्भव है। उपनिषदों में आत्मा को ब्रह्म का स्वरूप बताया गया है। आसुरी वृत्तियों में अपने आपको प्रवृत्त करना ही आत्महनन है। अतः आत्मा का यथार्थ रूप अनुभवगम्य ही है तथा उसे एक चेतना के रूप में ही जानना चाहिए। जीवात्मा के स्वरूप का निदर्शन निम्न उदाहरण में द्रष्टव्य है-
सोऽयमात्मा ब्रह्म। सोऽयमात्मा चतुष्पात्।। 

प्रकृति या माया का रहस्य 

उपनिषदों में ईश्वर की आज्ञा या भय के फलस्वरूप सूर्य के तप्त होने, अग्नि के प्रज्वलित होने, वायु के बहने तथा जल के प्रवाहित होने का वर्णन किया गया है। मूल रचना ही प्रकृति है। बृहदारण्यकोपनिषद् में इस समस्त मूल रचना को चेतन तत्व स्वरूप ईश्वर में तैरता हुआ सिद्ध किया गया है। उपनिषदों की प्रकृति असत्य न होकर ईश्वर का ही विराट् रूप है।

सदाचार की आवश्यकता 

तैत्तिरीय उपनिषद में ब्रह्मचारी वर्ग के लक्षणों को अत्यन्त सुन्दर रूप में चित्रित किया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद में आत्म हित को स्पष्ट करने के लिए सभी कार्यों में आत्मीयता को ही अनुस्यूत कर दिया गया है। छान्दोग्य उपनिषद में रैक्व ऋषि के आचरण के माध्यम से कर्मनिष्ठा की दुहाई दी गई है। अहंकार को समाप्त करने के लिए आत्म-प्रकाशन या शेखी बघारने की प्रवृत्ति की निन्दा की गई है। अतिथि सत्कार को महत्व देने के लिए ‘अतिथिदेवो भव’ तक कह दिया गया है।

सृष्टि रचना 

सृष्टि रचना जैसे गूढ़तम विषय को लेकर उपनिषदों में पर्याप्त चर्चा की गई है। बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य और गार्गी के संवाद में आकाश-तत्त्व को ईश्वर में ही अवस्थित बतलाया गया है। ऐतरेय उपनिषद में सृष्टि रचना का सविस्तार वर्णन किया गया है। वस्तुतः पृथ्वी जल में, जल अग्नि तत्व में, अग्नि तत्त्व वायु में, वायु आकाश में स्थित एवं क्रियाशील है। भावात्मक और जड़स्वरूप प्रकृति का चेतन तत्व के साथ योग होने से ही सृष्टि की रचना हुई है। यथार्थतः सृष्टि रचना चेतन तत्त्व की क्रियाशीलता का परिणाम है।

योग विद्या 

उपनिषदों में ज्ञानमार्ग की प्रधानता है। श्रवण, चिन्तन, मनन और निधिध्यासन के माध्यम से आत्म-तत्त्व का ज्ञान सम्भव है। ज्ञानमार्ग की चरम सीमा ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति – अर्थात् ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है, ही है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में योगमार्ग या ज्ञानमार्ग के माध्यम से जरा, मरण तथा व्याधि पर विजय पाने का निर्देश है। 

वस्तुतः उद्गीथ विद्या एवं शाण्डिल्य विद्या जीवात्मा का ब्रह्म के साथ योग कराने के लिए ही खोजी गई है। योग विद्या में प्राणायाम को इतना महत्त्व दिया गया है कि उसके बिना कोई भी योगी सतोगुणी वृत्ति को सरलतापूर्वक प्राप्त नहीं कर सकता है। चिन्तन के समय एकान्त की अतीव आवश्यकता रहती है। जिसके कारण योग विद्या की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है।

मोक्ष का स्वरूप 

कठोपनिषद् में कहा गया है कि शरीर रूपी रथ में आत्मा रूपी रथी आरूढ़ है। इन्द्रियाँ रूपी घोडे़ तथा मन रूपी लगाम हैं। जो व्यक्ति बुद्धि रूपी चतुर सारथी के माध्यम से अपने रथ को संभालकर ब्रह्म रूपी गन्तव्य की ओर चलता है, उसे शान्ति के समुद्र के समान विष्णुपद या मोक्ष प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति की समस्त हृदय ग्रन्थियाँ छिन्न-भिन्न हो चुकी हैं, वह व्यक्ति कामना-शून्य तत्त्व – मोक्ष को प्राप्त होता है। 

उपनिषदों के मोक्ष का स्वरूप इस प्रकार है-

  • कामना-शून्य स्थिति ही मोक्ष है।
  • मोक्ष शान्ति का अनन्त समुद्र है।
  • मोक्ष जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप ही है।
  • मोक्ष पाने पर पुनरागमन की समाप्ति हो जाती है।
  • मोक्ष वासनातीन तंत्न है।
  • मोक्ष एक स्थिति है वह किसी विशिष्ट स्थान पर नहीं है। 

उपनिषद से जुड़ी जानकारी के लिए आप इन आलेखों का भी अध्ययन कर सकते हैं –
उपनिषदों के नाम एवं उनका संक्षिप्त परिचय 
उपनिषद क्या हैं?
उपनिषदों का महत्व और शिक्षाएं


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