गौतम ऋषि के आश्रम के द्वार पर 10-12 वर्ष का एक ब्रह्मचारी बालक आया। उसके हाथ में ना समिध (यज्ञ या हवनकुंड में जलाई जाने वाली लकड़ी) थी, ना कमर में मुंज (एक प्रकार का तृण) थी, ना कंधे पर अजिन (ब्रह्मचारी आदि के धारण करने के लिये कृष्णमृग और व्याघ्र आदि का चर्म) था और ना उसने उपवित (जनेऊ) धारण किया था।
ब्रह्मचारी बालक गौतम ऋषि के निकट गया और जाकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। उसने गौतम ऋषि से कहा – महाराज! मैं आपके गुरुकुल में रहने आया हूं। मैं ब्रह्मचर्यपूर्वक रहूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझे स्वीकार कीजिए।
सीधे-सादे और सरल इस ब्रह्मचारी के ये शब्द गौतम ऋषि के हृदय में अंकित हो गए। ऋषि ने पूछा – बेटा तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता का नाम क्या है? अच्छा हुआ जो तू आया। गौतम ऋषि के आसपास बैठे हुए सभी शिष्य इस ब्रह्मचारी बालक की ओर देख रहे थे। ब्रह्मचारी ने तुरंत ही जवाब दिया – गुरुदेव! मुझे अपने गोत्र का पता नहीं, अपने पिता का नाम भी मैं नहीं जानता, मैं अपनी माता से पूछकर आता हूं। किंतु गुरुदेव मैं आपकी शरण में आया हूं। मैं ब्रह्मचर्य का ठीक-ठीक पालन करूंगा। क्या आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे।
नवागत बालक के मुंह से निकले इन शब्दों को सुनकर गुरुजी की शिष्य मंडली में एक दबी सी हंसी शुरू हो गई।
किसी ने कहा – अरे, अपना गोत्र भी नहीं जानता अवश्य ही कोई शूद्र होगा।
दूसरे ने कहा – अरे, इसे अपने पिता का नाम नहीं पता, कहीं किसी वेश्या का लड़का तो नहीं।
तीसरे ने गुरु की ओर देखकर कहा – गुरुवर! क्या आप इस वर्णसंकर के साथ हमें रखना चाहते हैं?
एक काना शिष्य बोला – अरे भाई! यह तो गुरु की शरण में आया है शरण में। ना समिध, ना ठिकाना, ना समाज और ना उपवित। मालूम होता है जैसे मां ने जना है वैसा ही यह इधर चला आया है।
नए आए बालक ने यह सब सुना। इसके अतिरिक्त उसने वह सब कुछ पढ़ा जो शिष्यों की आंखों में और चेहरों पर लिखा था। यह सब देख वह विमुढ़ सा खड़ा रहा। यह देखकर गौतम ऋषि बोले – बेटा! तुम अपने घर जाओ। अपनी मां से पूछ कर आओ। फिर अपने शिष्यों को संबोधित कर बोले – जब तक यह बटुक लौटता नहीं है तब तक हम सब इस पर कोई चर्चा नहीं करेंगे।
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कुछ समय बाद एक दिन संध्या के समय गौतम ऋषि होम-हवन से निपट कर अपने परिवार के साथ बैठे थे, तभी वह ब्रह्मचारी बालक आया। गुरु का ध्यान किसी दूसरी तरफ था, जिसके कारण वह उस ब्रह्मचारी बालक को देख ना सके। अतएव वही काना बालक बोला – गुरुदेव! देखिए, वह बटुक फिर आया है।
गुरु ने तुरंत ही बटुक की ओर देखा और कहा – क्यों बेटा! तुम आ गए? आओ बैठो। अपनी मां से पूछ आए ना?
बटुक ने जवाब दिया – जी महाराज! मां ने तो कहा कि वह अपनी जवानी में अनेक साधु-संतों की सेवा करती थी। उन्हीं दिनों में मैं उनके गर्भ में रहा था। इस कारण उन्हें नहीं पता कि मेरे पिता कौन थे और उनका गोत्र क्या था। मां ने अपना नाम जाबाला बताया है और कहा है कि यदि आचार्य पूछें तो उनसे यही सब इसी रूप में कह देना।
शिष्यों के समूह में व्यंग भरी खिलखिलाहट दौड़ गई।
एक लंगड़े शिष्य ने कहा – मैंने तो यही सोच रखा था।
एक दूसरे शिष्य ने अन्य शिष्य से कहा – साधु-संतों की सेवा के फल इतने सुंदर होते हैं, यह तो आज ही मालूम पड़ा।
इतने में एक तीसरा शिष्य बड़बड़ाया – तिस पर यह कहते थे कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा!
इस प्रकार चारों ओर से व्यंग्य की बौछार होने लगी। इस बीच गुरुजी ने आंखें मूंदकर और गहरे उतर कर बोले – बेटा! जिस निडरता के साथ और जैसी निर्दोष रीति से तुमने सारी बातें कही हैं उससे मुझे तो तुम सत्यकाम मालूम होते हो। तुम्हारे पिता कोई भी क्यों ना रहे हों, तुम्हारे आचरण की शुद्धता, तुम्हारे स्वभाव की सरलता यह बताती है कि तुम ब्राह्मण ही हो। मैं तुम्हें ब्राह्मण प्रमाणित करता हूं। जाबाला के पुत्र सत्यकाम! आओ, आज से मैं तुम्हें अपने शिष्य मंडल में स्वीकार करता हूं। इस प्रकार गौतम ऋषि ने सत्यकाम जाबाल को अपना शिष्य बना लिया।
इसके बाद महर्षि गौतम ने अपने शिष्यों से कहा – ब्रह्मचारियो! इस सत्यकाम का उपनयन संस्कार मैं करूंगा। तुम अपने मन में चाहे जो सोचो, पर मैं तो देख रहा हूं कि सद्विद्या को ग्रहण करने की जो योग्यता तुममें बरसों से गुरुकुल में वास करने के बाद भी उत्पन्न नहीं हुई है वह सत्यकाम में अभी से मौजूद है। कल मैं इसका उपनयन संस्कार करूंगा।
गुरु का यह निर्णय सुनकर सभी शिष्य आश्चर्यचकित रह गए। वे सभी अपने मन को किसी तरह समझाते और खींझते हुए वहां से चले गए।
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कुछ समय पश्चात एक दिन प्रातःहोम समाप्त होने के बाद ऋषि गौतम ने सत्यकाम से कहा –सत्यकाम, आज से तुम्हें आश्रम से दूर वन में रहना होगा।
सत्यकाम जाबाल प्रसन्नतापूर्वक बोला – गुरुदेव! आप मुझे जहां रहने कहेंगे वही मेरा आश्रम होगा। आज आप इस भूमि के आचार्य हैं इसलिए यहां आश्रम है। वैसे तो सभी भूमि एक समान होती है।
गौतम ऋषि ने कहा – मैंने निर्णय लिया है कि तुम्हें 400 गायें सौंप दूं जो दुबली-पतली होंगी। इन गायों को लेकर तुम्हें वन में जाना है। जब यह 400 गायें संख्या में 1000 हो जाएंगी उस दिन आश्रम में वापस आ जाना। बोलो, क्या तुम इसके लिए तैयार हो?
सत्यकाम ने कहा – महाराज! आपको इतना पूछना पड़ रहा है, यही मेरे लिए दुर्भाग्य की बात है। मुझे तो वह सब कुछ कार्य स्वीकार्य है जो आप आदेश देंगे। इतना कहकर सत्यकाम ने अपने गुरु के चरणों में प्रणाम किया।
जब यह बात अन्य शिष्यों को पता चली तो उसमें से एक शिष्य ने कहा – बेवकूफ मर जाएगा, इन दुबली-पतली गायों को संभालना सरल कार्य नहीं है।
दूसरा बोला – सत्यकाम, हमें यहां आए आज 12 वर्ष हो चुके हैं। एक समय था जब गुरुजी हमें भी गायें चराने का काम सौंपते थे, मगर हम किसी प्रकार की बहानेबाजी के द्वारा बच जाया करते थे। उसके बाद उन्होंने हमें इस कार्य से मुक्त कर दिया।
इतने में काना शिष्य कहने लगा – अरे भाई! जाने दो। किसी को यदि गुरुजी की नाक का बाल होने की सूझी तो हमारी बला से। अच्छा भाई, तुम जाओ मौज करो। जब यह 400 गायें 1000 हो जाएंगी तब तुम आना। हम भी खुश होंगे और भरपेट दूध पिएंगे।
वहीं लंगड़ा शिष्य बोला – कुछ समझते हो भलेमानस! तुम वेदों को रट-रट कर मर जाओगे तो भी तुम्हें गुरुजी ज्ञान की दीक्षा नहीं देंगे। और मैं देख रहा हूं कि सत्यकाम गाय चरा कर भी दीक्षा पा लेगा। इसे वहां न रटाई करनी होगी न श्वर की उदात्त या अनुदात्त का झंझट होगा। न आचार्य का प्रवचन सुनना होगा और न रोज सुबह अग्नि से समिध होमनी होगी। यह तो जंगल में गायों को खुली छोड़कर किसी पेड़ पर चढ़ जाएगा और वहां बैठा-बैठा गीत गाता रहेगा। जब भूख लगेगी दौड़ कर किसी गाय के थन से चिपक जाएगा। हम बेवकूफ हैं जो वेद पढ़ने के लिए यहां बैठे हुए हैं। आचार्य से कहो ना कि वह हमें भी गायें चराने के लिए भेज दें। जंगल में जो दो-चार दिन बिताएंगे वही गनीमत होगी। यदि समय और परिस्थिति के साथ सही संतुलन नहीं बैठा और शेर ने एक-आध गाय को खा लिया तो रोते-पीटते हुए वापस आ जाएंगे। गुरुजी भी हमें सांत्वना देंगे और अच्छा-अच्छा खाने को भी देंगे। बोलो क्या विचार है। अगर भगवान ने मुझे अच्छे-भले पैर दिए होते तो सच कहता हूं सत्यकाम, मैं भी तुम्हारे साथ जंगल निकल लेता।
सत्यकाम जाबाल ने कहा – बंधु, यदि आप साथ चलेंगे तो मुझे बड़ी खुशी होगी। जब तुम थक जाओगे हम वहीं पर टिक जाएंगे और फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ेंगे।
लंगड़े शिष्य ने कहा – बात तो ठीक है पर मुझसे चला नहीं जाएगा।
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अगले दिन सत्यकाम जाबाल हाथ में कमंडल और लाठी लिए 400 गायों के साथ वन की ओर चल पड़ा। कभी वह आगे चलता, कभी बीच में चलता, कभी पीछे चलता। कभी गायों को हांकता चलता, कभी उन पर हाथ फेरता, कभी उन्हें पुचकारता। जहां रास्ते में उसे जल स्रोत मिलते वहां रुक कर वह गायों को पानी पिलाता, जहां हरियाली दिखती वहां उन्हें चराता। चलते-चलते वह एक घने हरे-भरे प्रदेश में पहुंचा और सुंदर स्थान देखकर टिक गया। वहां दूर-दूर तक गायों के लिए हरी घास मौजूद थी तथा वहां जल स्रोत भी थे। सत्यकाम ने अपने कार्य की सिद्धि के लिए इसी स्थान का चयन किया।
एक दिन बीता, दो दिन बीता, हफ्ता बीता, पखवाड़ा बीता, महीना बीता, साल बीता और फिर समय के साथ साल पर साल बीतते चले गए। वन में सत्यकाम ने अपने लिए एक छोटा सा गुरुकुल भी बना लिया था। रोज सुबह वेदोच्चार को लजाने वाला हर्षोच्चार उसकी गौशाला में गूंजने लगा। वह प्रतिदिन पूर्ण निष्ठा से गायों को चराता, उनकी सेवा करता, उन्हें खाना खिलाता। प्रतिदिन रात में सत्यकाम शेर और बाघ से गायों की रक्षा इस प्रकार करता मानो गुरु की यज्ञ-अग्नि की रक्षा वह राक्षसों से कर रहा है। सत्यकाम की दृष्टि में ये गायें चार पैर और चार थन वाली गाय मात्र ना थीं। वह तो इनमें वेदों के दर्शन करता था। कभी-कभी गायों की सेवा करते हुए वह इस प्रकार समाधिस्थ हो जाता था कि घंटों उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती थी।
इस तरह बरसों बीत गए। एक दिन एक बैल को मानव की बोली प्राप्त हुई। उसने सत्यकाम से कहा – सत्यकाम! अब गायों की संख्या 1000 हो चुकी है। अब तुम गायों को आचार्य के पास ले कर चलो। तुम ज्ञान के अधिकारी बन चुके हो। अतः मैं तुम्हें ज्ञान की कुछ बातें बताऊंगा।
यह कहकर बैल ने सत्यकाम जाबाल को थोड़ा ज्ञान का उपदेश दिया। बैल के रूप में प्रत्यक्ष वायुदेव बोल रहे थे। उन्होंने सत्यकाम को ईश्वरीय ज्ञान के एक चौथाई हिस्से का उपदेश दिया। उन्होंने सत्यकाम से कहा – यह जो प्रकाशमान चारों दिशाएं हैं यह ईश्वर का ही अंश हैं। इतना कहने के बाद उन्होंने कहा – इससे आगे का उपदेश तुम्हें अग्निदेव देंगे। इतना कहकर वे चुप हो गये।
अगले दिन सत्यकाम गायों को लेकर गुरुकुल की ओर रवाना हो गया। रास्ते में जहां शाम पड़ी वहीं उसने डेरा डाल दिया। गायों को एकत्र कर वह अग्नि में होम करने बैठा। इतने में अग्निदेव प्रकट हुए और उन्होंने सत्यकाम से कहा – तुम्हारी दीक्षा का अधिकार परिपक्व हो चुका है इसलिए मैं तुम्हें थोड़ा ज्ञान का उपदेश दूंगा। यह कहकर अग्निदेव ने उसे ज्ञान का उपदेश दिया। अग्निदेव ने सत्यकाम को ईश्वरीय ज्ञान के एक चौथाई हिस्से का उपदेश दिया और कहा – पृथ्वी, समुद्र, वायु और आकाश ईश्वर के अंश हैं। इससे आगे का उपदेश कल तुम्हें हंस देंगे। इतना कहकर अग्निदेव वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
अगली सुबह सत्यकाम उस स्थान से आगे बढ़ा। दिन भर चलते हुए संध्या समय हुआ फिर एक स्थान पर रुका। सभी कार्यों से निवृत्त होकर वह बैठा और अग्निदेव के उपदेश पर विचार करने लगा। वह विचार कर ही रहा था कि एक हंस उड़ कर उसके पास आया और बोला – सत्यकाम! मैं तुम्हें ईश्वरीय ज्ञान के एक चौथाई हिस्से का उपदेश दूंगा क्योंकि तुम्हारा अंतःकरण ज्ञान के लिए तैयार हो चुका है। इतना कहकर हंस ने उसे ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा – सूर्य, चंद्रमा, अग्नि सभी ईश्वर के अंश हैं। कल एक जलमुर्गी इससे आगे का उपदेश तुम्हें देगी।
अगले दिन सत्यकाम फिर आगे बढ़ा। संध्या होते ही उसने अपना पड़ाव डाल दिया। वह अग्नि होम के लिए बैठा ही था कि इतने में एक जलमुर्गी उसके पास आकर बोली – सत्यकाम! मैं तुम्हें ईश्वरीय ज्ञान का एक चौथाई हिस्सा बताऊंगी तुम उसे स्वीकार करो। यह कर कर जलमुर्गी ने सत्यकाम को ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा – आंख, कान, मन, प्राण सभी ईश्वर के ही अंश हैं। इतना कहकर जलमुर्गी वहां से चली गई। इस प्रकार सत्यकाम को ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति हो गई।
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चलते-चलते एक दिन सत्यकाम अपने गुरुकुल पहुंचा। सत्यकाम को और उसके पीछे-पीछे चलती मोटी-ताजी 1000 गायों के झुंड को आश्रम की ओर आता देख कर सभी आश्रमवासी आचार्य की पर्णकुटी के पास एकत्र हो गए।
सत्यकाम जाबाल ने पास जाकर गुरु का चरण स्पर्श किया और गायों को गौशाला की ओर रवाना कर गुरु के समीप बैठ गया।
उसकी इंद्रियां प्रसन्न थीं, उसका चेहरा खिला हुआ था, उसका मन क्लेश रहित था। उसके समूचे शरीर से जीवन की कृतार्थता का एक अद्भुत सा तेज जगमगा रहा था। सत्यकाम जाबाल को देख कर आचार्य ने कहा – सत्यकाम! तुम तो महाज्ञानी सदृश्य दिखते हो। तुमने किसी अन्य गुरु से ज्ञान की दीक्षा तो नहीं प्राप्त की?
आश्रम के एक शिष्य ने दूसरे शिष्य के कान में कहा – गुरुजी ने ठीक पकड़ा, देखो कैसी शान से बैठा है मानो स्वयं ही आचार्य हो। जरा इसके मुख की ओर देखो, यह पहले वाला सत्यकाम नहीं लगता।
सत्यकाम बोला – गुरुदेव! मुझे ऐसे प्राणियों ने उपदेश दिया है जो मनुष्य की गिनती में नहीं आते हैं। किंतु महाराज सत्यकाम तो आपका ही शिष्य है। आपको छोड़कर मेरा दूसरा कोई गुरु नहीं है। जब तक आप मुझे उपदेश नहीं देंगे, मैं अपने आप को कृतार्थ नहीं मानूंगा।
सत्यकाम जाबाल की इन बातों को सुनकर आचार्य ने कहा – धन्य है, तू धन्य है। शिष्यो! मैं जानता हूं कि सत्यकाम को बैल, अग्नि, हंस और जलमुर्गी ने उपदेश दिया है। आज से वर्षों पहले जब सत्यकाम गायों के साथ आश्रम से गया था तुमने क्या-क्या सोचा और कहा था, उसे तनिक याद कर लो। यह भी सोचो कि जब मैंने इसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया था, तब तुम लोगों ने आकर मुझसे क्या-क्या कहा था। आज वही सत्यकाम ज्ञानी बनकर लौटा है। तुम्हें अपने ब्रह्मत्व और शक्ति का अभिमान है, अपने वेद ज्ञान का अभिमान है इसलिए तुम यहां पड़े हुए हो। तुममें से कोई वेद पढ़ता है, कोई उपवेद पढ़ता है, कोई शिक्षा के अध्ययन में लगा है, कोई व्याकरण में व्यस्त है। सत्यकाम को मैंने न वेद पढ़ाया, न उपवेद पढ़ाया, न ही व्याकरण की शिक्षा दी लेकिन मैंने उसे जीवन को गुनने भेज दिया। आज जब जीवन की उस विद्या में पारंगत हो कर सत्यकाम वापस आया है तुम अभी तक अपने वेदों और उपवेदों से ही छुट्टी नहीं पा सके हो और इस जीवन में कदाचित पा भी ना सकोगे। तुम अपनी विद्या के गोरखधंधे में इस प्रकार उलझे हो कि मंत्रों और अक्षरों के बाहर जो सच्चा जीवन प्रवाहित है उसे देखने का विचार तुम्हारे ह्रदय में पैदा ही नहीं होता है। यह वेद आदि सभी बाह्य विद्याएं हैं। यदि यह सच्ची विद्या की प्राप्ति में सहायक होती हैं तो अच्छी हैं अन्यथा यह बोध के समान हैं। सच्चा जीवन इन सब वेदों से परे कोई अन्य चीज है।
गौतम ऋषि ने आगे कहा – अगर तुम चाहोगे तो वह अपनी सारी बात शुरुआत से अंत तक तुम लोगों को सुनाएगा। वेदों से भी जो वस्तु प्रायः नहीं मिलती जीवन के रहस्य का उद्घाटन करने वाली वस्तु इस तरह की चर्चा से मिल जाती है। सत्यकाम के समान पुरुष जब जीवन के रहस्य को पा जाते हैं तो उनकी वाणी ही वेद बन जाती है, इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा है कि वेद अनंत हैं। तुम अपने समीप बैठे हुए इस जीते-जागते वेद को भूल कर अपने रखे हुए वेदों से ना चिपके रहना।
इसके बाद ऋषि गौतम ने सत्यकाम जाबाल से कहा – आओ, मैं तुम्हें ज्ञान की अंतिम दीक्षा दूं। मेरे बाद तुम ही गुरुकुल के आचार्य हो।
इतना कहकर आचार्य ने सत्यकाम जाबाल को अंतिम दीक्षा दी और सारा आश्रम उसी को सुपुर्द कर स्वयं चले गए। बाद में यही जाबालि ऋषि के नाम से विख्यात हुए।
सत्यकाम जाबाल की कथा का वर्णन छांदोग्य उपनिषद् में किया गया है। यह कथा वहीं से ली गई है।
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