समुद्र मंथन की कथा का वर्णन पुराणों में मिलता है। अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और असुरों ने मंदराचल पर्वत और वासुकि नाग की सहायता से क्षीरसागर का मंथन किया। समुद्र मंथन के लिए ही भगवान विष्णु द्वारा कूर्म अवतार धारण किया गया। समुद्र मंथन से निकले हलाहल विष को पीने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया जिसके कारण वे नीलकंठ कहलाए।
पद्म पुराण के स्वर्ग खंड, श्रीमद्भागवत के आठवें स्कंध, देवी भागवत के नवें स्कंध, ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड, स्कंद पुराण के माहेश्वर खंड और मत्स्य पुराण में समुद्र मंथन की कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है।
समुद्र मंथन क्यों हुआ?
पहली कथा
पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि बैकुंठ लोक से आ रहे थे। रास्ते में ऐरावत हाथी पर विराजमान देवराज इंद्र से उनकी मुलाकात हुई। उन्हें त्रिलोकाधिपति जानकर दुर्वासा ऋषि ने भगवान के प्रसाद की माला दी किंतु इंद्र ने अपने ऐश्वर्य के अभिमान में उस माला का सम्मान नहीं किया और उन्होंने यह माला ऐरावत के गले में डाल दी। ऐरावत ने उसे सूंड़ में लेकर पैरों से कुचल दिया। भगवान के प्रसाद का यह अपमान देखकर दुर्वासा ऋषि क्रोधित हो गए और उन्होंने इंद्र को श्राप दिया कि तुम शीघ्र ही तीनों लोकों सहित श्रीहीन हो जाओगे।
दुर्वासा ऋषि के श्राप के प्रभाव के कारण तीनो लोक और स्वयं इंद्र श्रीहीन हो गए। असुरों ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर कब्जा जमा लिया। लोक से यज्ञ आदि धर्म-कर्म का लोप हो गया।
दूसरी कथा
स्कंद पुराण में वर्णित कथा इससे थोड़ी भिन्न है जो इस प्रकार है –
एक समय देवराज इंद्र संपूर्ण लोकपालों तथा ऋषियों से घिरे हुए अपनी सभा में बैठे थे। वहां सिद्ध और विद्याधरगण उनकी विजय के गीत गा रहे थे। उसी समय परम विद्वान गुरु बृहस्पति अपने शिष्यों के साथ देवसभा में पधारे। उन्हें उपस्थित देखकर देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया परंतु इंद्र ने किसी प्रकार का अभिवादन नहीं किया।
इंद्र ने गुरु के प्रति ना तो आदरयुक्त वचन कहे, ना उन्हें बैठने के लिए आसन दिया और ना ही उन्हें चले जाने को कहा। इंद्र को राज्य के मद से उन्मत्त जानकर देवताओं के आचार्य बृहस्पति कुपित होकर वहां से अंतर्धान हो गए। नृत्य और गीत समाप्त होने पर जब इंद्र सचेत हुए तब उन्हें गुरु के अनादर का ध्यान आया। लेकिन गुरु के अनादर के कारण इंद्र का राज्य उनके हाथ से निकल गया। वे श्री हीन हो गए। इंद्र की राज्य लक्ष्मी समुद्र में चली गई।
दैत्यों के राजा बलि ने इंद्र के राज्य पर चढ़ाई कर दी। देवताओं और दैत्यों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ जिसमें देवता पराजित हुए। ऐरावत नामक महान हाथी, उच्चैःश्रवा नामक अश्व तथा बहुत से रत्न लेकर बलि स्वर्गलोक से पाताल लोक में चला गया। परंतु ये गज, अश्व और रत्न इत्यादि पुण्यात्मा पुरुषों के ही उपभोग में आने वाले थे अतः दैत्यों के अधिकार में ना रहकर समुद्र में समाहित हो गए।
इंद्र की शाप मुक्ति और समुद्र मंथन का उपाय
अपनी इस स्थिति से चिंतित होकर इंद्र समेत स्वर्ग के अन्य देवता ब्रह्मा जी के पास गए और अपनी स्थिति से अवगत कराया। ब्रह्मा जी ने भगवान श्री हरि का स्मरण करते हुए देवताओं से कहा – इस स्थिति से मुक्ति का मार्ग जगतगुरु परमात्मा ही बता सकते हैं इसलिए हमें उनकी शरण में चलना चाहिए।
इसके पश्चात ब्रह्मा जी सहित अन्य सभी देवता बैकुंठ धाम पहुंचे और वेदवाणी के द्वारा भगवान की स्तुति करने लगे। जब देवताओं ने सर्वशक्तिमान भगवान श्री हरि की स्तुति की तब वे उनके बीच प्रकट हो गए। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु से कहा – ब्राह्मण और देवताओं के कल्याण के लिए जो कुछ करना आवश्यक हो उसका आदेश आप दें, हम वैसा करने को तत्पर हैं।
तब भगवान विष्णु ने कहा – इस समय असुरों पर काल की कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नति का समय नहीं आता तब तक तुम जैसे और दानों के पास जाकर उसे संधि कर लो। कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओं से भी मेल मिलाप कर लेना चाहिए। यह बात अवश्य है कि काम बन जाने पर उनके साथ सांप और चूहे वाला बर्ताव कर सकते हैं।
(सांप और चूहे की कथा इस प्रकार है –
किसी मदारी की पिटारी में सांप तो पहले से था ही संयोगवश उसमें एक चूहा भी जा घुसा। चूहे के भयभीत होने पर सांप ने उसे प्रेम से कहा कि तुम पिटारी में छेद कर दो फिर हम दोनों भाग जाएंगे। पहले तो सांप की इस बात पर चूहे को विश्वास नहीं हुआ परंतु बाद में उसने पिटारी में छेद कर दिया। इस प्रकार काम बन जाने पर सांप ने चूहे को निगल लिया और पिटारी से निकल भागा।)
भगवान विष्णु ने आगे कहा – तुम लोग बिना विलंब किए अमृत निकालने का प्रयत्न करो। उसे पी लेने पर मरने वाला प्राणी भी अमर हो जाता है। पहले क्षीरसागर में सब प्रकार के घास, तिनके, लताएं और औषधियां डाल दो। फिर तुमलोग मंदराचल की मथानी और वासुकि नाग की नेती (रस्सी) बनाकर मेरी सहायता से समुद्र का मंथन करो।
उन्होंने देवताओं को विश्वास दिलाते हुए कहा – दैत्यों को केवल श्रम और क्लेश मिलेगा जबकि तुमलोगों को अमृत फल की प्राप्ति होगी। असुर लोग जो भी चाहे वह सब स्वीकार कर लो। शांति से सब काम होता है क्रोध करने से कुछ नहीं मिलता।
भगवान विष्णु ने देवताओं को समझाते हुए कहा – पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा उससे डरना नहीं। किसी भी वस्तु के लिए कभी भी लोभ ना करना। पहले तो किसी वस्तु की कामना ही नहीं करनी चाहिए परंतु यदि कामना हो और वह पूरी ना हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिए।
भगवान विष्णु के आदेशानुसार इंद्र आदि देवता दैत्यों के राजा बलि के पास पाताल लोक गए। राजा बलि ने तीनों लोकों को जीत लिया था। इंद्र ने राजा बलि को समुद्र मंथन और उससे प्राप्त होने वाले अमृत की कथा बतायी। अमृत प्राप्ति के लोभ में असुरों ने देवताओं से संधि कर ली।
समुद्र मंथन का प्रारंभ
समुद्र मंथन को संपन्न करने के लिए उन्होंने मंदराचल को उखाड़ लिया और समुद्र तट की ओर ले चले। परंतु एक तो मंदराचल पर्वत बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था इससे इंद्र, बलि आदि सब के सब हार गए। जब वे किसी प्रकार भी मंदराचल को आगे ना ले जा सके और उनका उत्साह भंग हुआ तो उन्होंने भगवान विष्णु की स्तुति प्रारंभ कर दी।
उनकी स्थिति को जानकर भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार होकर वहां प्रकट हुए। भगवान विष्णु ने एक हाथ से मंदराचल पर्वत को उठा कर गरुड़ पर रख दिया और स्वयं ही सवार हो गए। फिर देवता और असुरों के साथ उन्होंने समुद्र तट की यात्रा की। पक्षीराज गरुड़ ने समुद्र के तट पर मंदराचल पर्वत को उतार दिया।
देवता और असुरों ने नागराज वासुकि को यह वचन देकर की समुद्र मंथन से प्राप्त होने वाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा होगा उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके पश्चात उन लोगों ने वासुकि नाग को नेती के समान मंदराचल में लपेट कर भली-भांति समुद्र मंथन प्रारंभ किया।
उस समय पहले पहल अजित भगवान वासुकि के मुख की ओर लग गए इसलिए देवता भी उधर ही आ जुटे। देवताओं का वासुकि के मुख की ओर खड़ा होना असुरों को पसंद नहीं आया। असुरों ने कहा – पूंछ तो सांप का अशुभ अंग है हम उसे नहीं पकड़ेंगे। हम देवताओं से किस बात में कम हैं।
असुरों की बात सुनकर भगवान ने वासुकि का मुंह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूंछ पकड़ ली। इस प्रकार अपना-अपना स्थान सुनिश्चित कर देवता और असुर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे।
भगवान विष्णु का कच्छप (कूर्म) अवतार
जब समुद्र मंथन होने लगा तब देवताओं और असुरों के पकड़े रहने पर भी अपने भार की अधिकता के कारण मंदराचल समुद्र में डूबने लगा। उस समय भगवान ने देखा कि यह तो विघ्नराज की करतूत है। इसलिए उन्होंने उसके निवारण का उपाय सोच कर अत्यंत विशाल और विचित्र कच्छप (कछुआ) का रूप धारण कर लिया और समुद्र के जल में प्रवेश करके मंदराचल को अपनी पीठ के ऊपर स्थापित कर लिया। इससे मंदराचल पुनः समुद्र में ऊपर आ गया।
समुद्र मंथन संपन्न करने के लिए भगवान ने असुरों में असुर रूप में, देवताओं में देवता के रूप में और वासुकि नाग में निद्रा के रूप में प्रवेश कर उनकी शक्ति और बल का विस्तार किया। इसके पश्चात देवता और असुर उन्मत्त होकर मंदराचल के द्वारा बड़े वेग से समुद्र मंथन करने लगे।
जब देवता और असुरों के समुद्र मंथन करने पर भी अमृत ना निकला तब स्वयं अजित भगवान समुद्र मंथन करने लगे। जब भगवान ने इस प्रकार समुद्र मंथन किया तब समुद्र में बड़ी खलबली मच गई। मछली, मगर, सांप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गए।
समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल विष का शिव द्वारा पान
समुद्र मंथन से उसी समय हलाहल नामक अत्यंत उग्र विष निकला। वह अत्यंत उग्र विष सभी दिशाओं में ऊपर नीचे फैलने लगा। हलाहल विष के भय से सभी देवता और असुर समुद्र मंथन छोड़कर भागने लगे। इससे बचने के लिए सभी देवता और ऋषि-मुनि भगवान शिव की स्तुति करने लगे और कहने लगे कि त्रिलोक को भस्म करने वाले इस विष से आप हमारी रक्षा करें।
हलाहल विष के कारण संपूर्ण लोक पर आए संकट से देवाधिदेव शंकर के हृदय में बड़ी व्यथा हुई। परोपकारी सज्जन प्रजा का दुख टालने के लिए स्वयं दुख झेला ही करते हैं। इसे चरितार्थ करते हुए लोक में व्याप्त संकट को दूर करने के लिए भगवान शिव ने उस हलाहल विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। विष के प्रभाव से भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया।
जिस समय भगवान शिव विषपान कर रहे थे उस समय उनके हाथ से थोड़ा सा विष टपक पड़ा। उसे बिच्छू, सांप तथा अन्य विषैले जीवों ने तथा विषैली औषधियों ने ग्रहण कर लिया।
समुद्र मंथन से रत्नों की प्राप्ति
- जब भगवान शिव ने विषपान कर लिया तब पुनः देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन प्रारंभ किया गया। इस बार समुद्र मंथन से देवकार्य की सिद्धि के लिए अमृतमयी कलाओं से परिपूर्ण चंद्रदेव प्रकट हुए।
- समुद्र मंथन के क्रम में कामधेनु गाय प्रकट हुई। वह अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी इसलिए ब्रह्मलोक तक पहुंचाने वाले यज्ञ के लिए उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिए ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण कर लिया।
- इसके पश्चात समुद्र मंथन से स्वर्ग लोक की शोभा बढ़ाने वाले कल्पवृक्ष, पारिजात, च्यूत और संतान नामक चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए जिसे देवताओं ने अपने पास रख लिया। कल्पवृक्ष याचकों की इच्छाएं उनकी इच्छित वस्तु देकर पूर्ण करता रहता है।
- इसके बाद उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा निकला। वह चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण का था। राजा बलि ने उसे लेने की इच्छा प्रकट की।
- इसके पश्चात ऐरावत नामक श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े-बड़े चार दांत जो उज्जवल वर्ण के थे, कैलाश की शोभा को भी मात करते थे। ऐरावत के साथ श्वेत वर्ण के चौसठ हाथी और थे।
- तत्पश्चात कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि निकली जिसे अजित भगवान ने अपने हृदय पर धारण कर लिया।
- इसके पश्चात समुद्र से भांग, काकड़ासिंगी, लहसुन, गाज,र अत्यधिक उन्मादकारक धतूर तथा पुष्कर आदि बहुत सी वस्तुएं प्रकट हुईं।
- इसके पश्चात सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित एवं गले में स्वर्ण हार पहने रम्भा सहित कई अप्सराएं प्रकट हुईं।
- इसके बाद शोभा की मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मी प्रकट हुईं जिन्हें ब्रह्मवेत्ता पुरुष आन्वीक्षिका (वेदांत विद्या) कहते हैं। कुछ इन्हें वैष्णवी भी कहते हैं। वे भगवान की नित्यशक्ति हैं।
- इसके बाद समुद्र मंथन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी (मदिरा) प्रकट हुईं। भगवान की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया।
- इसके पश्चात अमृत प्राप्ति की इच्छा से जब और समुद्र मंथन किया गया तब उसमें से एक अत्यंत अलौकिक पुरुष प्रकट हुए। वे साक्षात भगवान विष्णु के अंशांश अवतार थे। वे ही आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धनवंतरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब दैत्यों की दृष्टि उनके हाथ में रखे अमृत कलश पर पड़ी तब उन्होंने शीघ्रता से उस अमृत कलश को छीन लिया।
भगवान विष्णु का मोहिनी रूप धारण करना
जब असुर उस अमृत कलश को छीन कर ले गए तो देवताओं का मन विषाद से भर गया। इसके पश्चात देवतागण भगवान विष्णु के पास गए। उनकी स्थिति जानकर भगवान विष्णु ने कहा – तुमलोग खेद मत करो। मैं अपनी योगमाया से उनमें फूट डालकर अमृत तुमलोगों को दिला दूंगा।
इधर अमृत प्राप्ति के बाद दैत्यों के मध्य उसके बंटवारे को लेकर झगड़ा प्रारंभ हो गया। जब दैत्यों के मध्य अमृत के लिए तू तू मैं मैं हो रहा था उसी समय भगवान विष्णु मोहिनी रूप धारण कर उन लोगों के समक्ष उपस्थित हुए। अनुपम रूप लावण्य संपन्न लोकोत्तर रमणी उनके सामने खड़ी थी। मोहिनी के आकर्षक रूप और सलज्ज मुस्कान ने सभी दैत्यों को काम मोहित कर लिया।
सभी दैत्य मोहिनी के रूप पर मुग्ध होकर झगड़ना भूल गए और मोहिनी के पास चले आए। उन्होंने मोहिनी से कहा – अवश्य ही विधाता ने दया करके शरीरधारियों की संपूर्ण इंद्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिए तुम्हें यह भेजा है। हम लोग एक ही जाति के हैं। फिर भी हम सब एक ही वस्तु की चाह रख रहे हैं इसलिए हमारे मन में वैर की गांठ पड़ गई है। सुंदरी तुम हमारा झगड़ा मिटा दो। हम सभी कश्यप जी के पुत्र होने के नाते सगे भाई हैं। हमलोगों ने अमृत के लिए बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव से इसे बांट दो जिससे हमलोगों में किसी प्रकार का झगड़ा ना हो।
तब परिहास पूर्ण वाणी में मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने कहा – आप लोग महर्षि कश्यप के पुत्र हैं। मेरी जाति और कुल-शील से आप सर्वथा अपरिचित हैं। फिर आप लोग मेरा विश्वास कर न्याय का भार मुझपर क्यों डालना चाहते हैं? विवेकी पुरुष स्वेच्छाचारणी स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करते।
मोहिनी की इस प्रकार की वाणी को सुनकर दैत्यों के मन में उसके प्रति विश्वास और गहरा हो गया। इसके पश्चात दैत्यों ने अमृत कलश मोहिनी को सुपुर्द कर दिया।
भगवान ने अमृत का कलश अपने हाथ में लेकर मुस्कुराते हुए कहा – मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूं वह यदि तुम लोगों को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बांट सकती हूं। सभी दैत्यों ने एक स्वर में कहा – स्वीकार है।
इसके बाद सभी दैत्यों ने एक दिन का उपवास करने के पश्चात अगले दिन स्नान कर हवन इत्यादि किया। दान-पुण्य का कार्य करने के पश्चात सभी दैत्य सभा मंडप में कुश आसन पर पंक्ति में बैठ गये। तब हाथों में अमृत कलश लेकर मोहिनी सभा मंडप में आयी।
इसी समय सभी देवतागण हाथों में भोजन पात्र लिए असुरों के समीप आए। उन्हें देखकर मोहिनी ने असुरों से कहा – इन्हें आप लोग अपना अतिथि समझें। यह धर्म को ही सर्वस्व मानकर उसका साधन करने वाले हैं। इनके लिए यथाशक्ति दान देना चाहिए। मोहिनी के प्रभाव में असुरों ने देवताओं को भी अमृतपान के लिए बुला लिया।
भगवान ने मोहिनी रूप में यह विचार किया कि असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वभाव वाले हैं। इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिलाने के समान बड़ा अन्याय होगा। इसलिए उन्होंने असुरों को अमृत में हिस्सा नहीं दिया। भगवान ने देवता और असुरों की अलग-अलग पंक्तियां बना दीं। इसके बाद अमृत का कलश लेकर भगवान दैत्यों के पास चले गए। उन्हें अपने हाव-भाव से मोहित करने के बाद फिर देवताओं के पास आ गए और उन्हें अमृत पिलाने लगे।
असुर अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर रहे थे। उन्हें यह विश्वास था कि मोहिनी देवताओं को अमृत पिलाने के बाद असुरों को भी अमृत पिलाएगी। इसलिए असुर शांत बैठे रहे।
राहु का अमृत पान और चंद्रमा का ग्रास
जिस समय भगवान देवताओं को अमृत पिला रहे थे उसी समय छाया-पुत्र राहु नामक दैत्य देवताओं का भेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परंतु चंद्रमा और सूर्य ने उसकी पहचान कर ली और भगवान विष्णु को इसके बारे में बता दिया। अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान ने अपने चक्र से उसका सिर काट डाला। अमृत का संसर्ग ना होने के कारण उसका धड़ नीचे गिर गया परंतु सिर अमर हो गया। ब्रह्मा जी ने उसे ग्रह बना दिया।
चंद्रमा के कृत्य से क्रोधित राहु चंद्रमा को निगल जाना चाहता था। चंद्रमा को अपना ग्रास बनाने के लिए राहु उसके पीछे दौड़ा। राहु के भय से चंद्रमा ने शिवजी की स्तुति करनी प्रारंभ कर दी और उनकी शरण में चला गया। चंद्रमा के अनुनय-विनय पर शिवजी ने उसे अपने जटा-जूट के ऊपर रख लिया। तब से चंद्रमा उनके मस्तक पर शोभायमान है।
चंद्रमा का पीछा करते-करते राहु भी वहां पहुंचा और शिवजी की स्तुति करने लगा। राहु ने शिवजी से कहा – मेरा भक्ष्य चंद्रमा इस समय आपके समीप आया है, उसे आप मुझे दे दीजिए। तब शिवजी ने कहा – मैं संपूर्ण भूतों का आश्रय हूं, देवता और असुर सबको मैं प्रिय हूं।
भगवान शिव के ऐसा कहने पर राहु भी उन्हें प्रणाम करके उनके मस्तक में स्थित हो गया। तब चंद्रमा ने भय के मारे अमृत का स्राव किया। उस अमृत के संपर्क से राहु के अनेक सिर हो गए।
देवासुर संग्राम
जब देवताओं ने अमृत पी लिया तब समस्त लोकों को जीवनदान देने वाले भगवान ने बड़े-बड़े दैत्यों के सामने ही मोहिनी रूप त्यागकर अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया। जब असुरों ने देखा कि देवताओं को तो अमृत पिला दिया गया है लेकिन उन्हें अमृत नहीं मिला है तो उन्होंने अपने हथियार उठा लिए और देवताओं पर आक्रमण कर दिया। इधर देवताओं ने एक तो अमृत पीकर विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी और दूसरे उन्हें भगवान का आश्रय प्राप्त था जिसके प्रभाव में आकर वे असुरों से युद्ध करने लगे। क्षीरसागर के तट पर अत्यंत भयंकर संग्राम हुआ। देवताओं और दैत्यों की वह लड़ाई ही देवासुर संग्राम के नाम से जानी जाती है। देवासुर संग्राम में इंद्र ने असुरों को पराजित किया और स्वर्ग लोक को वापस ले लिया।
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भगवान विष्णु का बुद्ध अवतार। क्या गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक ही हैं?
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इस पोस्ट के द्वारा समुंद्र मंथन की कथा पढकर बहुत अच्छा लगा ।