पुराण के लक्षण कौन-कौन हैं?

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हिंदू धर्म में 18 महापुराण हैं। पुराणों को विशिष्टता प्रदान करने के लिए उसके स्वरूप को लक्षणों के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। पुराण के 5 लक्षणों का वर्णन विभिन्न पुराणों में किया गया है। पुराण के लक्षण क्या हैं, यह समझने के लिए यह आवश्यक है कि इस विषय को समझा जाए कि पुराणों की रचना क्यों की गई। 

भगवत्प्राप्ति के साधनों का जैसा समावेश पुराणों तथा उप पुराणों में किया गया है वैसा वर्णन किसी भी शास्त्र में नहीं मिलता। वेद आदि के दुरूहतम रहस्यों को आख्यान शैली के माध्यम से सरलतम बनाकर पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। जिन लौकिक और पारलौकिक ज्ञान की बातों का बीजरूप में समावेश वेद आदि ग्रंथों में किया गया है उसको पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। 

तथापि पुराणों के अपने कुछ मुख्य प्रतिपाद्य विषय हैं जिनकी उपस्थिति पर ही इन ग्रंथों को पुराण की संज्ञा दी जाती है। पुराणों की परिभाषा में कहा गया है कि ज्ञात-सत्यार्थभूत-पंचलक्षणात्मक आख्यान-उपाख्यान, प्रबंध-कल्पना से युक्त ग्रंथों का नाम पुराण है।अर्थात पुराण को 5 लक्षणों से युक्त होना चाहिए।

पुराणों के 5 लक्षण

पुराण के लक्षणों का वर्णन पुराण ग्रंथों में किया गया है। पुराण के 5 लक्षणों का वर्णन इस श्लोक में मिलता है –

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च।

वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम्।।

पुराणों के 5 लक्षणों को बतलाने वाला यह पद प्राय सभी पुराणों में थोड़े-बहुत अंतरों के साथ मिलता है। 

सर्ग : इस प्रकरण में जगत की उत्पत्ति को सभी पुराणों में विस्तार से बताया गया है। देवता आदि की उत्पत्ति, समुद्र, पर्वत तथा भूमि के संस्थान, सूर्य का संस्थान इत्यादि विषयों का वर्णन सर्ग के अंतर्गत किया गया है।

प्रतिसर्ग : इस प्रकरण में बताया गया है कि इस संपूर्ण चराचर विश्व का समय-समय पर प्रलय होना सुनिश्चित है। प्रतिसर्ग के लिए पुराणों में प्रतिसंचर और संस्था शब्द का भी प्रयोग मिलता है। भागवत में चार प्रकार के प्रलयों की चर्चा की गई है – नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य तथा आत्यंतिक। इसे प्रतिसर्ग का विषय बताया गया है।

वंश : इस प्रकरण में संसार के जो उपादान कारण है उनकी क्रमिक परंपरा का वर्णन किया गया है। देव, ऋषि, मनुष्य आदि वंश के अंतर्गत आते हैं।

वंशानुचरित : इस प्रकरण में वंश में जो पदार्थ हैं उनके बारे में विशेष रूप से कहा गया है। महर्षि, राजा और मनुष्य आदि के चरित्र तथा वेद शाखाओं का विभागीकरण वंशानुचरित में आते हैं।

मन्वंतर : इस प्रकरण में सृष्टि के प्रारंभ से प्रलय-पर्यंत में कितना समय लगता है इसकी पूरी गणना की गई है। कल्प, उनके भेद, युगों के धर्म आदि मन्वंतर के वर्ण्य विषय हैं।

देवी भागवत में अन्य पुराणों की भांति पुराण के 5 लक्षणों का कथन करके सर्ग और प्रतिसर्ग का विलक्षण मार्ग से विवरण दिया गया है –

सर्ग : भगवती की तीन गुणों के अनुसार तीन महाशक्तियां हैं – सात्विक गुणप्रधाना महालक्ष्मी, राजस गुणप्रधाना महासरस्वती और तामस गुणप्रधाना महाकाली। इन तीन महाशक्तियों को सृष्टि के प्रवर्तन और विस्तार के लिए जो स्वरूप धारण करना है उसको शास्त्र विशारदों ने सर्ग का पहला रूप माना है।

प्रतिसर्ग : उसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की उत्पत्ति संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार के लिए हुई। इसे प्रतिसर्ग कहा गया है।

वंश : इस प्रकरण में चंद्रवंश और सूर्यवंश में उत्पन्न होने वाले राजाओं के वंश का कथन है। इसके अनंतर हिरण्यकशिपु आदि के वंशों का विवरण और स्वयंभू आदि मनुओं का वर्णन है। 

मन्वंतर : इन सब वर्णित घटनाओं में कितना समय लगता है इसका विवरण मन्वंतर प्रकरण में किया गया है।

वंशानुचरित : देव, ऋषि और मानव के वंश में उत्पन्न हुए व्यवहार और घटनाओं का इतिहास वंशानुचरित में कहा गया है।

पुराणों के 10 लक्षण

भागवत पुराण  व  ब्रह्मवैवर्त पुराण जैसे कुछ पुराणों में पांच और लक्षणों को मिलाकर पुराणों के कुल 10 लक्षण बताए गए हैं। श्रीमद्भागवत पुराण के दूसरे स्कंध और 12वें स्कंध में पुराणों के 10 लक्षण गिनाए गए हैं। दूसरे स्कंध में वर्णित पुराणों के 10 लक्षण इस प्रकार हैं –

सर्ग : भूत, इंद्रिय, बुद्धि आदि की उत्पत्ति सर्ग शब्द से ली गई है।

विसर्ग : गुणों की विषमता अर्थात न्यूनाधिक भाव से पुरुष द्वारा जो आगे सृष्टि होती है वह विसर्ग कहा जाता है।

स्थान : स्थान का अर्थ है स्थिति या बैकुंठ का विजय। विष्णु का प्रधान कार्य जगत का पालन करना है। उस विष्णु का यही विजय कहा जाता है कि संसारचक्र अन्न और अन्नाद इन दो स्थितियों से पुष्ट होता रहे। श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में इसे वृत्ति कहा गया है। इस प्रकार प्रतिपल नाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है उसका नाम स्थान है।

पोषण : पोषण शब्द से भगवान का अवतार और उनका अनुग्रह लक्षित है। श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में इसे रक्षा कहा गया है। 

ऊति : ऊति शब्द से कर्मों की वासना अभिप्रेत है। जीव के संसारचक्र में पड़ने का कारण अविद्या और उससे संबद्ध कर्म को माना गया है। श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में इसे हेतु कहा गया है।

मन्वंतर : मन्वंतर शब्द से मन्वंतरों के धर्म विवक्षित हैं। श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में इसे अंतर कहा गया है।

ईशानुकथा : ईशानुकथा से अवतार और उनके अनुगामियों की कथा विवक्षित है। ईशानुकथा का अर्थ है हरि अर्थात भगवान और उनके भक्तों की कथा। इसमें ऋषियों, राजाओं आदि के चरित्रों का संग्रह भी है। श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में इसे वंश एवं वंशानुचरित में उल्लिखित किया गया है।

निरोध : निरोध शब्द प्रलय के अर्थ में लिया गया है जिसमें भगवान अपनी शक्तियों के साथ शयन करते हैं। श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में संस्था शब्द से चार प्रकार का प्रलय बोधित होता है। इन चारों में विलक्षणता दिखाने के लिए दूसरे स्कंध में मुक्ति को अलग से कहा गया है। निरोध शब्द नैमित्तिक और प्राकृतिक प्रलय का अभिप्राय है।

मुक्ति : मुक्ति शब्द से जीव का विकृत भाव छोड़ना विवक्षित है। अनात्मभाव का त्याग कर अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा में स्थिर होना ही मुक्ति है।

आश्रय : इस चराचर जगत की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्व से प्रकाशित होते हैं वह परमब्रह्म ही आश्रय हैं। इसी को परमात्मा कहा गया है। श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में इसे अपाश्रय कहा गया है।

श्रीमद्भागवत के 12वें स्कंध में पुराणों के जो 10 लक्षण बताए गए हैं, वह इस प्रकार हैं – 

  1. सर्ग, 2. विसर्ग, 3. वृत्ति, 4. रक्षा, 5. अंतर, 6. वंश, 7. वंशानुचरित, 8. संस्था, 9. हेतु, 10. अपाश्रय

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रीमद्भागवत में दो स्थानों पर जो पुराणों के 10 लक्षण गिनाए गए हैं उनमें भेद प्रतीत होने पर भी विचार करने पर शब्द भेद मात्र रह जाते हैं। दोनों में विषयों की साम्यता है।

puran ke 10 lakshan

वहीं, ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर, वंशानुचरित ये पांच उप पुराण के विषय हैं। महापुराणों के विषय हैं  – 

  1. सृष्टि, 2. विसृष्टि, 3. स्थिति, 4. पालन, 5. कर्मों की वासना, 6. मनुओं की वार्ता, 7. प्रलयों का वर्णन, 8. मोक्ष का निरूपण, 9. हरि का कीर्तन, 10. वेदों का विभाजन

ब्रह्मवैवर्त पुराण में पुराणों के 10 लक्षण गिनाए गए हैं वह भी शब्द भेद के साथ श्रीमद्भागवत के 10 लक्षण ही हैं।  जैसे ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक लक्षण हरि का कीर्तन बताया गया है। हरि का कीर्तन लक्षण को श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध के ईशानुकथा और 12वें स्कंध के आश्रय के अंतर्गत रख सकते हैं। 

पुराण के 5 लक्षणों में 10 लक्षणों का अंतर्भाव

सूक्ष्म विवेचन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि अन्य पुराणों में सर्ग, प्रतिसर्ग आदि जो पुराण के 5 लक्षण गिनाए गए हैं श्रीमद्भागवत तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण में उन्हीं को विस्तृत कर 10 लक्षण के रूप में बताया गया है। 10 लक्षण वाले पुराण को महापुराण मानने तथा 5 लक्षण वाले पुराण को उपपुराण मानने की जो बात श्रीमद्भागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण में कही गई है उसका तात्पर्य मात्र यही है कि वह इन पुराणों के ही मुख्य रूप से लक्षण हैं, पुराण सामान्य के नहीं। 

यदि 10 लक्षणों को आधार माना जाए तो महापुराण की गिनती में केवल श्रीमद्भागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण ही आएंगे। अन्य सभी को उप पुराण मानना पड़ेगा। इससे कहीं अतिव्याप्ति होगी तो कहीं अव्याप्ति। विष्णु पुराण, पद्म पुराण, स्कंद पुराण, मत्स्य पुराण, वायु पुराण आदि में यद्यपि 10 लक्षणों की बात स्पष्ट रूप से नहीं दिखती है तथापि वे सभी विषय इनमें आ गए हैं, इस दृष्टि से भी इन्हें उप पुराण नहीं कहा जा सकता।

इसी प्रकार श्रीमद्भागवत व विष्णु पुराण में भी अद्भुत साम्य है। दोनों के विषय प्राय़ः एक समान हैं। ऐसी स्थिति में विष्णु पुराण को पुराण कदापि नहीं कहा जा सकता। अतः महापुराणों के लिए 5 लक्षणों का होना आवश्यक है ना कि 10 लक्षणों का। वास्तव में स्थिति यह है कि जो भी 10 विषय बताए गए हैं उनमें सर्ग, प्रतिसर्ग, मन्वंतर, वंश, वंशानुचरित इन पांच विषयों को तो उसमें शब्दशः ग्रहण किया गया है शेष 5 का भी अंतर्भाव इन पांचों में हो जाता है – 

  1. सर्ग : सर्ग, विसर्ग, हेतु, ऊति, आश्रय, अपाश्रय
  2.  प्रतिसर्ग : संस्था, निरोध
  3. मन्वंतर : अन्तर
  4. – 5. वंश-वंशानुचरित : वंश, वृत्ति, स्थान-रक्षा, पोषण-ईशानुकथा  

पुराणों के अन्य विषय

ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका उल्लेख पुराणों में नहीं किया गया हो। उनमें भी लोकोपयोगी होने के कारण 4 विषयों का विशेष रूप से संग्रह किया गया है – 

आख्यान : स्वयं देखी हुई बात को कहना आख्यान कहा गया है। विद्वानों का ऐसा मानना है कि वेदों में जो आख्यायिकाएं संकेत रूप में आई हैं और उनका विस्तारपूर्वक वर्णन पुराणों में किया गया है उन्हें ही आख्यान कहना चाहिए।

उपाख्यान : सुनी हुई बात को कहना उपाख्यान कहा गया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि उपाख्यान वे हैं जो वेद या प्राचीन वांग्मय में संकेतित नहीं हैं। पुराणकर्ता ने ही उनका संकलन किया है। नल आदि राजा के चरित्र ऐसे ही उपाख्यान हैं।

जिन चरित्रों का कथन वंश क्रम से हो वह वंशानुचरित नाम के प्रधान लक्षण में आ जाते हैं तथा जिन चरित्रों का वर्णन आदर्श के रूप में वंश के क्रम को छोड़कर दृष्टांत के रूप में किया गया है उनको यहां आख्यान और उपाख्यान कहा गया है। 

गाथा : किसी युग या युगांतर में उत्पन्न होने वाले महापुरुष ने अपने अनुभवों का जिन शब्दों में प्रकाशन किया और श्रेष्ठ पुरुषों ने जिन्हें सादर स्वीकार कर लिया उन्हें गाथा कहा जाता है। वेद के ब्राह्मण भाग में बहुत सारी गाथाएं मिलती हैं। ये गाथाएं उपदेश के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होती हैं इसलिए पुराणों में स्थान-स्थान पर इस प्रकार की गाथाओं का संग्रह मिलता है।

कल्पशुद्धि : कल्पशुद्धि से कल्पों की गाथा का अभिप्राय है। कुछ विद्वानों का मानना है कि धर्मशास्त्र के कल्पसूत्रों में जो कर्मकांड के विधान आते हैं और धर्मशास्त्रों में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की शुद्धियों के विचार मिलते हैं, वही कल्पशुद्धि है। 

इस प्रकार जब पुराण के लक्षणों का विवेचन किया जाता है तो स्पष्ट होता है कि पुराण के 5 लक्षण ही वास्तविक रूप से पुराण के स्वरूप को परिभाषित करते हैं और सभी 10 लक्षण पुराण के इन्हीं 5 लक्षणों में अंतर्निहित हैं। पुराणों का उद्देश्य प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से ईश्वरत्व का निरूपण करना है। पुराणों के लक्षण इसी ईश्वरत्व को स्थापित करते हैं।

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