परशुराम अवतार की कथा

भगवान विष्णु के परशुराम अवतार की कथा

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रामायण, महाभारत, भागवत पुराण, कल्कि पुराण, हरिवंश पुराण, अध्यात्म रामायण इत्यादि विभिन्न ग्रंथों में भगवान परशुराम अवतार की कथा का वर्णन है। भगवान विष्णु के 10 अवतारों में परशुराम को छठा अवतार माना जाता है। परशुराम को विष्णु का आवेशावतार भी कहा जाता है। भगवान परशुराम को भगवान विष्णु और शिव का संयुक्त अवतार माना जाता है। शिव से उन्होंने संहार लिया और विष्णु से उन्होंने पालक के गुण प्राप्त किए।

अध्यात्म रामायण में कहा गया है कि जब राक्षसों ने क्षत्रिय का रूप धारण करके जन्म लिया और वह पृथ्वी पर अनाचार और अत्याचार करके भूमि पर भार बन गए तब भगवान विष्णु ने परशुराम का अवतार धारण किया और उन दुष्ट राक्षसों को कई बार मारा और पृथ्वी को उनके भार से मुक्त किया। 

भगवान परशुराम के जन्म और जीवन से जुड़ी विभिन्न कथाएं और घटनाओं का वर्णन भिन्न-भिन्न धर्म ग्रंथों में किया गया है, उसमें से कुछ की चर्चा नीचे की गई है—

परशुराम के जन्म की कथा

कन्नौज में गाधी नाम के राजा राज्य किया करते थे। उनकी पुत्री का नाम सत्यवती था। सत्यवती का विवाह भृगु ऋषि के पुत्र ऋचीक के साथ हुआ। विवाह के उपरांत भृगु ऋषि ने सत्यवती को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया और उनसे वर मांगने के लिए कहा। सत्यवती ने अपनी माता के लिए पुत्र की कामना की। 

भृगु ऋषि ने सत्यवती को दो चरु (यज्ञ का प्रसाद) पात्र दिए और कहा कि एक तुम्हारे लिए है और दूसरा तुम्हारी माता के लिए। जब तुम दोनों ऋतु स्नान कर लेना तो पुत्र की कामना लेकर तुम गूलर के पेड़ का आलिंगन करना और तुम्हारी माता पीपल का आलिंगन करेगी। जब तुम इस चरु पात्र का सेवन करोगी तुम्हारी कामना पूर्ण होगी।

जब सत्यवती की माता को यह पता चला कि उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए प्रभु ने सत्यवती को चरू पात्र दिए हैं तो उसके मन में लोभ आ गया और उसने सत्यवती के पात्र से अपना पात्र बदल दिया। सत्यवती माता के इस कृत्य से अनजान थी। उसने अपने पात्र की जगह माता के चरु पात्र को ही अपना पात्र समझकर ग्रहण कर लिया। 

योग तप के प्रभाव से महर्षि भृगु इस घटना की सत्यता को जान गए। वह समझ गए कि इसमें सत्यवती का कोई दोष नहीं है। उन्होंने सत्यवती से कहा – हे पुत्री, तुमसे तुम्हारी माता ने छल किया है। उसने अपना पात्र तुम्हें दे दिया है और तुम्हारा पात्र स्वयं ग्रहण कर लिया है। इसका प्रभाव यह होगा कि अब तुम्हारी संतान जन्म से भले ब्राह्मण हो लेकिन उसका आचरण एक क्षत्रिय जैसा होगा। वहीं तुम्हारी माता की संतान क्षत्रिय होने के पश्चात भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी।

ऐसा जानकर सत्यवती ने कहा – आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र एक ब्राह्मण की तरह ही आचरण करे भले ही मेरे पुत्र में क्षत्रिय के गुण आ जाएं। महर्षि भृगु ने सत्यवती की प्रार्थना स्वीकार की। सत्यवती के गर्भ से सप्त ऋषियों में स्थान पाने वाले महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि का विवाह प्रसेनजीत की पुत्री रेणुका से हुआ। रेणुका और जमदग्नि के 5 पुत्र हुए। इनमें पांचवें पुत्र भगवान परशुराम थे। जमदग्नि के चार अन्य पुत्र रुक्मवान, सुखेण, वसु और विश्वानस थे।

परशुराम के जन्म के संबंध में एक भिन्न कथा का वर्णन हरिवंश पुराण में किया गया है।

हरिवंश पुराण के अनुसार प्राचीन समय में माहिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कार्तवीर्य अर्जुन का शासन था। जिसे सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना जाता था। वह बहुत ही अभिमानी और अत्याचारी था। एक बार अग्निदेव ने उससे भोजन प्रदान करने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें भोजन प्राप्त कर सकते हैं, संसार में जो कुछ भी है मेरा ही है। 

तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरू किया। एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि द्वारा वनों को जलाने के क्रम में उनका आश्रम भी जल गया। इससे क्रोधित होकर ऋषि आपव ने सहस्त्रबाहु को शाप दिया कि भगवान विष्णु परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और ना सिर्फ सहस्त्रबाहु का बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इस प्रकार भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्नि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया।

परशुराम का जन्म कब हुआ

स्कंद पुराण के अनुसार वैशाख शुक्ल तृतीया पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम पहर में जबकि छः ग्रह स्वक्षेत्री या अपने उच्चासीनों में उच्च वर्ग के थे, इनकी जन्मकुंडली में तुला राशि का शनि, कर्क राशि के बृहस्पति, कन्या राशि के बुध, वृष राशि के चंद्रमा, मेष राशि के सूर्य व मीन राशि के शुक्र थे एवं राहु मिथुन राशि में स्थित था, ऐसे उत्तमोत्तम योग में भगवान विष्णु परशुराम के रूप में रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए। भगवान परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया रात्रि के प्रथम पहर लगभग 8 लाख 75 हजार 7 सौ साल पूर्व त्रेता युग के 19वें भाग में हुआ था। इसीलिए अक्षय तृतीया के दिन परशुराम की जयंती मनाई जाती है।

भगवान परशुराम का जन्म स्थान

भगवान परशुराम के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में भिन्न-भिन्न मत हैं और विभिन्न ग्रंथों में अलग-अलग स्थानों का जिक्र आया है या संदर्भों के आधार पर उस स्थान को भगवान परशुराम का जन्म स्थान माना गया है। जिन स्थानों की चर्चा की जाती है, वे निम्नलिखित हैं – 

  • बुलंदशहर के पास भृगु स्थल 
  • शाहजहांपुर के जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम के करीब
  • बलिया के निकट खैराडीह 
  • कुरुक्षेत्र भूमि सरस्वती के किनारे जामनी ग्राम 
  • उत्तरकाशी जनपद में गंगनानी
  • हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जनपद के अंतर्गत रेणुका झील
  • मध्य प्रदेश के इंदौर के पास जानापाव की पहाड़ी पर
  • छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के शतमहला में
  • गुजरात में भृगु कच्छ 
  • उड़ीसा में महेंद्र पर्वत

परशुराम का नामकरण

परशुराम का नाम उनके माता-पिता ने रामभद्र रखा था। वहीं इनका जन्म का नाम महर्षि कण्व ने कोटिकर्ण रखा था। महाभारत और विष्णु पुराण के अनुसार परशुराम का मूल नाम राम था किंतु जब भगवान शिव द्वारा उन्हें परशु नामक अस्त्र प्रदान किया गया तो उनका नाम परशुराम हो गया।

परशुराम के अन्य नाम 

पद्म पुराण में भगवान विष्णु के जो सहस्त्रनाम दिए गए हैं उन्हीं में भगवान परशुराम के अन्य नामों का उल्लेख किया गया है। उनके अन्य नाम हैं – 

जमदग्नि कुलादित्य, रेणुकादभुत शक्तिकृत, मातृहत्यादिनिर्लेप, स्कन्दजित, विप्रराज्यप्रद, सर्वक्षत्रान्तकृत, वीरदर्पहा, कार्तावीर्यजित सप्तद्वीपावतीदाता, शिवार्चकयशप्रद, भीम, शिवाचार्य विश्वभुक, शिवखिलज्ञान कोष, भीष्माचार्य, अग्निदैवत, द्रोणाचार्य, गुरुविश्वजैत्रधन्वा, कृतान्तजित, अद्वितीय तपोमूर्ति, ब्रह्मचर्येक दक्षिण।

परशुराम की शिक्षा

परशुराम मूलतः ब्राह्मण थे परंतु चरु के प्रभाव के कारण वह क्षत्रियोचित व्यवहार करते थे। 15 वर्ष की आयु में ही इन्होंने अपने दादा ऋचिक और पिता जमदग्नि से वेद और धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। संजीवनी विद्या जो भार्गव वंश में वंशानुगत दी जाती थी की भी विधिवत शिक्षा इन्होंने अपने दादा ऋचिक एवं पिता जमदग्नि से प्राप्त की। 

परशु चलाने की शिक्षा भगवान शंकर के सान्निध्य में इन्होंने गणेश जी से प्राप्त की थी। कैलाश पर्वत पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर परशुराम ने विशिष्ट दिव्यास्त्र परशु प्राप्त किया था। यह परशु भगवान शंकर के उसी महातेज से निर्मित हुआ था जिससे भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र और देवराज इंद्र का वज्र बना था। परशुराम रुरु नामक मृग का चर्म धारण करते थे और कंधे पर धनुष-बाण एवं हाथ में परशु लेकर चलते थे। परशुराम शस्त्र विद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी।

परशुराम ने अपनी माता का वध क्यों किया?

श्रीमद्भागवत के अनुसार एक बार परशुराम की माता रेणुका दैनिक नियमानुसार संध्या वंदन और यज्ञ के लिए गंगा जल लेने गंगा के तट पर गई। सायंकालीन जप, संध्या वंदन और यज्ञ उत्तमा सूर्य संहिता सूर्य के रहते ही उत्तम मानी जाती है। जिस समय रेणुका नदी तट पर जल लेने गई उसी समय गंधर्व मृतिकावत के पुत्र राजा चित्ररथ गंधर्वराज का जलयान वहां रुका। चित्ररथ अपनी अप्सराओं के साथ वहां जल क्रीड़ा करने लगे। 

रेणुका ने सोचा कि यह लोग स्नान करके चले जाएं तो मैं पूजा और संध्या के लिए स्वच्छ जल लेकर आश्रम को जाऊं। इक्ष्वाकु क्षत्रिय वंशी होने के कारण रेणुका के विचारों में स्वच्छंदता थी। उसे भार्गवों के द्वारा निर्मित नीति पंथ का ज्ञान नहीं था। इसी अज्ञानता के कारण उससे नीति पंथ का उल्लंघन हो गया। चित्ररथ को जल क्रीड़ा करते देख वह मानसिक विकार से अपनी सुध-बुध खो बैठी। उनके मन में विचार आने लगा कि वह भी राजकुमारी थी और अगर उसका विवाह भी किसी राजकुमार से हुआ होता तो वह भी इसी प्रकार जल क्रीड़ा और अन्य प्रकार से राजकुमारियों की तरह मनोरंजन कर सकती थी। 

चित्ररथ को स्त्रियों के साथ जल क्रीड़ा करते देख रेणुका ने जमदग्नि का चिंतन प्रारंभ किया। देवी के मन में विचार आया कि मुनीश्वर शिवस्वरूप जमदग्नि के समागम में यह जल क्रीड़ा की जा सके तो यह तीर्थ सार्थक हो जाएगा। जिस समय रेणुका को जल क्रीड़ा करते हुए चित्ररथ और उनकी अप्सराएं दिखाई पड़ीं उस समय उनके मन में आश्रम जीवन के साथ ही राजकन्या के उपयुक्त जल क्रीड़ा की इच्छा जागृत हुई। 

मानसिक विकार आ जाने की वजह से रेणुका का चित्त स्थिर नहीं हो पा रहा था जिसकी वजह से उनके द्वारा रेत से कच्चा घड़ा नहीं बन पा रहा था। बार-बार प्रयत्न करने पर भी वह बिखर जाता था और इसी प्रयास में सारा समय बीत गया। सुध आने व स्मरण होने पर वह अपने गीले वस्त्र समेट कर जल्दी से जमदग्नि के आश्रम की ओर आ गई।

रेणुका को आश्रम आने में काफी देर हो गई थी। इतने में सूर्य अस्त होकर चंद्र उदय हो चुका था। अग्निहोत्र के पूर्व पहुंचने का नित्यक्रम इस दिन टल चुका था। देवगण और अतिथि गणों की पूजा का समय निकल चुका था। मानसिक विकार से युक्त होने के कारण रेणुका का ब्रह्म तेज समाप्त हो गया था। वह खाली हाथ वापस आई थी।

उसे इस रूप में देखकर महर्षि जमदग्नि ने अपनी योग विद्या से सब जान लिया। उनके क्रोध की सीमा ना रही। उन्होंने रेणुका से कहा – तुम्हारा चित्त परपुरुष में लग गया है। अब तुम मेरी अर्धांगिनी होने का अधिकार खो बैठी हो। 

उन्होंने कहा – ब्राह्मण का शरीर क्षुद्र सांसारिक काम के लिए नहीं है, कठोर तप के लिए है, साधना के लिए है। दीपक की भांति जलते रहकर सबको प्रकाश देने के लिए है। तब रेणुका ने कहा – मेरे हृदय में केवल आपकी मूर्ति रहती है। मेरे मन में आपके अलावा किसी अन्य का विचार नहीं आता है। नारायण स्वयं मेरे पुत्र हैं। मैं अन्य के प्रति अपनी कामना कैसे रख सकती हूं? इसके बाद रेणुका ने कहा – मेरे मन में जो था वह मैंने आपको कह दिया है। अब धर्म के अनुसार जो उचित है, वह निर्णय आप करें।

इस पर महर्षि जमदग्नि ने कहा – घृणित कार्य करती हो और धर्म की बातें करती हो। तुम निश्चय ही वध के योग्य हो।

महर्षि जमदग्नि ने रेणुका के व्यवहार के कारण अपने पुत्रों से उसका वध करने को कहा, परंतु चारों अग्रज पुत्रों ने ऐसा करने से मना कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र परशुराम को अपनी माता रेणुका का वध करने को कहा। 

जमदग्नि ने परशुराम से कहा – तुम्हारी माता ने मदन रूप में चित्ररथ गंधर्व को गंगा तट पर देखा है। तेरी माता का चित्त दुराचारी हो गया है। तुम्हारी माता ने भार्गव द्वारा निर्मित और अनुकरणीय नीति पंथ का उल्लंघन किया है। मेरी आज्ञा से तुम अपनी मां का वध करो। यदि तुम मेरे पुत्र हो तो अपनी मां का मस्तक काट डालो। तुम्हारे चारों अग्रज भाइयों ने मेरी अवज्ञा की है, इस कारण इन भाइयों के सिर भी काट डालो। 

पिता की आज्ञा होते ही एक क्षण का भी विलंब ना करते हुए परशुराम ने अपनी माता और चारों अग्रज भाइयों का सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया। ऐसा करते ही महर्षि जमदग्नि ने प्रसन्न होकर कहा – पुत्र तुम धर्मज्ञ और आज्ञाकारी हो। तुम कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। तुम एक इच्छित वर मांगो। 

इस पर परशुराम ने कहा – मेरी माता जीवित हो जाएं। उनके मानस पाप का नाश हो जाए। मेरे चारों भाई जीवित और स्वस्थ हो जाएं और उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की याद ना रहे। युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई ना हो और मैं लंबी आयु को प्राप्त करूं। 

महर्षि जमदग्नि ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा ऐसा ही होगा। जमदग्नि ने परशुराम को स्वच्छंद मरण का आशीर्वाद भी दिया। महर्षि जमदग्नि ने कहा कि भृगु शुक्राचार्य जी द्वारा सीखलाई गई संजीवनी विद्या से मैं इन्हें जीवित करता हूं। और उसके बाद उन्होंने ललिता पत्तों का लेप लगाकर उनके धड़ को फिर से जोड़ दिया जिससे वह सभी फिर से जीवित हो गए।

भगवान परशुराम द्वारा क्षत्रियों के विनाश की कथा

ऐसा माना जाता है कि भगवान परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों को पृथ्वी से नष्ट किया था। धर्म ग्रंथों में वर्णित है कि नर्मदा नदी के किनारे माहिष्मती नामक स्थान पर हैहय वंश का साम्राज्य था। इसी वंश के एक राजा कृतवीर्य थे। भार्गववंशी ब्राह्मण इनके राजपुरोहित थे। परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि जो भार्गव प्रमुख थे का कृतवीर्य के साथ मधुर संबंध था। कृतवीर्य के पुत्र का नाम अर्जुन था, इस कारण अर्जुन को कार्तवीर्यार्जुन भी कहा गया।

कार्तवीर्यार्जुन ने अपनी आराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया। भगवान दत्तात्रेय को ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों का अवतार माना जाता है। भगवान दत्तात्रेय ने प्रसन्न होकर कार्तवीर्यार्जुन को एक सहस्त्र भुजाओं तथा युद्ध में किसी से पराजित ना होने का वरदान दिया। इस कारण कार्तवीर्यार्जुन को सहस्त्रार्जुन भी कहा जाता है।

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ जंगल से गुजर रहा था तो विश्राम करने के लिए महर्षि जमदग्नि के आश्रम पहुंचा। महर्षि जमदग्नि के पास देवराज इंद्र द्वारा प्राप्त कपिला कामधेनु गाय थी। यह कोई साधारण गाय नहीं वरन दैवीय गुणों से युक्त एक विशिष्ट गाय थी। इस गाय की सहायता से महर्षि जमदग्नि ने राजा और उसकी पूरी सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया। 

सहस्त्रार्जुन गाय की विशेषताओं को देखकर उससे प्रभावित हुआ और उस गाय को प्राप्त करने का लोभ उसके मन में घर कर गया। सहस्त्रार्जुन ने उस गाय को जमदग्नि ऋषि से मांगा, परंतु उन्होंने इसे देने से इंकार कर दिया। क्रोध में आकर सहस्त्रार्जुन ने पूरे आश्रम को तहस-नहस कर दिया और बलपूर्वक कपिला कामधेनु को ले जाने का प्रयास करने लगा। 

लेकिन गाय उससे छूट कर स्वर्ग लोक में इंद्र के पास चली गई। जिससे सहस्त्रार्जुन को वह गाय हासिल ना हो सकी लेकिन महर्षि जमदग्नि को दोहरा नुकसान झेलना पड़ा। एक तरफ उनका आश्रम तहस-नहस हो गया तथा दूसरी ओर उनकी विशिष्ट कपिला कामधेनु गाय भी उनके पास से चली गई।

कुछ समय पश्चात परशुराम के आश्रम आने पर उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी कथा कह सुनाई। परशुराम ने आश्रम की स्थिति और अपने माता-पिता के अपमान को देखकर सहस्त्रार्जुन को सेना सहित नष्ट करने का संकल्प लिया। परशुराम ने आवेश में आकर सहस्त्रार्जुन की राजधानी माहिष्मति नगरी पर आक्रमण कर दिया और उसे अपने अधिकार में ले लिया। परशुराम ने फरसे के प्रहार से सहस्त्रार्जुन की समस्त भुजाएं काट डालीं एवं सिर को धड़ से अलग कर दिया।

सहस्त्रार्जुन के वध के बाद जब परशुराम अपने पिता के आश्रम पहुंचे तो उनके पिता ने परशुराम से कहा कि ब्राह्मण का सर्वोत्तम धर्म क्षमा है और उन्हें आदेश दिया कि वह इस वध का प्रायश्चित करने के लिए तीर्थ यात्रा पर जाएं। तभी उनके ऊपर से राजा की हत्या का पाप खत्म होगा। तीर्थ यात्रा पर जाने की खबर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों को मिल गई। इसके पश्चात सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध में आकर परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माता रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर अग्नि में प्रवेश होकर सती हो गई। इसके बाद परशुराम ने प्रतिज्ञा ली कि मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूंगा। इसके बाद परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त किया।

वह क्षत्रियों को ढूंढ-ढूंढ कर एकत्र करते और कुरुक्षेत्र में ले जाकर उनका वध करते। इस प्रकार भगवान परशुराम ने क्षत्रियों के रक्त से 5 सरोवर भर दिए। यह स्थान समन्तपंचक के नाम से प्रसिद्ध है। इन सरोवरों के रक्तजल से भगवान परशुराम ने अपने पितरों का तर्पण किया था।

महर्षि ऋचिक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा कृत्य करने से रोका। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और महायज्ञ में प्राप्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। उन्होंने देवराज इंद्र के समक्ष अपने शस्त्र का त्याग कर दिया और महेंद्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।

गणेश जी को एकदंत क्यों कहा जाता है, परशुराम से जुड़ी कथा

गणेश जी का एक दांत टूटा हुआ है जिस कारण से गणेश जी को एकदंत कहा जाता है। लेकिन यह दांत कैसे टूटा इस संबंध में भिन्न-भिन्न तरह की पौराणिक कथाएं हैं। सबसे ज्यादा प्रचलित कथा भगवान परशुराम से जुड़ी है। 

एक बार परशुराम भगवान शिव से मिलने के लिए कैलाश पर्वत पर गए जहां द्वारपाल के रूप में गणेश जी खड़े थे। गणेश जी ने परशुराम को अंदर जाने से मना कर दिया क्योंकि उस समय शिव जी विश्राम कर रहे थे। इससे क्रोधित होकर परशुराम गणेश जी से युद्ध करने लगे। तब गणेश जी ने परशुराम को अपनी सूंड में लपेट कर भूतल पर पटक दिया। चेतना अवस्था में आने पर कुपित परशुराम जी ने फरसे से गणेश जी पर प्रहार किया जिससे उनका एक दांत टूट गया। गणेश जी ने फरसे का प्रतिरोध इसलिए नहीं किया क्योंकि यह फरसा परशुराम को भगवान शिव जी के द्वारा दिया गया था। 

अन्य पौराणिक कथाएं कार्तिकेय जी और महाभारत के लेखन से जुड़ी हुई हैं। कहा जाता है कि भाइयों की आपसी लड़ाई में कार्तिकेय जी ने गणेश जी का एक दांत तोड़ दिया था। वहीं दूसरी कथा के अनुसार गणेश जी ने स्वयं अपना एक दांत तोड़ कर उसकी लेखनी बना ली थी। उसी लेखनी से महर्षि वेद व्यास कृत महाभारत लिखा गया।

उपसंहार 

धर्म की स्थापना और लोक के कल्याण के लिए भगवान विष्णु धरती पर अवतार लेते रहे हैं। ऐसे तो भगवान विष्णु  के कई अवतार माने जाते हैं परंतु उनके 10 अवतारों का विशेष महत्व है। इन्हीं 10 अवतारों में एक अवतार भगवान परशुराम अवतार भी है। भगवान परशुराम के रूप में अवतार लेकर उन्होंने धरती को दुष्टों से मुक्त किया और लोक धर्म की स्थापना की।

भगवान विष्णु के दशावतार से जुड़े अन्य अवतारों का वर्णन निम्न आलेख में किया गया है –
विष्णु के मत्स्य अवतार की कथा : हयग्रीव का वध और वेदों की रक्षा
भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कथा
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भगवान विष्णु के वराह अवतार की कथा
भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की कथा
भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा
भगवान विष्णु का बुद्ध अवतार। क्या गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक ही हैं?
भगवान विष्णु के कल्कि अवतार की कथा


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4 thoughts on “भगवान विष्णु के परशुराम अवतार की कथा”

  1. जानकारी इसी प्रकार सरल और क्रमवार होनी चाहिए. इन विषयों पर अक्सर धुंधली और अबूझ कथा मिलती है लेकिन यहाँ शानदार प्रस्तुति है.

  2. लेखन में सरलता के साथ रोचकता और प्रवाह है. जानकारी बहुत ही स्पष्ट तरीके से प्रस्तुत की गई है.

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