मनुस्मृति क्या है?

मनुस्मृति क्या है?

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धर्म के 10 लक्षण माने गए हैं तथा उनसे सम्बद्ध धर्म तत्वों की विवेचना जिन ग्रंथों में की गई है उन्हें धर्मशास्त्र के नाम से जाना जाता है। धर्म शास्त्रों को स्मृति ग्रंथ कहा जाता है। स्मृति ग्रन्थों के नाम पुरातन ऋषि परम्परा के आधार पर निश्चित हुए हैं। स्मृति ग्रन्थों का रचनाकाल दो सौ वर्ष ईसा पूर्व से लेकर कम से कम चौथी शताब्दी तक माना जाता है। धर्मशास्त्र में धर्म के विविध लक्षणों तथा रहस्यों की सरल शब्दों में व्याख्या की गई है।

पुराणों की तरह स्मृति ग्रंथों की संख्या मुख्यतः 18 हैं। 18 स्मृति ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं – 

1. मनुस्मृति, 2, याज्ञवल्क्य स्मृति, 3. अत्रि स्मृति, 4. विष्णु स्मृति, 5. हारित स्मृति, 6. उशनस् स्मृति, 7. अंगिरा स्मृति, 8. यम स्मृति, 9. कात्यायन स्मृति, 10. बृहस्पति स्मृति, 11. पराशर स्मृति, 12. व्यास स्मृति, 13. दक्ष स्मृति,  14. गौतम स्मृति, 15. वशिष्ठ स्मृति, 16. नारद स्मृति, 17. भृगु स्मृति और 18. आपस्तम्ब स्मृति। 

18 स्मृति ग्रंथों के नामइन 18 स्मृति ग्रंथों में मनु स्मृति सबसे लोकप्रिय होने के साथ-साथ सबसे ज्यादा विवादित स्मृति ग्रंथ है। मनुस्मृति के संदर्भ में दो तरह की मान्यताएं हैं। एक मान्यता यह है कि मनुस्मृति हिंदू धर्म परंपरा, समाज, व्यवहार, विचार और राजनीति को सर्वाधिक व्यापक एवं व्यावहारिक रूप से व्याख्यायित करता है। वहीं दूसरी मान्यता यह है कि मनुस्मृति विभेदकारी सामाजिक व्यवस्था को समर्थन देता है तथा शूद्रों और स्त्रियों को दोयम दर्जे के मनुष्यों की श्रेणी में रखता है।

मनुस्मृति क्या है और मनु स्मृति में वर्णित विषय कौन-कौन से हैं, इसी का वर्णन इस आलेख में किया गया है।

मनुस्मृति के रचयिता कौन हैं?

यह माना जाता है कि मनुस्मृति की रचना मनु के द्वारा की गई है। लेकिन पौराणिक ग्रंथों में एक नहीं कई मनु का उल्लेख है। यह भी मान्यता है कि ‘मनु’ एक उपाधिमूलक शब्द है। इस कारण यह प्रश्न उठता है कि किस मनु के द्वारा मनुस्मृति की रचना की गई है? मनु स्मृति में रचयिता के संदर्भ में पूरी जानकारी नहीं दी गई है। मनुस्मृति के रचयिता के संदर्भ में विभिन्न मत-मतांतर हैं एवं उससे संबंधित भिन्न-भिन्न तर्क प्रकट किए जाते हैं।

ऋग्वेद में मनु को मानव का पिता कहा गया है। ऋग्वेद में यह भी कहा गया है कि मनु ने ही सर्वप्रथम यज्ञ किया जिसके पश्चात् यह सृष्टि प्रारम्भ हुई। इस आधार पर मनु का काल सृष्टि का आदि काल माना जा सकता है। महाभारत के शान्तिपर्व में कई मनु का उल्लेख किया गया है, यथा— स्वयंभूव मनु, वैवस्वत मनु तथा प्राचेतस मनु आदि। इनमें से किस मनु के द्वारा मनुस्मृति की रचना की गई है यह स्मृति ग्रंथ में उल्लिखित नहीं है। 

नारद स्मृति में यह उल्लेख किया गया है कि मनु ने एक लाख श्लोकों का धर्मशास्त्र लिखा। महाभारत के शान्तिपर्व में वर्णित है कि ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों में धर्म का वर्णन किया जिसे विभिन्न ऋषियों द्वारा संक्षिप्त रूप प्रदान किया गया। 

यह भी वर्णन मिलता है कि मनु द्वारा वर्णित धर्मशास्त्र को पहले नारद ने पढ़ा एवं इसको बारह हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया और मार्कण्डेय को पढ़ाया। मार्कण्डेय जी ने आठ हजार श्लोकों में इस स्मृति को संक्षिप्त किया और सुमति भार्गव को सौंप दिया। भार्गव ने इसे चार हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर ऋषियों को सुनाया। वर्तमान मनुस्मृति भृगु का व्याख्यान है। विद्वानों के द्वारा इस आधार पर सुमति भार्गव को मनुस्मृति का रचयिता माना जाता है।

मनुस्मृति के वर्ण्य विषय 

  • प्रथम अध्याय – सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन
  • दूसरा अध्याय – धर्मतत्त्व का वर्णन, (i) ब्रह्मचर्य का वर्णन, (ii) कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन, (iii) स्नातक विवाह एवं कर्म का वर्णन
  • तीसरा अध्याय – गृहस्थों का विशद वर्णन, (i) गृहस्थों के पंचमहायज्ञ, (ii) 8 प्रकार के विवाह का वर्णन
  • चौथा अध्याय – गृहस्थाश्रम का वर्णन
  • पांचवां अध्याय – मृत्यु, भक्ष्य, अभक्ष्य का वर्णन, (i) शुद्धि का वर्णन (ii) स्त्री धर्म का वर्णन
  • छठा अध्याय – वानप्रस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम का वर्णन
  • सातवां अध्याय – राज्य शासन धर्म का वर्णन
  • आठवां अध्याय – राज्य धर्म दण्डविधान का वर्णन
  • नौवां अध्याय – शक्तिस्वरूपा स्त्री रक्षा का वर्णन
  • दसवां अध्याय – वर्णों के भेदों एवं विवेक का वर्णन (i) चतुर्वर्णों की वृत्ति का वर्णन, (ii) शूद्रों के धन-संचय का निषेध
  • ग्यारहवां अध्याय – धर्म के प्रतिरूपों का वर्णन, (i) प्रायश्चित वर्णन, (ii) तप महत्त्वफल वर्णन
  • बारहवां अध्याय – सत्व, रज तथा तम नामक त्रिगुण का विवेचन, (i) कर्मों के शुभाशुभ फल का वर्णन, (ii) स्वर्ग, नरक, मोक्ष तथा आत्मा के विषय में संक्षिप्त विचार 

मनुस्मृति : 12 अध्याय 

मनुस्मृति में 12 अध्याय एवं 2694 श्लोक हैं। मनुस्मृति की रचना सरल शैली में की गई है। इस स्मृति की शब्द रचना पर पाणिनि के व्याकरण का प्रभाव है। भाषा एवं भाव के क्षेत्र में कई स्थल पर कौटिल्य के अर्थशास्त्र से साम्य रखता है।

प्रथम अध्याय

  • प्रथम अध्याय में सृष्टि रचना का वर्णन हुआ है। इसमें कहा गया है कि ब्रह्मा ने इस विशाल सृष्टि का निर्माण किया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश नामक पाँच तत्वों को क्रमश गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द नामक तन्मात्राओं से युक्त बताया गया है। 
  • सृष्टि के निर्माण के पीछे ईश्वर की कामना को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। 
  • इसी अध्याय में सृष्टि के चार युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग की कालावधि का निर्णय किया गया है। 
  • सम्पूर्ण सृष्टि में मानव को सर्वश्रेष्ठ जैविक रचना माना गया है। यथा-
    भूताना प्राणिन श्रेष्ठा प्राणिना बुद्धिजीवित। 

दूसरा अध्याय

  • दूसरे अध्याय में अभिवादन पद्धति पर प्रकाश डाला गया है। 
  • माता को पिता की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया गया है। माता-पिता से अधिक गुरु को आदर दिया गया है। 
  • ब्राह्मण की श्रेष्ठता ज्ञान से होती है। क्षत्रिय की श्रेष्ठता का निर्धारण उसके बल के आधार पर होता है। वैश्यों को धन-धान्य के आधार पर श्रेष्ठ माना जाता है। शुद्रों में श्रेष्ठता का निर्धारण अवस्था के आधार पर होता है। 
  • आचार्य और गुरु के पावन सम्बन्धों को भी इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है। 
  • सहनशीलता, वेदाभ्यास की महिमा, नित्य स्नान तथा तर्पण आदि को भी सम्यक् स्थान दिया गया है। 

तीसरा अध्याय

  • तीसरे अध्याय में गृहस्थ के ऊपर विशद प्रकाश डाला गया है ।
  • इस अध्याय में आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन किया गया है। यह आठ प्रकार के विवाह हैं – ब्रह्म, देव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच। 
  1. ब्रह्म विवाह – जब वेदज्ञ ब्राह्मण वर को बुलाकर वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित कर तथा उसकी पूजा करके कन्या से उसका विवाह कराता है तो उसे ब्रह्म विवाह कहा गया है।
  2. देव विवाह – ज्योतिष्टोम जैसे यज्ञ में विधिपूर्वक कर्म करते हुए ऋत्विक के लिए कन्यादान करना देव विवाह का लक्षण माना गया है।
  3. आर्ष विवाह – इस विवाह में वर पक्ष से गाय अथवा बैल को लेकर धर्म-कर्म सम्पादित कराकर कन्यादान कर दिया जाता है। 
  4. प्रजापत्य विवाह – वर-वधू को धर्माचरण का उपदेश देकर विवाह सम्पन्न कराना प्रजापत्य विवाह है। 
  5. आसुर विवाह – कन्या पक्ष को यथासम्भव धन देकर कन्या को स्वीकार करना आसुर विवाह माना जाता है। 
  6. गान्धर्व विवाह – प्रेमपूर्वक या इच्छापूर्वक विवाह को गान्धर्व विवाह माना गया है। 
  7. राक्षस विवाह – कन्या पक्ष को पीड़ित करके या कन्या के साथ बलपूर्वक विवाह राक्षस विवाह कहलाता है। 
  8. पैशाच विवाह – छलपूर्वक किसी कन्या के साथ विवाह करना पैशाचिक विवाह माना गया है।
    राक्षस तथा पैशाचिक विवाह की निन्दा की गई है। क्षत्रियों के प्रसंग में राक्षस तथा पैशाचिक विवाह का समर्थन किया गया है

आठ प्रकार के विवाह के संबंध में जानकारी के लिए आप निम्न आलेख देख सकते हैं –
भारतीय धर्म परंपरा में सोलह संस्कार

चौथा अध्याय

  • मनुस्मृति के चौथे अध्याय में गृहस्थ आश्रम से जुड़े आचार-व्यवहार का रोचक वर्णन किया गया है।  गृहस्थ आश्रम के दौरान किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए और किस प्रकार का आचार-व्यवहार नहीं करना चाहिए इसका उल्लेख इस अध्याय में मिलता है।
  • भोजन, वस्त्र धारण तथा यात्रा आदि के सम्बन्ध में पर्याप्त नियम-निर्देश का उल्लेख किया गया है। दान के विषय में भी पर्याप्त विचार किया गया है। 
  • यज्ञ आदि इष्ट कर्मों का तथा तालाब, कूप, बावडी, प्याऊ आदि पुण्य कर्मों की विधियों का उल्लेख किया गया है।
  • चारों वर्गों के अन्न का स्वरूप भी बतलाया गया है। 

पांचवां अध्याय

  • पांचवें अध्याय में मृत्यु, भक्ष्य, अभक्ष्य, आदि का विचार किया है। 
  • इसमें कहा गया है कि जो व्यक्ति मांस नहीं खाता है, वह लोकप्रिय होता है तथा व्याधियों से पीडित नहीं होता। 
  • किसी पारिवारिक सदस्य की मृत्यु हो जाने के कारण शुद्धि के समस्त विधानों का भी वर्णन किया गया है। 
  • स्त्रियों के अशौच के विषय में भी प्रकाश डाला गया है। 

छठा अध्याय

  • छठे अध्याय में वानप्रस्थ आश्रम के कर्तव्यों का निर्देश किया गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति अपने पौत्र का मुख देख ले और अपने पुत्रों को कार्य में समर्थ देखे तब उसे वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए।
  • वानप्रस्थ आश्रम धारण करने वाले व्यक्ति ग्राम से बाहर रहना चाहिए तथा विधिपूर्वक पंच महायज्ञ का निर्वाह करना चाहिए।
  • वानप्रस्थ आश्रम धारण करने वाले व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उसे मृग चर्म तथा जटा धारण करना चाहिए, वेद अभ्यास करना चाहिए, मान-अपमान में समान रहना चाहिए तथा सभी जीवों पर दया करना चाहिए।

सातवां अध्याय

  • सातवें अध्याय में राजधर्म का विवेचन किया गया है। 
  • राजा में इन्द्र, वरुण, अग्नि, कुबेर आदि देवताओं का निवास माना गया है। 
  • मनु स्मृति में राजा के अपमान का निषेध किया गया है।
  •  इसमें कहा गया है कि प्रजा को दंड के माध्यम से शासित करना आवश्यक है। दंड को विद्वानों के लिए धर्म रूप बतलाया गया है।
  • दूत के कार्यों का सविस्तार उल्लेख भी किया है। 
  • मनुस्मृति में न्यायोचित वेतन तथा कर विधान  का वर्णन किया गया है और उसकी महत्ता को रेखांकित किया गया है। 

आठवां अध्याय

  • आठवें अध्याय में सभा के नियमों का वर्णन किया गया है। 
  • न्यायालय के नियमों को भी सविस्तार बनाया गया है। 
  • असत्य साक्षी देने वाले व्यक्ति को नरकगामी बतलाया गया है। गवाह सत्य से पवित्र होता है। सत्य से धर्म की वृद्धि होती है इस कारण गवाह को सत्याचरण करना चाहिए। 
  • इसमें यात्रा किराया क्रय-विक्रय आदि के विषय में भी नियम-निर्देशन किया गया है।

नौवां अध्याय

  • नौवें अध्याय में स्त्री-पुरुष के धर्म की चर्चा की गई है। 
  • स्त्रियों के विषय मे कहा गया है कि स्त्री की रक्षा बचपन में पिता करता है, युवावस्था में पति करता है तथा वृद्धावस्था में पुत्र करते हैं। अतः स्त्री स्वतन्त्र रहने योग्य नहीं है ।यथा-
    पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
    रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति॥
  • इसमें स्त्रियों के 6 प्रकार के दोषों का उल्लेख किया गया है। यह हैं – मादक द्रव्यों का पान, दुष्टों का संसर्ग, पति का वियोग, इधर-उधर विचरण, असामयिक शमन तथा परगृह में निवास । 
  •  इस अध्याय में दत्तक पुत्र आदि का विधान भी तर्कपूर्वक विवेचित हुआ है। 
  • पैतृक सम्पति के विभाजन के सभी नियमों का भी प्रतिपादन किया गया है। 
  • इस अध्याय में दण्ड विधान का भी वर्णन हुआ है।

दसवां अध्याय

  • दसवें अध्याय में ब्राह्मणों के कार्य तथा क्षेत्र का वर्णन किया गया है। 
  • वर्णसंकर की निन्दा की गई है। 
  • धर्मयुक्त धनागम की सात विधियों का इसमें वर्णन किया गया है।
  • शूद्र को मन्त्रहीन धर्मकार्य करने का निर्देश किया गया है। 
  • शूद्र को धन-संचय करने का अधिकार नहीं दिया गया है।
  • सेवक शूद्र के लिए जूठे अन्नादि को देना उचित माना गया है। 

ग्यारहवां अध्याय 

  • मनु स्मृति के ग्यारहवें अध्याय में स्नातकों के धर्म का यथाविधि उल्लेख हुआ है। 
  • कन्या, विवाहिता युवती, अल्पज्ञ व्यक्ति, मूर्ख, रोगी और यज्ञोपवीत संस्कार से हीन व्यक्तियों को अग्निहोत्र करने का अधिकार नहीं दिया गया है। 
  • यदि कोई ब्राह्मण अग्निहोत्र नहीं करता है तो उसे चान्द्रायण व्रत धारण करने से ही शुद्धि प्राप्त होती है। 
  • सभी प्रकार के प्रायश्चितों का वर्णन विधिपूर्वक किया गया है। 

बारहवां अध्याय

  • बारहवें अध्याय में सत्व, रज तथा तम नामक त्रिगुण का विवेचन किया गया है। 
  • वेदाभ्यास, ज्ञान, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, धर्मकार्य और आत्मचिन्तन सतोगुण के लक्षण हैं। 
  • कर्म में अरुचि होना, अधीरता, शास्त्रवर्जित कर्म का आचरण तथा विषयों में आसक्ति होना रजोगुण के लक्षण हैं। निद्रा, अधैर्य, क्रूरता, नास्तिकता, नित्यकर्म का त्याग, माँगने का स्वभाव होना तथा प्रमाद तमोगुण के लक्षण हैं। 
  • इस अध्याय में स्वर्ग, नरक, मोक्ष तथा आत्मा के विषय में संक्षिप्त विचार किया गया है। 

उपसंहार

‘मनुस्मृति’ एक महान् धर्म-शास्त्रीय ग्रन्थ है परन्तु इस ग्रन्थ में ब्राह्मणवाद का एकछत्र राज है। आधुनिक युग के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सम्मुख ‘मनुस्मृति’ का नारी पारतंत्र्य तथा शूद्र-धर्म नहीं ठहर सकता। सृष्टि रचना के प्रसंग में कुछ अवैज्ञानिकता भी दिखलाई पडती है फिर भी ‘मनुस्मृति’ ने राजदण्ड, शिक्षा, गृहस्य इत्यादि विषयों पर युक्तियुक्त विचार किया है इसी कारण से ‘मनुस्मृति’ का आज भी आदर किया जाता है। मनुस्मृति हिन्दुओं के आचार-विचार का प्रामाणिक प्रतिनिधित्त्व करता है। मनुस्मृति में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चारों पुरुषार्थों का विशद वर्णन किया गया है। 

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2 thoughts on “मनुस्मृति क्या है?”

  1. मनु + स्मृति = मन का लक्ष ,ध्यान ध्येय, उदिस्ट= लेखक भृगु ऋषि

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