महाशिवरात्रि व्रत का महत्व

महाशिवरात्रि व्रत में उपवास और रात्रि जागरण का क्या महत्व है?

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किसी भी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि मानी जाती है। किंतु माघ (फाल्गुन कृष्ण पक्ष) की चतुर्दशी सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है और महाशिवरात्रि कही जाती है। गरूड़, स्कंद, पद्म, अग्नि आदि पुराणों में इसका वर्णन मिलता है। इस देश में जितने प्रकार के पूजा, व्रत, उपवास प्रचलित हैं, उनमें महाशिवरात्रि व्रत के समान महत्ता अन्य किसी की नहीं है। इस वर्ष 18 फरवरी 2023 को महाशिवरात्रि है।

संपूर्ण भारत के स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, प्रौढ़-युवा प्रायः सभी किसी न किसी रूप में महाशिवरात्रि व्रत के अनुष्ठान में रत देखे जाते हैं। बहुतेरे यथाविधि पूजादि न करते हुए भी उपवास करते हैं। जिनकी उपवास में भी रुचि नहीं होती, वे कम से कम रात्रि जागरण करके ही इस व्रत पुण्य का कुछ भाग लेना चाहते हैं। महाशिवरात्रि व्रत का आयोजन उत्सव के रूप में कम व्रत पर्व के रूप में अधिक होता है। 

महाशिवरात्रि व्रत क्यों किया जाता है?

महाशिवरात्रि व्रत शिव पूजा से भिन्न है। व्रत शब्द के निर्वचन से हम समझ सकते हैं कि जीवन में जो वरणीय है अर्थात बार-बार अनुष्ठान के द्वारा मन, वचन, कर्म से जो प्राप्त करने योग्य है, वही व्रत है। 

ईशान संहिता में शिवरात्रि व्रत के सम्बन्ध में कहा है- 

माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।

शिवलिङ्गत्तयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः॥

तत्कालव्यापिनी प्राह्मा शिवरात्रिव्रते तिथिः॥

अर्थात् माघ मास की कृष्ण चतुर्दशी की महानिशा में आदिदेव महादेव कोटि सूर्य के समान दीप्तिसम्पन्न हो शिवलिंग के रूप में आविर्भूत हुए थे, अतएव शिवरात्रि व्रत में उसी महानिशा व्यापिनी चतुर्दशी का ग्रहण करना चाहिये। माघ मास की कृष्ण चतुर्दशी बहुधा फाल्गुन मास में ही पड़ती है। ईशान संहिता के मत से शिव की प्रथम लिंगमूर्ति उक्त तिथि को महानिशा में पृथ्वी से पहले-पहल आविर्भूत हुई थी, इसी के उपलक्ष्य में इस व्रत की उत्पत्ति बतायी जाती है। 

महाशिवरात्रि व्रत का महत्व

महाशिवरात्रि का व्रत किसी के लिए भी निषिद्ध नहीं है। कोई भी व्यक्ति महाशिवरात्रि का व्रत कर सकता है। इस रूप में यह व्रत सभी मनुष्यों के मध्य समता का बोध कराता है। भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करने के उद्देश्य से सभी व्यक्तियों द्वारा महाशिवरात्रि का व्रत किया जाता है। शास्त्रों में भी कहा गया है –

आचाण्डालमनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्। 

शिव रहस्य ग्रंथ में महाशिवरात्रि व्रत की महत्ता का वर्णन करते हुए कहा गया है –

शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम्।

अर्थात शिवरात्रि का व्रत करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

महाशिवरात्रि व्रत की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य यह व्रत करता है उसे भगवान शिव आनंद एवं मोक्ष प्रदान करते हैं। वह व्यक्ति स्वयं शिव हो जाता है। शिव पुराण में वर्णित है कि दान, तप, यज्ञ, तीर्थ, यात्राएं और अन्य व्रत इसके कोटि अंश के बराबर भी नहीं होते हैं।

महाशिवरात्रि व्रत में उपवास की प्रधानता क्यों है?

साधारणतः निराहार रहने को ही ‘उपवास’ कहते हैं। जो कुछ आहरण किया जाता है, संचय किया जाता है, वही आहार है।

आहियते मनसा बुद्धया इन्द्रियैर्वा इति आहारः।

अर्थात मन, बुद्धि अथवा इन्द्रियों के द्वारा जो बाहर से भीतर संगृहीत होता है, उसी का नाम आहार है। स्थूल और सूक्ष्म भेद से यह आहार साधारणतः दो प्रकार का है। मन आदि के द्वारा संगृहीत सूक्ष्म आहार है और पांच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा गृहीत शब्द-स्पर्श-रूपादि स्थूल आहार है। इसके अतिरिक्त हम जिसे ‘आहार’ कहते हैं वह चावल, दाल, व्यञ्जनादि सर्वथा स्थूलतर आहार है। 

‘उपवास’ शब्द का धातुमूलक अर्थ ‘किसीके समीप रहना’ है, सो यहाँ उसका अर्थ ‘शिव के समीप’ होना है। उपवास यदि यथोचित रूप से अनुष्ठित हो तो व्रत के बाह्य अनुष्ठानों में कमी होने पर भी कोई हानि नहीं होती। इसी कारण शिवरात्रि व्रत में ‘उपवास’ ही प्रधान अंग है ।

व्रत-कथा में कहा गया है कि एक बार कैलास शिखर पर स्थित पार्वती जी ने शंकर भगवान से पूछा –

कर्मणा केन भगवन् व्रतेन तपसापि वा।

धर्मार्थकाममोक्षाणां हेतुस्त्वं परितुष्यति॥

अर्थात् हे भगवन्! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस चतुर्वर्ग के आप ही हेतु हैं। साधना से संतुष्ट हो मनुष्य को आप ही इसे प्रदान करते हैं। अतएव यह जानने की इच्छा होती है कि किस कर्म, किस व्रत या किस प्रकार की तपस्या से आप प्रसन्न होते हैं?

इसके उत्तर में भगवान् शंकर कहते हैं – 

फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथिः स्याच्चतुर्दशी। 

तस्यां या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका॥ 

तत्रोपवासं कुर्वाणः प्रसादयति मां ध्रुवम्। 

न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया॥ 

तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः॥

अर्थात फाल्गुन के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को आश्रयकर जिस अन्धकारमयी रजनी का उदय होता है, उसी को ‘शिवरात्रि’ कहते हैं। उस दिन जो उपवास करता है वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है। उस दिन उपवास करने से मैं जैसा प्रसन्न होता हूं वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्प के अर्पण से भी नहीं होता।

उपर्युक्त श्लोक से यह जाना जा सकता है कि इस व्रत का उपवास ही प्रधान अंग है। 

महाशिवरात्रि व्रत की विधि

प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास व्रत रखा जाता है और मिट्टी के बर्तन में जल भरकर ऊपर से बेलपत्र, धतूरे के फूल और अक्षत आदि डालकर शिवजी को चढ़ाया जाता है। यदि आस-पास शिवमूर्ति न हो तो शुद्ध गीली मिट्टी से भी शिवलिंग बनाकर उसका पूजने करने का विधान है। रात को जागरण करके शिवपुराण का पाठ सुनना-सुनाना प्रत्येक व्रती का धर्म माना जाता है। दूसरे दिन प्रातःकाल जौ, तिल, खोर तथा बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है। 

महाशिवरात्रि व्रत के दौरान रात्रि जागरण का विशेष महत्व है। रात्रि के चार प्रहरों में चार बार पृथक्-पृथक् पूजा का विधान भी प्राप्त होता है –

दुग्धेन प्रथमे स्नानं दध्ना चैव द्वितीयके।

तृतीये तु तथाऽऽज्येन चतुर्थे मधुना तथा॥ 

अर्थात प्रथम प्रहर में दुग्ध द्वारा शिव की ईशान मूर्ति को, द्वितीय प्रहर में दधि द्वारा अघोर मूर्ति को, तृतीय में घृत द्वारा वामदेव मूर्ति को एवं चतुर्थ में मधु द्वारा सद्योजात मूर्ति को स्नान कराकर उनका पूजन करना चाहिये। 

चारों प्रहर के अर्ध्य के समय मंत्र अलग-अलग होते हैं। दूसरे, तीसरे और चौथे प्रहर में व्रती को पूजा ,अर्ध्य जप एवं कथा श्रवण करना चाहिए तथा स्तोत्र पाठ करना चाहिए।

प्रभात में विसर्जन के बाद व्रत-कथा सुनकर अमावस्या को यह कहते हुए पारण करना चाहिये – 

संसारक्लेशदग्धस्य व्रतेनानेन शंकर।

प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव॥ 

अर्थात हे शंकर! मैं नित्य संसार की यातना से दग्ध हो रहा हूँ, इस व्रत के माध्यम से आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे प्रभो! संतुष्ट होकर आप मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें। 

महाशिवरात्रि व्रत रात्रि में ही क्यों होता है?

शास्त्रों में दिवस और रात्रि को नित्य-सृष्टि और नित्य-प्रलय कहा गया है। एक से अनेक और कारण से कार्य की ओर जाना ही सृष्टि है और ठीक इसके विपरीत अर्थात् अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना ही प्रलय है । दिन में हमारा मन, प्राण और इन्द्रियाँ हमारे आत्मा के समीप से, भीतर से बाहर के विषयों की ओर दौड़ती हैं और विषयानन्द में ही मग्न रहती हैं। पुनः रात्रि में विषयों को छोड़कर आत्मा की ओर, अनेक को छोड़कर एक की ओर, शिव की ओर प्रवृत्त होती हैं। इसलिए रात्रि ही महाशिवरात्रि व्रत के लिए काल अनुकूल समय है।

ऐसी मान्यता है कि कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को शिव अपने गणों के साथ रात्रि में भ्रमण करते हैं। इसलिए इस रात्रि में शिव की उपासना विशेष फलदायी होती है।

महाशिवरात्रि व्रत कथा

एक बार कैलाश पर स्थित पार्वती जी ने श्रीशिव जी से पूछा – भगवन् ! इस प्रकार का कौन-सा व्रत है, जिसके करने से मनुष्य को आपका सानिध्य प्राप्त हो जाय? 

यह सुनकर महादेव जी ने कहा – फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी का व्रत रखकर प्रदोष काल में मेरा पूजन करके रात्रि को जो मनुष्य जागरण करता है, इसे अनायास ही मेरा सानिध्य प्राप्त हो जाता है। हे पार्वती ! मैं इस सम्बन्ध का एक इतिहास कहता हूँ, सो तुम सावधान होकर सुनो :-

प्रत्यंत देश में एक बहेलिया (व्याध) रहता था, जो प्रतिदिन जीवों को मारकर अपने परिवार का पालन किया करता था। उसने एक साहूकार से कर्ज ले रखा था। समय पर कर्ज वापस न दे सकने के कारण एक दिन साहूकार ने उसे एक शिव-मठ में कैद कर दिया। उस दिन फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी थी, इसलिये मन्दिर में धर्म और व्रत सम्बन्धी कथा- वार्ता होती रही। बहेलिया ध्यान देकर उसको सुनता रहा। आगामी दिन में आनेवाले शिवरात्रि व्रत की कथा को भी उसने सुना। शाम को साहूकार ने उसे इस शर्त पर छोड़ दिया कि कल के दिन तुम हमारा कर्ज अदा कर देना। 

चतुर्दशी को प्रातःकाल नियमानुसार यह बहेलिया अपने नगर से दक्षिण दिशा की ओर गहन वन में पशु मारने के लिए चला गया। परन्तु उस दिन कोई पशु उसे नहीं मिला। तब उसने दिन भर की भूख-प्यास से व्याकुल होकर विचार किया कि आज किसी जलाशय पर रात को बैठना चाहिये। अतः एक जलाशय देखकर उसी के किनारे उसने अपने छिपने के लिये जगह बनाने का निश्चय किया। जलाशय के समीप ही एक बेल का पेड़ था और उसी के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था ।

बहेलिया पेड़ पर चढ़कर बैठ गया और अपनी सुविधा योग्य स्थान बनाने के लिये बेल के पत्ते तोड़-तोड़कर नीचे डालने लगा। नीचे गिरे हुए बेलपत्रों से शिवलिंग ढक गया। बहेलिया दिन भर भूखा रहने के कारण एक प्रकार से शिवरात्रि का मन कर चुका था, उस पर उसके द्वारा शिवजी पर बेलपत्र भी चढ़ गये। इन दोनों कारणों से उसका अतःकरण बहुत कुछ शुद्ध हो गया।

बहेलिया के पेड़ पर बैठे-बैठे जब एक पहर रात बीती, तब एक गर्भवती हिरणी उसको सामने से आती हुई दिखाई पड़ी। किन्तु ज्योंही उसने लक्ष्य करके धनुष पर बाण चढ़ाया, त्योंही हिरणी ने कहा – आप यह क्या अनर्थ करते हैं?

यह सुनकर बहेलिया बोला – यह मेरे लिये कोई नई बात नहीं है। मैं तो सदैव इसी भांति अपने परिवार का पालन-पोषण किया करता हूँ। 

इस पर हिरणी बोली – आपके लिए तो नई बात नहीं है, परन्तु मेरे लिये अवश्य नई है, क्योंकि मैं गर्भिणी हूँ। मेरा प्रसूत-काल भी समीप ही है। यदि आप मुझे इस समय छोड़ देंगे तो मैं प्रसूत बालक को उसके पिता को देकर तुरन्त ही इसी स्थान पर वापस आ जाऊँगी। यदि मैं तुरन्त आपके पास न आऊँ तो कृतन्न को जो पाप लगता है, वह मुझको लगे।

बहेलिया का अंतःकरण व्रत के कारण शुद्ध हो चुका था, अतः उसके ऊपर हिरणी के धार्मिक वचनों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने धनुष पर से बाण उतार लिया और हिरणी के वापस आने की प्रतिज्ञा पर छोड़ दिया। उस हिरणी के चले जाने पर बहेलिया शिव शिव करता हुआ किसी अन्य जानवर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। 

आधी रात हो जाने पर एक दूसरी हिरणी सामने से आती हुई दिखाई दी। बहेलिया ने फिर से धनुष पर बाण चढ़ाया, तो वह हिरणी भी पहली की तरह गिड़गिड़ाकर विनीत भाव से बोली – आप मुझको मारते तो हैं, परन्तु मैं निवृत्त ऋतु वाली हूँ। यदि पति का संयोग होने के पूर्व ही मैं मारी जाऊँगी तो यह अभिलाषा मेरे चित्त में लगी रह जायगी, जिससे मेरा तो अनिष्ट होगा ही, परन्तु यह बात आपके लिये भी शुभ नहीं है। यदि इस समय आप मुझको छोड़ देंगे, तो मैं कल आपके पास अवश्य आ जाऊँगी और जो न आऊँ तो ब्रह्म हत्या के दोषी और शराबी को जो पाप लगता है, वह मुझको भी लगे। 

बहेलिया के हृदय में कुछ ऐसी करुणा और धर्म-वृत्ति जागृत हुई कि उसने उस हिरणी को भी छोड़ दिया।

दूसरी हिरणी के चले जाने पर रात्रि के तीसरे पहर में बहेलिया ने कुछ और बेलपत्र तोड़कर नीचे डाले, जो शिवजी के शीश पर चढ़ गये। बहेलिया शिव शिव कहता हुआ किसी अन्य जन्तु के आने की प्रतीक्षा करने लगा। 

तीसरा पहर व्यतीत होते-होते एक तीसरी हिरणी तीन-चार छोटे-छोटे बच्चों को लिये हुई उसी जलाशय पर आ पहुँची। बहेलिया ने धनुष पर बाण चढ़ाकर उसको मारने की इच्छा की। तभी हिरणी ने बहेलिया से कहा – भगवन्! आपने मुझसे पहले आनेवाले जीवों को तो मारा नहीं, अब मुझको मारकर आप क्यों महापाप के भागी होते हैं। मेरे मरने से ये बच्चे अनाथ हो जायेंगे। मालूम होता है आपने धर्मशास्त्र का अध्ययन नहीं किया है, क्योंकि धर्मशास्त्र में बच्चों वाली स्त्री को सती होने तक की आज्ञा नहीं है। यदि आप मुझे इस समय छोड़ देंगे, तो इन बच्चों को इनके पिता के पास पहुँचाकर और उससे आज्ञा लेकर सवेरे ही मैं आपके पास आ जाऊँगी, जिससे आपको महापाप का प्रायश्चित भी नहीं करना पड़ेगा और मेरा धर्म भी पूरा हो जाएगा। यदि आपको मेरे आने में सन्देह हो, तो मैं शपथपूर्वक कहती हूँ कि मैं अकेली या इन बच्चों को लिए हुए किसी तरह भो सवेरे अवश्य आपके पास आ जाऊँगी। शिव व्रत के कारण उस बहेलिया ने उस हिरणी की बात पर भी विश्वास कर लिया और उसे जाने दिया ।

प्रातःकाल से कुछ ही पूर्व एक बड़ा और बलिष्ठ मृग उसी जलाशय पर आ पहुँचा। उसको देखते ही बहेलिया ने अति प्रसन्न होकर धनुष पर बाण चढ़ाया। यह देखकर हिरण बोला – बहेलिया! यदि मेरे पहले आने वाली तीनों हिरणियों को आपने मार डाला है तो मेरे सब मनोरथों पर पानी फिर गया है और मेरा जीवन निरर्थक हो गया है, अतः कृपा कर आप मुझे भी शीघ्र ही मार डालिये, जिससे उन मृत हिरणियों का दुःख मुझको न हो। 

बहेलिया ने हिरण की प्रेम भरी बात सुनकर रात की हिरणियों वाली सब घटना कह सुनाई। जिसे सुनकर हिरण ने कहा – आप व्याध हैं, मैं हिरण। अतः मेरा आपका सम्बन्ध अवश्य है, परन्तु मैं तीनों हिरणियों का पति हूं और वे मेरी ही खोज में फिर रही हैं। यदि आप मुझको मार डालेंगे, तो वे जिस उद्देश्य से आपसे प्रतिज्ञा करके गई हैं, यह सब विफल हो जायेगा और आपने जिस उद्देश्य से उनको छोड़ा है वह भी पूर्ण न होगा। अतः जिस धार्मिक भाव से आपने उनकी शपथ को सत्य मानकर उनको छोड़ दिया है, उसी भाव से थोड़ी देर के लिये मुझको भी आज्ञा दीजिये, तो मैं उन सबसे मिलकर और उन सबको साथ लेकर इसी स्थान पर चला आऊँगा। 

शिवरात्रि व्रत के प्रभाव से बहेलिया का हृदय विशेष कोमल और शुद्ध हो गया था, अतः उसने हिरण को भी जाने दिया। हिरण के चले जाने पर सवेरा होते ही वह बेल के वृक्ष से नीचे उतरा। उतरने के क्रम में कुछ और भी बेलपत्र शिवजी पर आप ही आप चढ़ गये, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने उसके हृदय को ऐसा निर्मल और पवित्र कर दिया कि वह अपने पहले किए गए हिंसात्मक कर्मों से घृणा करके अत्यंत पश्चाताप पूर्वक बोला – यदि अब वे हिरण व हिरणी आ भी जायँ, तो भी मैं उनको नहीं मारूँगा।

उधर वह हिरण अपने परिवार के पास पहुँच गया और सब हिरणियों से मिलकर तथा समस्त आवश्यक कार्यों को निबटाकर बोला – प्रिये ! यह संसार तो क्षणभंगुर है, परन्तु सत्य सदा स्थिर रहने वाला पदार्थ है। योगीजन जिसके लिए सहस्रावधि साधना करते हैं, वह ब्रह्म भी सत्य स्वरूप ही है। कदाचित् इस असत्य शरीर से सत्य ऐसा अमूल्य रत्न प्राप्त हो जाय, तो इससे बढ़कर प्राणी मात्र के लिये और क्या हो सकता है, अतः हमारे लिए विलम्ब करना उचित नहीं। यथासंभव शीघ्र ही बहेलिया के पास चलना चाहिये। 

अपने वचन के पालन के लिए जब हिरण और हिरणियां परिवार से विदा होकर बहेलिया के पास पहुंचे तो बहेलिया को पशुओं के सत्यव्रत पालन का व्यवहार देखकर अपने जीवन के घृणित व्यवहार का एहसास हुआ। शिवरात्रि व्रत के कारण धार्मिक वृत्तियों के जाग्रत होने से वह अति कातर होकर रोने लगा। इस प्रकार पारस्परिक धार्मिक वृत्तियों की उन्नति देखकर शिवजी ने उन सबों को अपने लोक में बुला लिया।

बसंत ऋतु में पड़ने वाला महाशिवरात्रि व्रत यद्यपि उल्लास और मदनोत्सव का ही प्रतीक है किंतु यह व्रत उपासना और साधना के अधिक निकट है। जिसके द्वारा शाश्वत आनंद की प्राप्ति होती है।

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