महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा

शिव को महाकाल क्यों कहा जाता है?

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भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का स्थान तीसरा है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में क्षिप्रा नदी के तट पर पवित्र उज्जैन नगर में स्थित है। उज्जैन का पुराणों और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में ‘उज्जयिनी’ तथा ‘अवन्तिकापुरी’ के नाम से उल्लेख किया गया है। अवन्तिकापुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है –

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग भारत का एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है जो दक्षिणमुखी है। शास्‍त्रों में कहा गया है कि दक्षिण दिशा के स्वामी स्वयं भगवान यमराज हैं। जो भी व्‍यक्‍ति इस मंदिर में आकर भगवान शिव की सच्‍चे मन से प्रार्थना करता है, उसे मृत्‍यु उपरांत यमराज द्वारा दी जाने वाली यातनाओं से मुक्‍ति मिलती है। 12 ज्योतिर्लिंगों में से महाकाल ही एकमात्र सर्वोत्तम ज्योतिर्लिंग है।

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम्।

भूलोके च महाकालो लिंड्गत्रय नमोस्तुते।।

अर्थात आकाश में तारक शिवलिंग, पाताल में हाटकेश्वर शिवलिंग तथा पृथ्वी पर महाकालेश्वर ही मान्य शिवलिंग है। इसलिए महाकालेश्वर को पृथ्वी का अधिपति भी माना जाता है अर्थात वे ही संपूर्ण पृथ्वी के एकमात्र राजा हैं। और संपूर्ण पृथ्वी के राजा भगवान महाकाल यहीं से पृथ्वी का भरण-पोषण करते हैं।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति (पौराणिक कथा) 

अत्यंत सुंदर और परम पुण्यदायिनी और कल्याणकारिणी नगरी अवन्ति (उज्जैन) भगवान शिव जी को अत्यन्त प्रिय है। उसी पवित्र नगर में शुभ कर्मपरायण तथा सदा वेदों के स्वाध्याय में लगे रहने वाले एक उत्तम ब्राह्मण रहा करते थे। वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे। वे सदा शिव जी की अर्चना-वन्दना में तत्पर रहा करते थे। वे प्रतिदिन पार्थिव लिंग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे। हमेशा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने में तत्पर उस ब्राह्मण का नाम ‘वेदप्रिय’ था। वेदप्रिय स्वयं ही शिव जी के अनन्य भक्त थे, जिसके संस्कार के फलस्वरूप उनके शिव पूजा-परायण ही चार पुत्र हुए। वे तेजस्वी तथा माता-पिता के सद्गुणों के अनुरूप थे। उन चारों पुत्रों के नाम ‘देवप्रिय’, ‘प्रियमेधा’, ‘सुकृत’ और ‘सुव्रत’ थे।

उस समय रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक असुर रहता था। वह बलवान असुर धर्म से द्वेष करता था। ब्रह्मा जी से वरदान पाकर वह जगत को तुच्छ समझने लगा और उसने देवताओं को हराकर उनको उनके स्थानों से निकाल दिया।

सबको सताने के बाद अन्त में उस असुर ने भारी सेना लेकर अवन्ति के उन पवित्र और कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी। उस असुर की आज्ञा से चार भयानक दैत्य चारों दिशाओं में प्रलयकाल की आग के समान प्रकट हो गये। उनके भयंकर उपद्रव से भी शिव जी पर विश्वास करने वाले वे ब्राह्मणबन्धु भयभीत नहीं हुए। अवन्ति नगर के निवासी सभी ब्राह्मण जब उस संकट में घबराने लगे, तब उन चारों शिवभक्त भाइयों ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- आप लोग भक्तों के हितकारी भगवान शिव पर भरोसा रखें। उसके बाद वे चारों ब्राह्मणबन्धु शिव जी का पूजन कर उनके ही ध्यान में तल्लीन हो गये।

सेना सहित दूषण ध्यानमग्न उन ब्राह्मणों के पास पहुँच गया। उन ब्राह्मणों को देखते ही ललकारते हुए बोल उठा कि इन्हें बाँधकर मार डालो। उन ब्राह्मण पुत्रों ने उस दैत्य के द्वारा कही गई बातों पर ध्यान न देकर शिव की भक्ति में मग्न रहे। उनकी भक्ति से क्रोधित होकर असुर ने ब्राह्मणों को मार डालने का निश्चय किया।

उसने ज्योंही उन शिवभक्तों के प्राण लेने हेतु शस्त्र उठाया, त्योंही उनके द्वारा पूजित उस पार्थिव लिंग की जगह  तेज गर्जना के साथ एक गड्ढा प्रकट हो गया और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। दुष्टों का विनाश करने वाले तथा सज्जन पुरुषों के कल्याणकर्त्ता वे भगवान शिव ही महाकाल के रूप में इस पृथ्वी पर विख्यात हुए। उन्होंने दैत्यों से कहा- अरे दुष्टो! तुझ जैसे हत्यारों के लिए ही मैं ‘महाकाल’ प्रकट हुआ हूँ। जल्दी इन ब्राह्मणों के समीप से दूर भाग जाओ।

इस प्रकार धमकाते हुए महाकाल भगवान शिव ने अपने हुँकार मात्र से ही उन दैत्यों को भस्म कर डाला। दूषण की कुछ सेना को भी उन्होंने मार गिराया और कुछ स्वयं ही भाग खड़ी हुई। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। जिस प्रकार सूर्य के निकलते ही अन्धकार छँट जाता है, उसी प्रकार भगवान आशुतोष शिव को देखते ही सभी दैत्य सैनिक पलायन कर गये। उन शिवभक्त ब्राह्मणों पर अति प्रसन्न भगवान शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा – मैं महाकाल महेश्वर तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ, तुम लोग वर मांगो।

महाकालेश्वर की वाणी सुनकर भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहा – दुष्टों को दण्ड देने वाले महाकाल! शम्भो! आप हम सबको इस संसार-सागर से मुक्त कर दें। हे भगवान शिव! आप आम जनता के कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए विराजिए। 

भगवान शंकर ने उन ब्राह्माणों को सद्गति प्रदान की और अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए उस गड्ढे में स्थित हो गये। उस गड्ढे के चारों ओर की लगभग तीन-तीन किलोमीटर भूमि लिंग रूपी भगवान शिव की स्थली बन गई। ऐसे भगवान शिव इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की माहात्म्य कथा

उज्जयिनी नगरी में महान शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय चन्द्रसेन नामक एक राजा थे। उन्होंने शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन कर उनके रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया था। उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के पार्षदों (गणों) में अग्रणी (मुख्य) मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के मित्र बन गये। मणिभद्र जी ने एक बार राजा पर अतिशय प्रसन्न होकर राजा चन्द्रसेन को चिन्तामणि नामक एक महामणि प्रदान की। वह महामणि कौस्तुभ मणि और सूर्य के समान देदीप्यमान (चमकदार) थी। उस महामणि को देखने, सुनने तथा ध्यान करने पर भी मनुष्यों का मंगल प्रदान होता था।

राजा चनद्रसेन के गले में अमूल्य चिन्तामणि शोभा पा रही है, यह जानकार सभी राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया। चिन्तामणि को प्राप्त करने के लोभ से सभी राजाओं ने मिलकर चतुरंगिणी सेना तैयार की और उज्जयिनी पर आक्रमण कर दिया। सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया। अपनी पुरी को चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरी देखकर राजा चन्द्रसेन महाकालेश्वर भगवान शिव की शरण में पहुँच गये। वे निश्छल मन से दृढ़ निश्चय के साथ उपवास-व्रत  करते हुए भगवान महाकाल की आराधना में जुट गये।

उन दिनों उज्जयिनी में एक विधवा ग्वालिन रहती थी, जिसको इकलौता पुत्र था। वह इस नगरी में बहुत दिनों से रहती थी। वह अपने उस पाँच वर्ष के बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने हेतु गई। उसने देखा कि राजा चन्द्रसेन वहाँ बड़ी श्रद्धा-भक्ति से महाकाल की पूजा कर रहे हैं। राजा के शिव पूजन का महोत्सव उसे बहुत ही आश्चर्यमय लगा। उसने पूजन को निहारते हुए भक्ति भावपूर्वक महाकाल को प्रणाम किया और अपने निवास स्थान पर लौट गयी। उस ग्वालिन माता के साथ उसके बालक ने भी महाकाल की पूजा का कौतूहलपूर्वक अवलोकन किया था। इसलिए घर वापस आकर उसने भी शिव जी का पूजन करने का विचार किया। वह एक सुन्दर सा पत्थर ढूँढ़कर लाया और अपने निवास से कुछ ही दूरी पर किसी अन्य के निवास के पास एकान्त में रख दिया।

उसने अपने मन में निश्चय करके उस पत्थर को ही शिवलिंग मान लिया। वह शुद्ध मन से भक्ति भावपूर्वक मानसिक रूप से गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य और अलंकार आदि जुटाकर, उनसे उस शिवलिंग की पूजा की। सुन्दर-सुन्दर पत्तों तथा फूलों से बार-बार पूजन के बाद उस बालक ने बार-बार भगवान के चरणों में मस्तक लगाया। बालक का चित्त भगवान के चरणों में आसक्त था और वह विह्वल होकर उनको दण्डवत कर रहा था। उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए अपने पुत्र को प्रेम से बुलाया। उधर उस बालक का मन शिव जी की पूजा में रमा हुआ था, जिसके कारण वह बाहर से बेसुध था। माता द्वारा बार-बार बुलाने पर भी बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई और वह भोजन करने नहीं गया तब उसकी माँ स्वयं उठकर वहाँ आ गयी।

माँ ने देखा कि उसका बालक एक पत्थर के सामने आँखें बन्द करके बैठा है। वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार खींचने लगी पर इस पर भी वह बालक वहाँ से नहीं उठा, जिससे उसकी माँ को क्रोध आया और उसने उसे खूब पीटा। इस प्रकार खींचने और मारने-पीटने पर भी जब वह बालक वहाँ से नहीं हटा, तो माँ ने उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। बालक द्वारा उस शिवलिंग पर चढ़ाई गई सामग्री को भी उसने नष्ट कर दिया। क्रोध में आगबबूला हुई वह ग्वालिन अपने बेटे को डाँट-फटकार कर पुनः अपने घर चली गई। जब उस बालक ने देखा कि भगवान शिव जी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तब वह बिलख-बिलख कर रोने लगा। भगवान शिव को पुकारता हुआ वह सहसा बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। 

कुछ देर बाद जब उसे चेतना आयी, तो जो दृश्य उसने देखा, उससे वह आश्चर्य में पड़ गया। भगवान शिव की कृपा से उस स्थान पर महाकाल का दिव्य मन्दिर खड़ा हो गया था। मणियों के चमकीले खम्भे उस मन्दिर की शोभा बढा रहे थे। वहाँ के भूतल पर स्फटिक मणि जड़ दी गयी थी। दमकते हुए स्वर्ण-शिखर उस शिवालय को सुशोभित कर रहे थे। उस मन्दिर के विशाल द्वार, मुख्य द्वार तथा उनके कपाट सुवर्ण निर्मित थे। उस मन्दिर के सामने नीलमणि तथा हीरे जड़े बहुत से चबूतरे बने थे। उस भव्य शिवालय के भीतर मध्य भाग में (गर्भगृह) भगवान शिव का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित हुआ था।

ग्वालिन के उस बालक ने शिवलिंग को बड़े ध्यानपूर्वक देखा। उसके द्वारा चढ़ाई गई सभी पूजन-सामग्री उस शिवलिंग पर सुसज्जित पड़ी हुई थी। उस शिवलिंग को तथा उसपर उसके ही द्वारा चढ़ाई पूजन-सामग्री को देखते-देखते वह बालक उठ खड़ा हुआ। उसे मन ही मन आश्चर्य तो बहुत हुआ, किन्तु वह परमानन्द सागर में गोते लगाने लगा। उसके बाद उसने शिव जी की ढेर सारी स्तुतियाँ कीं और बार-बार अपने मस्तक को उनके चरणों में लगाया।

उसके बाद जब शाम हो गयी, तो सूर्यास्त होने पर वह बालक शिवालय से निकल कर बाहर आया और अपने निवास स्थल को देखने लगा। उसका निवास देवताओं के राजा इन्द्र के समान शोभा पा रहा था। वहाँ सब कुछ सुवर्णमय हो गया था, जिससे वहाँ की विचित्र शोभा हो गई थी। परम उज्ज्वल वैभव से सर्वत्र प्रकाश हो रहा था। वह बालक सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन्न उस घर के भीतर प्रविष्ट हुआ। उसने देखा कि उसकी माता एक मनोहर पलंग पर सो रही हैं। उसके अंगों में बहुमूल्य रत्नों के अलंकार शोभा पा रहे हैं। आश्चर्य और प्रेम में विह्वल उस बालक ने अपनी माता को बड़े ज़ोर से उठाया। उसकी माता भी भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर चुकी थी। जब उस ग्वालिन ने उठकर देखा, तो उसे सब कुछ अपूर्व विलक्षण सा देखने को मिला। उसके आनन्द का ठिकाना न रहा। उसने भावविभोर होकर अपने पुत्र को छाती से लगा लिया।

अपने बेटे के मुख से शिव की कृपा का सम्पूर्ण वर्णन सुनकर उस ग्वालिन ने राजा चन्द्रसेन को सूचित किया। निरन्तर भगवान शिव के भजन-पूजन में लगे रहने वाले राजा चन्द्रसेन अपना नित्य-नियम पूरा कर रात्रि के समय पहुँचे। उन्होंने भगवान शंकर को सन्तुष्ट करने वाले ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव देखा। 

उज्जयिनी को चारों ओर से घेर कर युद्ध के लिए खड़े उन राजाओं ने भी गुप्तचरों के मुख से प्रात:काल उस अद्भुत वृत्तान्त को सुना। इस विलक्षण घटना को सुनकर सभी नरेश आश्चर्यचकित हो उठे। उन राजाओं ने आपस में मिलकर पुन: विचार-विमर्श किया। परस्पर बातचीत में उन्होंने कहा कि राजा चन्द्रसेन महान् शिवभक्त हैं, इसलिए इन पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। ये सभी प्रकार से निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनी का पालन-पोषण करते हैं। जब इस नगरी का एक छोटा बालक भी ऐसा शिवभक्त है, तो राजा चन्द्रसेन का महान् शिवभक्त होना स्वाभाविक ही है।

ऐसे राजा के साथ विरोध करने पर निश्चय ही भगवान शिव क्रोधित हो जाएँगे। शिव के क्रोध करने पर तो हम सभी नष्ट ही हो जाएँगे। इसलिए हमें इस नरेश से दुश्मनी न करके मेल-मिलाप कर लेना चाहिए, जिससे भगवान महेश्वर की कृपा हमें भी प्राप्त होगी। युद्ध के लिए उज्जयिनी को घेरे उन राजाओं का मन भगवान शिव के प्रभाव से निर्मल हो गया और शुद्ध हृदय से सभी ने हथियार डाल दिये। उनके मन से राजा चन्द्रसेन के प्रति बैर भाव निकल गया और उन्होंने महाकालेश्वर का पूजन किया।

उसी समय परम तेजस्वी श्री हनुमान वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने गोप-बालक को अपने हृदय से लगाया और राजाओं की ओर देखते हुए कहा – राजाओ! तुम सब लोग तथा अन्य देहधारीगण भी ध्यानपूर्वक हमारी बातें सुनें। मैं जो बात कहूँगा उससे तुम सब लोगों का कल्याण होगा। 

उन्होंने बताया कि शरीरधारियों के लिए भगवान शिव से बढ़कर अन्य कोई गति नहीं है अर्थात महेश्वर की कृपा-प्राप्ति ही मोक्ष का सबसे उत्तम साधन है। यह परम सौभाग्य का विषय है कि इस गोप कुमार ने शिवलिंग का दर्शन किया और उससे प्रेरणा लेकर स्वयं शिव की पूजा में प्रवृत्त हुआ। यह बालक किसी भी प्रकार का लौकिक अथवा वैदिक मन्त्र नहीं जानता है, किन्तु इसने बिना मन्त्र का प्रयोग किये ही अपनी भक्ति निष्ठा के द्वारा भगवान शिव की आराधना की और उन्हें प्राप्त कर लिया। यह बालक अब गोप वंश की कीर्ति को बढ़ाने वाला तथा उत्तम शिवभक्त हो गया है। भगवान शिव की कृपा से यह इस लोक के सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करेगा और अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। इसी बालक के कुल में इससे आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नन्द उत्पन्न होंगे और उनके यहाँ ही साक्षात नारायण का प्रादुर्भाव होगा। भगवान नारायण ही नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होकर श्रीकृष्ण के नाम से जगत् में विख्यात होंगे। यह गोप बालक भी, जिस पर कि भगवान शिव की कृपा हुई है, ‘श्रीकर’ गोप के नाम से विशेष प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।

इस प्रकार महाकाल नामक यह शिवलिंग शिवभक्तों का परम आश्रय है, जिसकी पूजा से भक्त-वत्सल महेश्वर शीघ्र प्रसन्न होते हैं। ये भगवान शिव दुष्टों के संहारक हैं, इसलिए इनका नाम ‘महाकाल’ है। ये काल अर्थात मृत्यु को भी जीतने वाले हैं, इसलिए इन्हें ‘महाकालेश्वर’ कहा जाता है। 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर का स्वरूप 

हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों, पुराणों और महाभारत में इस मंदिर की संरचना और महत्व का बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। भारत के महान कवि कालिदास ने भी अपनी रचनाओं में इसका बहुत ही अद्भुत वर्णन किया है। 18वीं शताब्दी में मालवा पर मराठों का अधिपत्य हो गया। इसके पश्चात पेशवा बाजीराव प्रथम ने उज्जैन के प्रशासन की जिम्मेवारी राणोजी शिंदे को सौंप दी। राणोजी शिंदे के दीवान सुखटंकर रामचंद्र बाबा शैणवी ने महाकालेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था।

उज्जैन स्थित महाकाल ज्योतिर्लिंग का भव्य मन्दिर पाँच मंजिल वाला है तथा क्षिप्रा नदी से कुछ दूरी पर रुद्र सागर झील के तट पर अवस्थित है। वर्तमान में जो महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग है, वह तीन खंडों में विभाजित है। निचले खंड में महाकालेश्वर, मध्य खंड में ओंकारेश्वर तथा ऊपरी खंड में श्री नागचन्द्रेश्वर मंदिर स्थित है। नागचन्द्रेश्वर शिवलिंग के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही करने दिए जाते हैं। मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुंड है जिसे कोटि तीर्थ कुंड के नाम से भी जाना जाता है।

महाकालेश्वर मंदिर विशाल प्राचीन परकोटे के अन्दर स्थित है। यह मंदिर परकोटे के गर्भगृह में बना हुआ। इसमें गर्भगृह तक जाने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता बना हुआ है। इसके अलग-अलग हिस्सों में भगवान शिव को भिन्न-भिन्न रूपों में दर्शाया गया है। मंदिर का क्षेत्रफल लगभग 150 वर्गमीटर और ऊंचाई 29 मीटर है।

दर्शनार्थियों को पंक्ति में होकर सरोवर के किनारे-किनारे से ऊपर की मंजिल पर जाना पड़ता है। वहाँ से संकरी गली की सीढ़ियाँ उतरकर मन्दिर की निचले सतह पर आना पड़ता है जहाँ भूतल पर महाकालेश्वर का ज्योतिर्लिंग स्थापित है। यह शिवलिंग समतल भूमि से भी कुछ नीचे है।

यहाँ के रामघाट और कोटितीर्थ नामक कुण्डों में भी स्नान किया जाता है तथा पितरों का श्राद्ध भी विहित है अर्थात यहाँ पितृश्राद्ध करने का भी विधान है। इन कुण्डों के पास ही अगस्त्येश्वर, कोढ़ीश्वर, केदारेश्वर तथा हरसिद्धि देवी आदि का दर्शन श्रद्धालुओं द्वारा किया जाता है।

महाकालेश्वर मंदिर को अत्यन्त पुण्यदायी माना जाता है। कहा जाता है कि महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप समाप्त हो जाते हैं। इसके दर्शन करने मात्र से अकाल मृत्यु से मुक्ति व मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपासना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर समय सारणी 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर समय सारणी

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर की भस्म आरती

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रात:काल की पूजा में अनिवार्य रूप से सवा मन चिता की भस्म सम्मिलित की जाती है। चिता की भस्म से विभूषित महाकालेश्वर का दर्शन अत्यन्त पुण्यदायी होता है। यह आरती सुबह भोर होने से पहले 3 बजे होती है। मान्यता के अनुसार भस्म आरती भगवान शिव को जगाने के लिए होती है। भगवान के अनुष्ठान में हवन कुंड से ली पवित्र राख से भस्म आरती होती है। 

ऐसी भी मान्यता है क‌ि वर्षों पहले श्मशान से लायी गयी ताजा मुर्दे की भस्म से भूतभावन भगवान महाकाल की भस्‍म आरती होती थी लेक‌िन अब यह परंपरा खत्म हो चुकी है। वर्तमान में महाकाल की भस्‍म आरती में कपिला गाय के गोबर से बने कंडे, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर की लकड़‌ियों को जलाकर तैयार क‌िए गए भस्‍म का प्रयोग क‌िया जाता है।

महाकाल की आरती भस्‍म से होने के पीछे ऐसी मान्यता है क‌ि महाकाल श्मशान के साधक हैं और यही इनका श्रृंगार और आभूषण है। महाकाल की पूजा में भस्‍म का व‌िशेष महत्व है और यही इनका सबसे प्रमुख प्रसाद है। ऐसी धारणा है क‌ि श‌िव के ऊपर चढ़े हुए भस्‍म का प्रसाद ग्रहण करने मात्र से रोग-दोष से मुक्त‌ि म‌िलती है।

इस आरती का एक न‌ियम यह भी है क‌ि इसे मह‌िलाएं नहीं देख सकती हैं इसल‌िए आरती के दौरान कुछ समय के ल‌िए मह‌िलाओं को घूंघट करना पड़ता है। आरती के दौरान पुजारी एक वस्‍त्र धोती में होते हैं। इस आरती में अन्य वस्‍त्रों को धारण करने का न‌ियम नहीं है।

अन्य तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल

महाकाल का दर्शन करने के बाद ‘जूना महाकाल’ का दर्शन जरूर करना चाहिए। लोक मान्यता के अनुसार जब मुगलकाल में इस शिवलिंग को खंडित करने की आशंका बढ़ी तो पुजारियों ने इसे छुपा दिया था और इसकी जगह दूसरा शिवलिंग रखकर उसकी पूजा करने लगे थे। बाद में उन्होंने उस शिवलिंग को वहीं महाकाल के प्रांगण में अन्य जगह स्थापित कर दिया जिसे आज ‘जूना महाकाल’ कहा जाता है। हालांकि ऐसी भी मान्यता है कि असली शिवलिंग को क्षरण से बचाने के लिए ऐसा किया गया।

काल भैरव मंदिर, राम घाट, वृद्धकालेश्वर मंदिर, गडकालिका मंदिर, श्री राम जानकी मंदिर, हरिसिद्धि देवी मंदिर, गणेश मंदिर, गोमती कुण्ड, मंगलनाथ मंदिर, संदीपनी आश्रम, श्री चार धाम मंदिर, सर्वेश्वर महादेव, अंगारेश्वर महादेव, गोपाल मंदिर इत्यादि यहां के अन्य तीर्थ स्थल हैं। 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर कैसे पहुंचें

रेलमार्ग द्वारा यात्रा – उज्जैन में रेल मार्ग की सुविधा है। यहां विक्रम नगर, चिंतामन और उज्जैन सिटी जंक्शन नामक तीन मुख्य रेलवे स्टेशन है। देश के विभिन्न शहरों से इन स्टेशनों के लिए ट्रेनें आती हैं। उज्जैन रेलवे स्टेशन से महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर तक रोपवे बनाने की योजना भी प्रस्तावित है।

सड़क मार्ग द्वारा यात्रा – उज्जैन अच्छी तरह से विभिन्न शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। सार्वजनिक परिवहन और निजी वाहनों के माध्यम से सड़क मार्ग द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।

हवाई जहाज द्वारा यात्रा – उज्जैन से 42 किलोमीटर की दूरी पर इंदौर स्थित देवी अहिल्‍याबाई होलकर हवाई अड्डा है। उज्जैन में अभी सिर्फ हवाई पट्टी है जिस पर छोटे विमान या हेलीकॉप्टर लैंड किए जा सकते हैं। इस हवाई पट्टी को विस्तारित कर हवाई अड्डा बनाने की योजना प्रस्तावित है।

उज्जैन का कालगणना महत्व

खगोलशास्त्रियों के अनुसार उज्जैन की भौगोलिक स्थिति विशिष्ट है। यह नगरी पृथ्वी और आकाश की सापेक्षता में ठीक मध्य में स्थित है। भौगोलिक गणना के अनुसार प्राचीन आचार्यों ने उज्जैन को शून्य रेखांश पर माना है। कर्क रेखा भी यहीं से गुजरती है। देशांतर रेखा और कर्क रेखा यहीं एक–दूसरे को काटती है। उज्जैन की अपनी इस भौगोलिक स्थिति के कारण प्राचीनकाल के खगोलशास्त्रियों ने कालगणना का केंद्रबिंदु माना था और यहीं से संपूर्ण भारत ही नहीं, दुनिया का समय भी निर्धारित होता था। राजा जयसिंह द्वारा स्थापित वेधशाला आज भी इस नगरी को कालगणना के क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध करती है।

स्कंदपुराण के अनुसार ‘कालचक्र प्रवर्तकों महाकाल: प्रतायन:।‘ इस प्रकार महाकालेश्वर को कालगणना का प्रवर्तक भी माना गया है। प्राचीन भारत की समय गणना का केंद्रबिंदु होने के कारण ही काल के आराध्य महाकाल हैं। वराहपुराण में उज्जैन को शरीर का नाभि देश और महाकालेश्वर को अधिष्ठाता कहा गया है। भारत के मध्य में स्थित होने के कारण उज्जैन को नाभिप्रदेश अथवा मणिपुर चक्र भी माना गया है।

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