कल्कि अवतार की कथा

भगवान विष्णु के कल्कि अवतार की कथा

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भगवान विष्णु के 10 अवतारों में से भगवान कल्कि 10वें और अंतिम अवतार हैं। भगवान विष्णु के 10 अवतारों में से 9 अवतारों का जन्म हो चुका है जबकि कल्कि का अवतार लेना अभी शेष है। कल्कि अवतार की कथा का वर्णन विभिन्न हिंदू धर्म ग्रंथों में मिलता है उसमें प्रमुख हैं – श्रीमद्भागवत गीता, विष्णु पुराण, हरिवंश पुराण, भागवत पुराण, कल्कि पुराण और गीत गोविंद इत्यादि। 

कल्कि का सामान्य अर्थ है – सफेद घोड़ा,  काला युग, अनंत काल। ऐसी मान्यता है कि कलियुग में जब अधर्म अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाएगा तब भगवान विष्णु कल्कि का अवतार धारण करेंगे और धर्म युग की स्थापना करेंगे। शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि जब भगवान कल्कि देवदत्त नाम के घोड़े पर आरूढ़ होकर अपनी चमचमाती तलवार के द्वारा दुष्टों का संहार करेंगे तब कलयुग की समाप्ति होगी और सतयुग का आरंभ होगा। विदित हो कि भगवान श्री कृष्ण के बैकुंठ जाने के बाद कलयुग की शुरुआत हुई थी।

पुराणों में वर्णित कल्कि अवतार की कथा

कल्कि पुराण में वर्णित कथा के अनुसार जब कलियुग में धर्म की हानि अपने चरम पर पहुंच गई तो देवता गण परेशान हो गए। दुखी होकर सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी उन सभी देवताओं को लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें देवताओं के दुख की गाथा कही। 

उनके दुख को सुनकर भगवान विष्णु ने कहा कि मैं संभल ग्राम में विष्णुयश के यहां उनकी पत्नी सुमित के गर्भ से उत्पन्न होऊंगा। मेरी प्रिया लक्ष्मी सिंहल दीप के महाराज बृहद्रथ की रानी कौमुदी के गर्भ से उत्पन्न होगी। उसका नाम पद्मा होगा। मरु और देवापि नामक दो राजाओं को भी पृथ्वी पर उत्पन्न करूंगा।

कल्कि पुराण में वर्णित घटनाएं अभी घटित नहीं हुई हैं बल्कि यह कलियुग और सतयुग के संधिकाल में घटित होंगी। लेकिन कल्कि अवतार की कथा का वर्णन इस रूप में किया गया है जैसे यह घटित हो चुका है।

भगवान कल्कि कौन हैं?

  • जन्म स्थान – संभल ग्राम
  • जन्म काल – कलयुग और सतयुग के संधि काल में
  • पिता – विष्णुयश 
  • माता – सुमति
  • भाई – सुमंत्रक, प्राज्ञ और कवि 
  • पुरोहित – महर्षि याज्ञवल्क्य 
  • गुरु – भगवान परशुराम 
  • पत्नियां – लक्ष्मीरूपी पद्मा और वैष्णवीरूपी रमा 
  • पुत्र – जय, विजय, मेघमाल, बलाहक 
  • घोड़े का नाम – देवदत्त
  • मंदिर प्राचीन कल्कि विष्णु मंदिर उत्तर प्रदेश के संभल जिले

भगवान कल्कि का जन्म

श्रीमद्भागवत महापुराण के 12वें स्कंद में भगवान कल्कि के संबंध में कहा गया है कि –

सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।

भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति।।

अर्थात सम्भल ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार और भगवतभक्ति पूर्ण होगा। उन्हीं के घर कल्कि भगवान अवतार ग्रहण करेंगे।

पौराणिक मान्यता के अनुसार कलयुग की कुल अवधि 432000 वर्ष की है। अभी कलयुग अपने प्रथम चरण में ही है। अभी लगभग 5000 वर्ष की ही अवधि ही व्यतीत हुई है।

शास्त्रों के अनुसार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवान विष्णु का कल्कि अवतार होगा। इस कारण इस तिथि को कल्कि जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गुरु, सूर्य और चंद्रमा एक साथ पुष्य नक्षत्र में होंगे।

भगवान कल्कि 64 कलाओं से पूर्ण होंगे। इस प्रकार वे निष्कलंक अवतार होंगे। इस कारण उन्हें भगवान श्री विष्णु के निष्कलंक अवतार के रूप में भी जाना जाएगा।

कल्कि पुराण में वर्णित है कि भगवान कल्कि के अवतार धारण करने से पहले ही इनके तीन भाई उत्पन्न हो चुके हैं जिनके नाम कवि, प्राज्ञ और सुमंत्रक हैं। कृष्ण जन्म के समान ही कल्कि के जन्म लेने पर वसुंधरा से दुग्ध सुधा की धारा प्रवाहित होने लगी। संभल ग्राम के सभी दुख दूर हो गए।

जन्म के समय भगवान कल्कि चार भुजाधारी रूप में थे लेकिन ब्रह्मा जी के संदेश को प्राप्त कर मनुष्य रूप में आ गए। प्रभु की माया से मोहित हुए माता-पिता ने समझा कि भ्रम से ही हमने अपने पुत्र की चार भुजा देखी है।

भगवान के शिशु रूप का दर्शन करने के लिए परशुराम, कृपाचार्य, वेदव्यास, द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा भिक्षुक वेश में वहां पधारे। 

भगवान कल्कि की शिक्षा

भगवान कल्कि को वेद, ब्राह्मण एवं अन्य धर्म ग्रंथों की आरंभिक शिक्षा घर पर ही उनके पिता द्वारा दी गई। उपनयन संस्कार के पश्चात भगवान कल्कि शिक्षा ग्रहण करने के लिए महेंद्र पर्वत पर स्थित भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम के आश्रम गए। वहां भगवान परशुराम ने अपना परिचय देते हुए कहा – मैं भृगु वंश में उत्पन्न महर्षि जमदग्नि का पुत्र वेद, वेदांग के तत्व को जानने वाला धनुर्विद्या विशारद परशुराम हूं। 

परशुराम जी से वेद की शिक्षा प्राप्त करने के बाद भगवान कल्कि ने धनुर्वेद और गंधर्व वेद की भी शिक्षा ली। जब भगवान कल्कि ने 64 कलाओं और संपूर्ण धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया तब उन्होंने अपने गुरु परशुराम से कहा – आप वह दक्षिणा बताने की कृपा करें जिससे आप संतुष्ट हो सकेंगे। इस पर भगवान परशुराम ने कहा – कलिकाल का नाश करने के लिए भगवान विष्णु ने जो अवतार धारण किया है, वह आप ही हैं। जब आप दिग्विजय द्वारा धर्म विहीन और कलिप्रिय राजाओं और बौद्धों का संहार कर मरू और देवापि को प्रतिष्ठित करेंगे तब आपका यह साधुकृत्य ही मुझको संतुष्ट करने वाली दक्षिणा होगी।

भगवान कल्कि द्वारा शिव की तपस्या

भगवान परशुराम से निर्देश प्राप्त कर कल्कि ने दिव्यास्त्र की प्राप्ति के लिए भगवान शिव की आराधना शुरू की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कहा कि आप अपना इच्छित वर मांगें। भगवान शिव ने कल्कि को शीघ्रगामी अनेक रूपधारी गरुड अश्व युक्त सर्वज्ञ शुक प्रदान किया। शिव जी ने कल्कि को रत्नसरु नामक अत्यंत चमकती और अत्यंत भारी पृथ्वी के भार को संभालने वाली तलवार प्रदान की।

भगवान कल्कि के कार्य

धर्म का प्रसार

शिव जी से अश्व, शुक कवच और वरदान पाकर कल्कि संभल ग्राम में अपने घर लौटे। फिर कल्कि भगवान ने विशाखयूप राजा से भेंट की। तब उन्होंने अपने धर्म आख्यान द्वारा राजा की अधर्मयुक्त आशंकाओं का निराकरण किया।

शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा के माध्यम से भगवान कल्कि ने कलियुग के दोषों को नष्ट किया एवं धर्म की स्थापना की। तत्पश्चात सभी वर्ण अपने अपने धर्म में तत्पर हुए तथा राजा भी प्रजा पालक, पवित्र मन वाले और धार्मिक हुए।

विवाह

भगवान कल्कि का विवाह सिंहल द्वीप के राजा बृहद्रथ की रानी कौमुदी के गर्भ से उत्पन्न पुत्री पद्मा से हुआ। पद्मा का वर्णन करते हुए कल्कि पुराण में कहा गया है कि इस श्रेष्ठ मुख वाली, सुंदर चरित्र वाली कामदेव को भी मोहित करने वाली उस कन्या की समानता संसार में कोई नहीं कर सकता। भगवान कल्कि की पत्नी पद्मा के गर्भ से जय और विजय नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। यह दोनों महाबली तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुए।

कल्कि का दिग्विजय

विवाह के पश्चात भगवान कल्कि दिग्विजय के लिए अपनी सेना सहित कीकटपुर की ओर प्रस्थान कर गए। अत्यंत विस्तार वाला कीकटपुर बौद्धों का निवास स्थान था। यहां रहने वाले लोग वैदिक धर्म तथा देवता और पितरों के अर्चन से हीन और परलोक को ना मानने वाले थे। यहां भगवान कल्कि ने जिन एवं बौद्धों को परास्त किया। शुद्धोधन और उनकी पत्नी माया का वर्णन भी इस युद्ध के दौरान कल्कि पुराण में किया गया है। यहां उन्होंने बौद्धों को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कर मुक्ति प्रदान की।

इसके पश्चात भगवान कल्कि हिमालय की ओर बढ़े। वहां उन्होंने कुथोदरी नाम की राक्षसी एवं उसके पांच वर्षीय पुत्र विकज का वध किया। 

कल्कि पुराण में भगवान कल्कि के हरिद्वार में मुनियों से मिलने का वर्णन है। इस पुराण में सूर्यवंश एवं चंद्र वंश का वर्णन किया गया है तथा सूर्यवंश के प्रसंग में भगवान श्री राम के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें सूर्यवंश के मरु और देवापि का युद्ध के लिए आगमन, अत्यंत विकराल कोक–विकोक का वध, कल्कि भगवान की भल्लाट नगर यात्रा, शैय्याकरण आदि से युद्ध, शशिध्वज कलकी जी का संग्राम और सुशाता द्वारा भक्ति एवं कीर्तन की कथा कही गई है। इसमें भगवान कल्कि के रमा से विवाह का प्रसंग भी आया है। इन क्रियाओं के निष्पादन के बाद भगवान कल्कि वैकुंठ गमन कर जाते हैं।

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विष्णु के मत्स्य अवतार की कथा : हयग्रीव का वध और वेदों की रक्षा
भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कथा
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