हिंदू धर्म बहुत विस्तृत और व्यापक है। हिंदू धर्म किसी एक धार्मिक ग्रंथ पर आधारित नहीं है बल्कि बहुत सारे धार्मिक ग्रंथ हिंदू धर्म के विचारों को अभिव्यक्त, व्याख्यायित और पोषित करते हैं। धार्मिक ग्रन्थों का बहुत बड़ा भाग विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिया गया। उनसे बचे-खुचे ग्रन्थों का भी बड़ा भाग प्रकृति क्रे प्रकोप से, लोगों की असावधानी से, दीमक तथा कीड़ों के खाने से नष्ट हो गया। अब जो कुछ बचा है, उसका उचित रूप से संरक्षण नहीं हो रहा है।
इतना होने पर भी यदि प्रकाशित तथा उपलब्ध हिंदू धर्मग्रंथों की सूची मात्र दी जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ उस सूची से ही बनेगा, इसलिये बहुत संक्षिप्त रूप में मुख्य-मुख्य हिंदू धर्मग्रंथों के नाम ही यहाँ दिये जा रहे हैं।
हिंदू धर्म के आधार ग्रन्थों के मुख्य भाग ये हैं –
- वेद, 2. वेदांग, 3. उपवेद, 4. आरण्यक, 5. उपनिषद्, 6. इतिहास और पुराण, 7. स्मृति, 8. सूत्र ग्रंथ, 9. दर्शन, 10. निबन्ध, 11. आगम इत्यादि।
वेद
वेद अनादि, अपौरुषेय और नित्य हैं तथा उनकी प्रामाणिकता स्वतःसिद्ध है। वे शाश्वत ईश्वरीय ज्ञान हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा के हृदय में उन्हें भगवान ने प्रकट किया। संस्कृत साहित्य की शब्द-रचना की दृष्टि से ‘वेद’ शब्द का अर्थ ज्ञान होता है, परंतु इसका प्रयोग साधारणतया ज्ञान के अर्थ में नहीं किया जाता। हमारे महर्षियों ने अपनी तपस्या के द्वारा जिस ‘शाश्वत ज्योति’ का परम्परागत शब्द-रूप से साक्षात्कार किया, वही शब्दराशि ‘वेद’ है।
वेद अनादि हैं और परमात्मा के स्वरूप हैं। महर्षियों द्वारा प्रत्यक्ष दृष्ट होने के कारण इनमें कहीं भी असत्य या अविश्वास के लिये स्थान नहीं है। ये नित्य हैं और मूल में पुरुष जाति से असम्बद्ध होने के कारण अपौरुषेय कहे जाते हैं।
वेदों को संहिता भी कहा जाता है। “संहिता” शब्द का अर्थ संकलन है। वेदों में मंत्रों का संकलन किया गया है। यज्ञ के अनुष्ठान को दृष्टि में रखकर भिन्न-भिन्न ऋत्विजों के उपयोग के लिए इन मंत्र-संहिताओं का संकलन किया गया है।
त्रयी, श्रुति और आम्नाय ये तीनों शब्द ग्रन्थों में वेद के लिये व्यवहृत किये जाते हैं।
श्रुति – एक दूसरे से सुनकर ही वैदिक मन्त्रों का ज्ञान होता है, इसलिये वेदमन्त्रों को श्रुति कहते हैं।
वेदत्रयी – शब्द प्रयोग की तीन ही शैलियाँ होती हैं, जो पद्य (कविता), गद्य और गानरूप से जन-साधारण में प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एव विराम का निश्चित नियम रहता है। अतः निश्चित अक्षर-संख्या और पाद एंव विराम वाले वेद मन्त्रों की सज्ञा ‘ऋ’ है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर संख्या और पाद एव विराम ऋषि दृष्ट नहीं हैं, वे गद्यात्मक मन्त्र ‘यजु ‘ कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं।
इन तीन प्रकार की शब्द प्रकाशन शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये ‘त्रयी’ शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। ‘त्रयी’ शब्द से ऐसा नहीं समझना चाहिये कि वदों की सख्या ही तीन है, क्योंकि ‘त्रयी’ शब्द का व्यवहार शब्द-प्रयोग की शैली के आधार पर है। स्वरूप भेद के कारण इन्हें तीन प्रकार का बतलाया गया है – ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद।
आम्नाय – वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय हैं। इस कारण इसका नाम ‘आम्नाय’ भी है।
वेद मूलतः एक ही हैं। परंतु कलियुग में मनुष्यों की शक्तिहीनता और कम आयु होने की बात को ध्यान में रखकर वेदपुरुष श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग आजकल ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध हैं। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के इसी व्यास विभक्तिकरण (पृथक्करण) – करने के कारण ‘वेदव्यास’ का नाम दिया गया है।
वर्तमान में वेद चार हैं। उनके नाम हैं – (1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद और (4) अथर्ववेद।
ऋग्वेद
- वेदों में ऋग्वेद का गौरव सबसे अधिक माना गया है।
- छन्दोबद्ध मंत्रों का नाम ऋचा या ऋक् है। स्तुतिपरक ये मंत्र जिस वेद में सम्मिलित हैं उसे ऋग्वेद कहा जाता है। इसका नाम ऋग्वेद इसलिये पडा है क्योंकि इसमें पद्यबद्ध मन्त्रों की अधिकता है।
- ऋग्वेद में विभिन्न देवों की स्तुतियों का यथास्थान निर्देश है।
- इसमें होतृ वर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों का संकलन है।
- इसकी मन्त्र संख्या अन्य वेदों की अपेक्षा अधिक है।
यजुर्वेद
- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्यु वर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है।
- इसका नाम यजुर्वेद इसलिये पडा है क्योंकि इसमें ‘गद्यात्मक’ मन्त्रों की अधिकता है।
- यजुर्वेद के मुख्यतः कई अर्थ हैं –
- यज्ञ सम्बन्धी मंत्रों को यजुष् कहते हैं।
- पद्य-बन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं।
- गत्यात्मक मंत्रों को यजुः कहते हैं । यजुर्वेद में “अध्वर्यु” की प्रधानता होती है।
- यजुर्वेद दो शाखाओं में विभक्त है – 1. कृष्ण यजुर्वेद 2. शुक्ल यजुर्वेद।
- इस वेद को मुख्यतः यज्ञ, अनुष्ठानों आदि के लिए जाना जाता है।
सामवेद
- सामवेद का वास्तविक अर्थ गान है।
- इसका नाम सामवेद इसलिये पडा है कि इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं।
- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृ वर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है।
- श्रीमद्भगवद् गीता में श्री कृष्ण ने सामवेद को अपना स्वरूप बतलाया है।
- इसके अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद में उपलब्ध होते हैं, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं।
अथर्ववेद
- अथर्वन् का अर्थ है – गतिहीन या स्थिरता से युक्त योग।
- अथर्व का अर्थ है कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना।
- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्म वर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है।
- इस ब्रह्म वर्ग का कार्य है – यज्ञ की देख-रेख करना, समय-समय पर नियमानुसार निर्देश देना। अतः इसमें यज्ञ सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार या कमी-पूर्ति करनेवाले भी मन्त्र हैं।
- इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध हैं।
- इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द- शैली के आधार पर नहीं है अपितु इसके प्रतिपाद्य विषय के अनुसार है।
यज्ञों में चार मुख्य ऋत्विज होते हैं— होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा । ऋग्वेद के ऋत्विज को होता, यजुर्वेद वाले को अध्वर्यु, सामवेद वाले को उद्गाता तथा अथर्ववेद के ऋत्विज को ब्रह्मा कहते हैं। ये क्रम से चारों दिशाओं में बैठते हैं। वेद के प्रत्येक मन्त्र के शब्दों की स्थिति नित्य है। मन्त्रों के शब्दों में उलट-पलट सम्भव नहीं। मन्त्रों का संकलन क्रम बदल सकता है। इसलिये वेदपाठ की अनेक प्रणालियाँ हैं। इन्हें क्रम, घन, जटा, शिखा, रेखा, माला, ध्वज, दण्ड और रथ कहते हैं।
वेद के छः भाग हैं—1. मन्त्रसंहिता, 2. ब्राह्मण ग्रन्थ, 3. आरण्यक, 4. सूत्रग्रन्थ, 5. प्रातिशाख्य और 6. अनुक्रमणी।
वेदों की शाखाएँ
ऋषियों ने अपने शिष्यों को अपनी सुविधानुसार मन्त्रों को पढ़ाया। किसी ने एक छन्द के सब मन्त्र एक साथ पढ़ाये। दूसरे ने एक देवता के सब मन्त्र साथ पढ़ाये। तीसरे ने मन्त्रों को उनके विषय अथवा उपयोग के अनुसार रखा। इस प्रकार सम्पादन क्रम से एक वेद की अनेक शाखाएँ हो गयीं।
ऋग्वेद – ऋग्वेद की 21 शाखाएँ कही जाती हैं। ऋग्वेद की 21 शाखाओं को मुख्यतया इन पाँच भागों में विभक्त किया गया है – 1. शाकल, 2. वाष्कल, 3. आश्वलायन, 4. शांख्यायन, 5. माण्डूक्य। इन पाँच भागों के भी उप विभाग हैं। उनमें से शाकल शाखा शुद्ध रूप में प्राप्त है।
यजुर्वेद – यजुर्वेद के दो प्रकार के पाठ हैं। एक को शुक्ल यजुर्वेद तथा दूसरे को कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं। शुक्ल यजुर्वेद की 15 तथा कृष्ण यजुर्वेद की 86 शाखाएँ थीं।
- शुक्ल यजुर्वेद – काण्व तथा माध्यन्दिनी शाखाएँ प्राप्त हैं।
- कृष्ण यजुर्वेद – इसकी पाँच शाखाएँ मिलती हैं। तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ, कापिष्ठल और श्वेताश्ववर।
सामवेद – सामवेद की एक सहस्र शाखाओं का उल्लेख है, परंतु उनमें केवल तीन प्राप्त हैं -1. कौथुमी, 2. जैमिनीया और 3. राणायनीया। उनमें भी कौथुमी शाखा तथा जैमिनीया ही पूर्णरूप में मिलती हैं।
अथर्ववेद – अथर्ववेद की नौ शाखाएँ है। उनमें प्रमुख हैं – पैप्पलाद शाखा और शौनकीय शाखा।
ब्राह्मण ग्रन्थ
वेदमन्त्रों का यज्ञ में कैसे उपयोग हो, यह इनमें बतलाया गया है। इस समय जो ब्राह्मण ग्रन्थ मिलते हैं, उनका विवरण इस प्रकार है –
ऋग्वेद – 1. ऐतरेय ब्राह्मण और शाङ्खायन ब्राह्मण (अथवा कौषीतकि ब्राह्मण)
यजुर्वेद – इसके दोनों पाठों के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रंथ हैं।
- कृष्ण यजुर्वेद – तैत्तिरीय ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय संहिता का मध्यवर्ती ब्राह्मण |
- शुक्ल यजुर्वेद – शतपथ ब्राह्मण (यह भी दो प्रकार का – काण्व शाखा वाला 17 काण्डों का है और माध्यंदिन शाखा का 14 काण्ड का है।)
सामवेद – 1. ताण्ड ( पंचविंश) ब्राह्मण, 2. षड्विंश ब्राह्मण, 3. सामविधान ब्राह्मण, 4. आर्षेय ब्राह्मण, 5. मन्त्र ब्राह्मण, 6. दैवताध्याय ब्राह्मण, 7. वंश ब्राह्मण, 8. संहितोपनिषद् ब्राह्मण, 9. जैमिनीय ब्राह्मण और 10. जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण।
अथर्ववेद – गोपथ ब्राह्मण ।
आरण्यक
ब्राह्मण ग्रन्थों के जो भाग वन में पढ़ने योग्य हैं, उनका नाम आरण्यक है। आरण्यक में यज्ञानुष्ठान पद्धति, याज्ञिक मन्त्र, पदार्थ एव फल आदि में आध्यात्मिकता का संकेत दिया गया है, यह भाग मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर झुका कर सांसारिक बन्धनों से ऊपर उठाता है। अत इसका विशेष अध्ययन भी संसार के त्याग की भावना के कारण वानप्रस्थ आश्रम के लिये अरण्य (जंगल) में किया जाता है। विभिन्न वेदों से संबंधित आरण्यक निम्न हैं –
ऋग्वेद – ऐतरेय, शांख्यायन या कौषीतिकी
यजुर्वेद
- कृष्ण यजुर्वेद – तैत्तिरीय, मैत्रायणी
- शुक्ल यजुर्वेद – बृहदारण्यक
सामवेद – तवलकार, छान्दोग्य
अथर्ववेद – कोई उपलब्ध नहीं
उपनिषद्
उपनिषद् में विशुद्ध रीति से आध्यात्मिक चिन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फल प्राप्ति सम्बन्धी कर्मों के प्रति अनुराग को शिथिल करना सुझाया गया है।
इस समय प्राप्त उपनिषद् लगभग 275 हैं। इनमें 13 उपनिषदें मुख्य मानी जाती हैं, जिन पर आचार्यों ने भाष्य लिखे हैं। इन 13 उपनिषदों नाम हैं —
- ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. मुण्डक, 5. माण्डूक्य, 6. प्रश्न, 7. ऐतरेय, 8. तैत्तिरीय, 9. छान्दोग्य, 10. बृहदारण्यक, 11. श्वेताश्वतर, 12. कौषीतिकी और 13. नृसिंह-तापिनी।
इनमें से ईशावास्योपनिषद् यजुर्वेद की मूल संहिता में ही है।
वेदांग
वेदांग 6 हैं – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इन अंगों के बिना वैदिक ज्ञान अपूर्ण रहता है।
- नासिका है शिक्षा
- हाथ है कल्प
- मुख है व्याकरण
- कर्ण है निरुक्त
- पैर है छन्द
- वेद का नेत्र है ज्योतिष
शिक्षा
शिक्षा में मन्त्र के स्वर, अक्षर मात्रा तथा उच्चारण का विवेचन होता है। शिक्षा के 6 अंगों का वर्णन उपनिषद् में इस प्रकार किया गया है – वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम, सन्तान। इस समय प्रायः निम्नलिखित शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध हैं –
ॠग्वेद – पाणिनीय शिक्षा
कृष्ण यजुर्वेद – व्यारा शिक्षा
शुक्ल यजुर्वेद – याज्ञवल्क्य आदि 25 शिक्षा ग्रन्थ हैं।
सामवेद – गौतमी, लोमशी और नारदीय शिक्षा
अथर्ववेद – माण्डूकी शिक्षा
कल्प
कल्पसूत्रों में यज्ञों की विधि का वर्णन किया गया है और यज्ञिय विधियों का समर्थन किया गया है। कल्प का दूसरा अर्थ वेद विहित कर्मों का क्रमपूर्वक व्यवस्थित कल्पना करने वाला शास्त्र है।
कल्पसूत्र चार प्रकार के होते हैं-
- श्रौतसूत्र – इनमें ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित और अग्नि में सम्पाद्यमान यज्ञ आदि अनुष्ठानों का वर्णन है।
- गृह्यसूत्र – विवाह, श्राद्ध तथा उपनयन आदि संस्कारों का विस्तृत वर्णन है।
- धर्मसूत्र – इनमें चतुवर्ण तथा चारों आश्रमों के कर्त्तव्यों, विशेषतः राजा के कर्त्तव्य का विशिष्ट प्रतिपादन है। ये ही कल्प सूत्र प्रधानतया परिगणित होते हैं।
- शुल्वसूत्र – इसमें वेदी के निर्माण की रीति का विशिष्टरूपेण प्रतिपादन है और जो आर्यों के प्राचीन ज्यामिति सम्बन्धी कल्पनाओं तथा गणनाओं का प्रतिपादक होने से वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
व्याकरण
व्याकरण को वेदपुरुष का मुख कहा गया है। व्याकरण का काम भाषा का नियम स्थिर करना है। कत्यायन और पतजंलि ने व्याकरण के 5 प्रयोजन बताए हैं- 1. रक्षा (वेदों की रक्षा), 2. ऊह ( यथास्थान विभक्तियों आदि का परिवर्तन), 3. आगम (निष्काम भाव से वेदादि का अध्ययन), 4. लघु (संक्षेप में शब्द ज्ञान), 5. असन्देह (सन्देह निराकरण)।
शाकटायन व्याकरण के सूत्र तथा आज का पाणिनीय व्याकरण यजुर्वेद से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं। पहले शाकायादि के भी बहुत से व्याकरण ग्रन्थ थे, जिनके सूत्र पाणिनीय में हैं। पाणिनीय व्याकरण पर कात्यायन ऋषि का वार्तिक और महर्षि पतंजलि का महाभाष्य है। इसके पश्चात् इस पर व्याख्या, टीका तथा विवेचनात्मक ग्रन्थों की तो बहुत बड़ी संख्या है।
इनके अतिरिक्त सारस्वत व्याकरण, कामधेनु व्याकरण, हेमचन्द्र व्याकरण, प्राकृत प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कलाप व्याकरण, मुग्धबोध व्याकरण आदि बहुत से व्याकरण शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इन सब पर भी भाष्य, टीका, विवेचन हैं।
निरुक्त
निरुक्त वेदों की व्याख्या पद्धति बतलाते हैं। इन्हें वेदों का विश्वकोष कहना चाहिये। निरुक्त के प्रतिपाद्य 5 विषय हैं – वर्गागम, वर्ण विपर्यय, वर्ण विकार, वर्ण नाश और धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग।
जैसे पाणिनीय व्याकरण के प्रचार से अन्य प्राचीन व्याकरण लुप्त हो गये, वैसे ही निरुक्त ग्रन्थ भी लुप्त हो गये। अब केवल यास्काचार्य का निरुक्त मिलता है। इस पर बहुत से भाष्य, टीकादि ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार कश्यप आदि के निरुक्त ग्रन्थों का पता चलता है।
छन्द
वेद के मन्त्रों के उच्चारण के निमित्त छन्दों का ज्ञान अति आवश्यक है। छन्दों के ज्ञान के बिना मंत्रों का उच्चारण तथा पाठ ठीक ढंग से नही हो सकता।
इस समय वैदिक छन्दों के निर्देशक मुख्यतः इतने ग्रन्थ उपलब्ध हैं—गार्ग्यप्रोक्त उपनिदानसूत्र (सामवेदीय), पिंगलनागप्रोक्त छन्द सूत्र (छन्दोविचिति), वेंकट माधव कृत छन्दोऽनुक्रमणी और जयदेव का छन्दःसूत्र। लौकिक छन्दों पर भी छन्दःशास्त्र (हलायुधवृत्ति), छन्दामंजरी, वृत्तरत्नाकर, श्रुतबोध, जानाश्रयी छन्दोविचिति आदि अनेक ग्रन्थ हैं।
ज्योतिष
ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन संस्कार तथा यज्ञों के लिये मुहूर्त बतलाना और यज्ञस्थली, मण्डपादि का माप बतलाना है। व्याकरण के समान ज्योतिष शास्त्र भी व्यापक है। इस समय लगधाचार्य- के वेदांग ज्योतिष के अतिरिक्त सामान्य ज्योतिष के बहुत से ग्रन्थ हैं।
नारद, पराशर, वसिष्ठ आदि ऋषियों के बड़े-बड़े ग्रन्थों के अतिरिक्त वराहमिहिर, आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य के ज्योतिष के ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं।
उपवेद
प्रत्येक वेद का एक उपवेद होता है।
ऋग्वेद का अर्थवेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद है।
अर्थवेद
‘बृहस्पतेः अर्थाधिकारिकम्’ से बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र का पता चलता है। पर आज का ग्रन्थ छोटा है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र इस विषय का बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त सोमदेव भट्ट का नीतिवाक्यामृतसूत्र, चाणक्यसूत्र, कामंदक, शुकनीति आदि ग्रन्थ भी हैं, जो बाद के हैं।
धनुर्वेद
इस विषय के वैशम्पायन का धनुर्वेद (वैशम्पायन- नीतिप्रकाशिका), युक्तिकल्पतरु, समरांगण सूत्रधार आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
धनुर्वेद में अस्त्रों के निर्माण तथा प्रयोग का वर्णन है। प्रयोग करके सीखने का यह शास्त्र है। प्रयोग की परम्परा बंद हो जाने से इसका लोप हो गया।
गान्धर्ववेद
इसमें नृत्य तथा गायन का विषय है। राग-रागिनी, ताल-स्वर, वाद्य तथा नृत्य के भेदोपभेदों का वर्णन इसका तात्पर्य है। गान विद्या प्राचीन काल से चली आ रही है और उसके पुराने ‘घराने’ अब भी हैं; फिर भी सामगान की अरण्यगान तथा गेयगान – इन दोनों प्रणालियों का लोप हो गया है। प्राचीन गायन शास्त्र के इस समय भी बहुत से ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें मुख्य ये हैं- भरतमुनि का भरतनाट्य शास्त्र (इस पर अभिनवगुप्त की टीका है।), दत्तिलमुनि का दत्तिलम्, शार्ङ्गदेव का संगीतरत्नाकर (इस पर मल्लिनाथ आदि की टीकाएँ हैं।) और दामोदर कृत संगीतदर्पण आदि।
आयुर्वेद
शरीर रचना, रोग के कारण, लक्षण, औषधि, गुण, विधान तथा चिकित्सा का वर्णन यह शास्त्र करता है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में अश्विनीकुमारसंहिता, ब्रह्मसंहिता, मलसंहिता एवं आग्नीध्रसूत्रराज बहुत प्राचीन ग्रन्थ हैं। सुश्रुतसंहिता, धातुवाद, धन्वन्तरिसूत्र, मानसूत्र, सूपशास्त्र, सौभरिसूत्र, दाल्भ्यसूत्र, जाबालिसूत्र, इन्द्रसूत्र, शब्दकुतूहल तथा देवलसूत्र भी प्राचीन ग्रन्थ हैं। चरकसंहिता और अष्टांगहृदय आदि भी प्राचीन ग्रन्थ ही हैं।
आयुर्वेद के सहस्रों ग्रन्थ हैं। उनमें मनुष्यों के अतिरिक्त अश्व, गौ, गज तथा अन्य पशु-पक्षियों की चिकित्सा के उपाय का भी वर्णन मिलता है।
बहुत से विद्वान आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद मानते हैं और शिल्पवेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं।
सूत्र भाग
वेदों में सूत्र भाग तीन प्रकार के हैं -1. श्रौतसूत्र, 2. गृह्यसूत्र और 3. धर्मसूत्र
श्रौतसूत्र
श्रौतसूत्रों में मन्त्र संहिता के कर्मकाण्ड को स्पष्ट किया गया है। इस समय निम्नलिखित श्रौतसूत्र उपलब्ध हैं –
ऋग्वेद – 1. आश्वलायन और 2. शाङ्खायन श्रौतसूत्र
यजुर्वेद
- कृष्ण यजुर्वेद – 1. आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, 2. हिरण्यकेशीय (सत्याषाढ) श्रौतसूत्र, 3. बौधायन श्रौतसूत्र, 4. भारद्वाज श्रौतसूत्र, 5. वैखानस श्रौतसूत्र, 6. वाधूल श्रौतसूत्र, 7. मानव श्रौतसूत्र और 8. वाराह श्रौतसूत्र।
- शुक्ल यजुर्वेद – 1. कात्यायन (या पारस्कर) श्रौतसूत्र
सामवेद – नशकसूत्र, लाह्यायनसूत्र, ब्राह्यायणसूत्र और 2. खादिर आदि श्रौतसूत्र
अथर्ववेद – वैतान श्रौतसूत्र
गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र
जैसे श्रौतसूत्र चारों वेदों के हैं, वैसे ही गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र और शुल्वसूत्र चारों वेदों के होते हैं। तथा आपस्तम्ब शाखा के ही चारों प्रकार के हैं।
धर्मसूत्रों में धर्माचार का वर्णन होता है। गृह्यसूत्रों में कुष्ठाचार का वर्णन रहता है।
ऋग्वेद – 1 – आश्वलायन गृह्यसूत्र तथा 2 – शाङ्खायन गृह्यसूत्र हैं। इसका वसिष्ठ धर्मसूत्र भी हैं, जिस पर संस्कृत में कई टीकाएँ हैं।
यजुर्वेद
- कृष्ण यजुर्वेद – 1. मानव गृह्यसूत्र, 2. काठक गृह्यसूत्र, 3. आपस्तम्ब गृह्यसूत्र, 4. बौधायन गृह्यसूत्र, 5. वैखानस गृह्यसूत्र और 6. हिरण्यकेशीय गृह्यसूत्र। इन्हीं नामों के एक धर्मसूत्र भी प्राप्त हैं।
- शुक्ल यजुर्वेद – पारस्कर गृह्यसूत्र ( इस पर कर्क, जयराम, गदाधर आदि सात संस्कृत टीकाएं प्राप्त हैं ) तथा कात्यायन एवं विष्णु धर्मसूत्र प्राप्त हैं।
सामवेद – 1. जैमिनीय गृह्यसूत्र, 2. गोभिल गृह्यसूत्र, 3. खादिर गृह्यसूत्र 4. द्राह्मायण गृह्यसूत्र तथा 5. गौतम धर्मसूत्र (इस पर मस्करि भाष्य तथा मिताक्षरावृत्ति प्राप्त हैं)।
अथर्ववेद – कौशिक, वाराह एवं वैखानस गृह्यसूत्र मिलते हैं। पर धर्मसूत्र प्राप्त नहीं है।
प्रातिशाख्य
प्रातिशाख्य एक प्रकार के वैदिक व्याकरण हैं। ये चारों ही वेदों के उपलब्ध हैं। कात्यायन शुल्बसूत्र यजुर्वेद के शुल्ब सूत्रों में प्रधान है। इसमें ज्यामिति शास्त्र का विस्तार है। भौतिक विज्ञान का वर्णन करने वाले इन शुल्बसूत्रों के लोप से वैदिक भौतिक विज्ञान लुप्त हो गया।
अनुक्रमणी
वेदों की रक्षा तथा वेदार्थ का विवेचन इन ग्रन्थों का प्रयोजन है।
ऋग्वेद – 1. आर्पानुक्रमणी – इसमें मन्त्र क्रम से ऋषियों के नाम हैं, 2. छन्दोऽनुक्रमणी, 3. देवतानुक्रमणी, 4. अनुवाकानुक्रमणी, 5. सर्वानुक्रमणी, 6. बृहद्दैवत, 7. ऋविज्ञान, 8. बह्वृच्परिशिष्ट, 9. शाङ्खायन परिशिष्ट,
- आश्वलायन-परिशिष्ट तथा 11. ऋक्प्रातिशाख्य प्राप्त हैं।
यजुर्वेद
- कृष्ण यजुर्वेद – 1. आत्रेयानुक्रमणी, 2. चारायणीयानुक्रमणी और तैत्तिरीय प्रातिशाख्य प्राप्त हैं।
- शुक्ल यजुर्वेद – 1. प्रातिशाख्य सूत्र, 2. कात्यायनानुक्रमणी।
इतिहास
इतिहास-पुराण में ही वेदार्थ का पूरा विवेचन हुआ है। अतएव इतिहास-पुराण का विचार किये बिना वेद का ठीक-ठीक अर्थ जाना नहीं जा सकता। इसीलिये इतिहास-पुराण को वेद का उपांग कहा जाता है।
महर्षि वाल्मीकि की वाल्मीकीय रामायण और भगवान् वेदव्यास का महाभारत —ये दो मुख्य इतिहास ग्रन्थ हैं। हरिवंश पुराण महाभारत का परिशिष्ट होने से इतिहास ही माना जाता है। इनके अतिरिक्त अध्यात्म रामायण, योगवाशिष्ट आदि इतिहास के बहुत ग्रन्थ हैं।
पुराण
पुराणों में वेदों के सभी पूर्वोक्त विषय विस्तार से प्रतिपादित हैं। पुराण चार प्रकार के हैं –
(1) महापुराण, (2) पुराण, (3) अतिपुराण (4) उपपुराण
इनमें से प्रत्येक की संख्या अठारह बतायी जाती है। सर्वसाधारण में महापुराणों को ही पुराण के नाम से जाना जाता है। इन 18 महापुराणों के नाम निम्न हैं-
- ब्रह्मपुराण, 2. पद्मपुराण, 3. विष्णुपुराण, 4. शिवपुराण, 5. श्रीमद्भागवत, 6. नारदपुराण, 7. मार्कण्डेयपुराण, 8. अग्निपुराण, 9. भविष्यपुराण, 10. ब्रह्मवैवर्तपुराण, 11. लिंगपुराण, 12. वाराहपुराण, 13. स्कन्दपुराण, 14. वामनपुराण, 15. कूर्मपुराण, 16. मत्स्यपुराण, 17. गरुडपुराण और 18. ब्रह्माण्डपुराण
पुराणों से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए आप निम्न आलेख देख सकते हैं –
18 पुराणों के नाम और उनका संक्षिप्त परिचय
आधुनिक समय में पुराण का महत्व क्या है?
दर्शन
‘तत्त्व – ज्ञानसाधक’ शास्त्रों का नाम दर्शन शास्त्र है।
सृष्टि तथा जीव के जन्म-मरण के कारण तथा गति पर जो शास्त्र विचार करे, उसे दर्शन कहते हैं। मुख्य दर्शन छः हैं – 1. वैशेषिक, 2. सांख्य, 3. योग, 4. न्याय, 5. पूर्वमीमांसा और 6. उत्तरमीमांसा
इनमें से प्रत्येक के कई भेद आचार्यों के मतों के कारण हो गये हैं। इनमें से सांख्य दर्शन के मूल सूत्र-ग्रन्थ पर संदेह किया जाता है। उसकी ‘कारिका’ ही मुख्य है। उत्तर-मीमांसा दर्शन (ब्रह्मसूत्र) के भाष्य के रूप में ही वैदिक सम्प्रदाय बने हैं। इस प्रकार इनमें से प्रत्येक दर्शन पर भाष्य, टीका एवं विवेचन के तो सहस्रों ग्रन्थ हैं ही, स्वतन्त्र ग्रन्थ भी कई सहस्र हैं।
स्मृति ग्रंथ
हिंदू धर्म तथा हिंदू समाज का मुख्य संचालन स्मृतियों के द्वारा ही होता है। स्मृतियों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – चारों पुरुषार्थों का विवेचन है। इनमें वर्ण-व्यवस्था, अर्थ- व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म, विशेष अवसरों के कर्म, प्रायश्चित्त, शासन विधान, दण्ड व्यवस्था तथा मोक्ष के साधनों का वर्णन है।
इस समय प्रायः सौ से अधिक स्मृतियाँ उपलब्ध हैं। उनमें से मुख्य स्मृतिकार हैं — मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, औशनस, आंगिरस, यम, आपस्तम्ब, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शातातप, वशिष्ठ, प्रजापति आदि ।
इनमें भी मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति अधिक विख्यात हैं। कलियुग के लिये पराशर स्मृति मुख्य मानी गयी है।
निबन्ध ग्रन्थ
ये भी एक प्रकार के स्मृति ग्रन्थ ही हैं। यद्यपि इनकी रचना मध्यकाल में हुई, फिर भी ये स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं हैं। स्मृतियों, पुराणों में जो धर्माचरण के निर्देश हैं, उनका ही इनमें बड़े विस्तार से संकलन हुआ है। उनमें जो परस्पर वैभिन्य दीख पड़ता है या जो बातें स्पष्ट नहीं हैं, उनका स्पष्टीकरण निबन्धकारों ने की है। विस्तारपूर्वक प्रमाण देकर प्रत्येक विषय का इनमें विवेचन है। इसलिये धर्मशास्त्र के विद्वान् इन्हें स्मृतियों के समान प्रमाण मानते हैं। मुख्य निबन्ध ग्रन्थों के नाम हैं –
जीमूतवाहन के तीन ग्रन्थ हैं—दायभाग, कालविवेक, व्यवहारमातृका। शूलपाणि का ‘स्मृतिविवेक’ है जिसके चार खण्ड मिलते हैं। अनिरुद्ध के तीन ग्रन्थ हैं-दारलता, आशौचविवरण, पितृदयिता। चल्लाल सेन के चार ग्रन्थ हैं – आचारसागर, प्रतिष्ठासागर, अद्भुतसागर और दानसागर । ये ग्रन्थ बंगाल के निबन्धकारों के हैं।
श्रीदत्त उपाध्याय के तीन ग्रन्थ हैं—आयारादर्श, समय-प्रदीप, श्राद्धकला। चण्डेश्वर का विशाल ग्रन्थ स्मृति-रत्नाकर, वाचस्पति मिश्र के विवाद चिन्तामणि। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ हैं – आचारचिन्तामणि, तीर्थचिन्तामणि, व्यवहारचिन्तामणि, शुद्धिचिन्तामणि, श्राद्धचिन्तामणि, तिथिनिर्णय—ये ग्रन्थ मैथिल निबन्धकारों के हैं।
देवण्णभट्ट की स्मृतिचन्द्रिका विस्तृत ग्रन्थ है। हेमाद्रिका चतुर्वर्गचिन्तामणि धर्मशास्त्र का विश्वकोष ही है। माधवाचार्य के सात ग्रन्थ हैं— कालमाधव, पराशरमाधव, दत्तकमीमांसा, गोत्र-प्रवर-निर्णय, मुहूर्तमाधव, स्मृतिसंग्रह एवं त्रात्यस्तोमपद्धति।
लक्ष्मीधर का कृत्यकल्पतरु भी कई भागों में है। जगन्नाथ तर्कपंचानन का विवादार्णव कानून की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त काशीनाथ उपाध्याय आदि के धर्म-सिन्धु, निर्णयामृत, पुरुषार्थचिन्तामणि आदि भी बहुत से निबन्ध हैं।
भाष्य, टीकाएँ तथा साम्प्रदायिक ग्रन्थ
वैदिक ग्रन्थों से लेकर निबन्ध ग्रन्थों तक पर टीकाएं लिखी गई हैं। उनमें भाष्य हैं, टीकाएँ हैं, कारिका ग्रन्थ हैं, संक्षिप्त सारसंग्रह हैं। इन भाष्य, टीकाओं पर भी टीकाएँ हैं। इन भाष्य और टीकाओं का स्वतन्त्र रूप में बहुत महत्व है। इनके कारण स्वतन्त्र सम्प्रदाय चले हैं।
श्रीशंकराचार्य का अद्वैतवाद, श्रीरामानुजाचार्य का विशिष्टा-द्वैतवाद, श्रीनिम्बार्काचार्य का द्वैताद्वैतवाद, श्रीवल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैतवाद तथा श्रीमध्वाचार्य का द्वैतवाद सम्प्रदाय और गौडीयसम्प्रदाय का अचिन्त्यभेदाभेदवाद – सब भाष्यों पर ही अवलम्बित हैं।
इनके अतिरिक्त भी शैव, शाक्त आदि सम्प्रदाय भी भाष्यों पर ही प्रतिष्ठित हैं। इन भाष्यों पर प्रतिष्ठित मतों के आधार पर संस्कृत तथा हिंदी में प्रत्येक सम्प्रदाय में सैकड़ों ग्रन्थ लिखे गये हैं। इसी प्रकार न्याय, पूर्वमीमांसा आदि दर्शनों के भी भाष्य हैं और उनके आधार पर उनके सम्प्रदाय हैं। उन सम्प्रदायों में भी सैकड़ों ग्रन्थ हैं।
हिंदू धर्म बहुत विशाल धर्म है। उसकी शाखाएँ ही सैकड़ों हैं। इसी प्रकार कबीरपंथ, राधास्वामी मत, दादूपंथ, रामस्नेही, प्रणामी, चरणदासी आदि बहुत से सम्प्रदाय हिंदू धर्म के भीतर हैं। कबीरपंथी, दादूपंथी राधास्वामी, रामस्नेही, प्रणामी आदि मतों में उनके गुरुओं के ग्रन्थ ही परम प्रमाण ग्रन्थ माने जाते हैं। उन सबकी संख्या भी बहुत बड़ी है।
आगम या तन्त्र ग्रन्थ
वेदों से लेकर निबन्ध ग्रन्थों तक की परम्परा को ‘निगम’ कहा जाता है। इसी के समान जो दूसरी अनादि परम्परा है, उसे ‘आगम’ कहा जाता है।
आगम के दो भाग हैं—दक्षिणागम (समयमत) और नामागम (कौलमत)। सनातन धर्म में निगम तथा आगम (दक्षिणागम) दोनों को प्रमाण माना जाता है। श्रुतियों में ही दक्षिणागम का मूल है और पुराणों में उसका विस्तार हुआ है। इस आगम शास्त्र का विषय है—उपासना।
वैष्णवागम
देवता का स्वरूप, गुण, कर्म, उनके मन्त्रों का उद्धार, मन्त्र, ध्यान, पूजाविधि का विवेचन आगम ग्रन्थों में होता है। वैष्णवागम को स्मृति के समान प्रमाण माना जाता है। वैष्णवागम में पांचरात्र तथा वैखानस आगम ये दो प्रकार के ग्रन्थ मिलते हैं।
शैवागम
भगवान् शंकर के मुख से 28 तन्त्र प्रकट हुए, ऐसा कहा जाता है। उपतन्त्रों को मिलाकर इनकी संख्या 208 होती हैं। इनमें भी 64 मुख्य माने गये हैं। किंतु ये सब उपलब्ध नहीं हैं। शिवाचार्य के प्रामाणिक ग्रन्थ ये हैं- पाशुपतसूत्र, नरेश्वरपरीक्षा, तत्त्वसंग्रह, तत्त्वत्रय, भोगकारिका, मोक्षकारिका, तत्त्वप्रकाशिका इत्यादि।
वीरशैव मत का प्रामाणिक ग्रन्थ सिद्धान्तशिखामणि है। प्रत्यभिज्ञामार्ग में 92 आगम प्रमाण माने जाते हैं। उनमें मुख्य तीन हैं- सिद्धान्ततन्त्र, नामकतन्त्र एवं मालिनीतन्त्र। इन तीनों को त्रिक कहते हैं। ये शिवसूत्र पर आधारित हैं।
शाक्तागम या शाक्त तन्त्र
इसमें सात्त्विक ग्रन्थों को तन्त्र या आगम, राजस को यामल तथा तामस को डामर कहा जाता है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही राजस, तामस स्वभाव के प्राणी रहे हैं। अतः उनके लिये इन राजस – तामस ग्रन्थों का निर्माण हुआ। असुरों की परम्परा का मुख्य शास्त्र वामागम है।
शाक्तागम में 64 ग्रन्थ मुख्य माने जाते हैं। कौलोपनिषद्, अरुणोपनिषद्, कालिकोपनिषद्, भावनोपनिषद्, ब तथा तारोपनिषद् इत्यादि तन्त्रमत के प्रतिपादक माने जाते हैं। इनकी भी भाष्य-टीकाएँ हैं। मन्त्रमहार्णव ग्रन्थ को शाक्त तन्त्रों का विश्वकोष माना जाता है।
तन्त्र ग्रन्थों में सूक्ष्म विद्याओं का बड़ा भारी भंडार है। कहा जाता है कि इन उपलब्ध ग्रन्थों के अतिरिक्त कई सौ तन्त्र ग्रन्थ नेपाल में सुरक्षित हैं। देश में भी इन ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक है, जो अज्ञात है।
उपसंहार
हिंदू धर्म मूलतः वेदों पर आधारित है। इसी कारण इसे वैदिक धर्म भी कहा जाता है। वेदों में हिंदू धर्म की विचार पद्धति, क्रियाकलापों एवं नीतियों-रीतियों का वर्णन किया गया है। वेदों में हिंदू धर्म से संबंधित विषयों का गुढ़ रूप से वर्णन किया गया है जिसे समझ पाना आम लोगों के लिए सरल नहीं है। इसलिए पुराण जैसे ग्रंथों की रचना हुई जिसमें कथात्मक रूप से गूढ़ विषयों को समझाने का प्रयास किया गया है।
इसके अतिरिक्त ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद जैसे ग्रंथ हैं जिनमें हिंदू धर्म से संबद्ध विचारों का विभिन्न दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। साथ ही साथ वेदों के मूल तत्व को समझाने के लिए वेदांगों, स्मृतियों एवं सूत्र ग्रंथों इत्यादि की रचना की गई है।
ये सभी ग्रंथ मिलकर हिंदू धर्म के वैचारिक एवं व्यावहारिक पक्षों को सरलता से उद्घाटित करते हैं। जिसके कारण आम लोगों के लिए हिंदू धर्म के विभिन्न पक्षों को समझना संभव हो पाता है। इसी कारण इस आलेख में हिंदू धर्मग्रंथों के नाम एवं उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
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