धर्म का स्वरूप

धर्म का स्वरूप

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मनुष्य जीवन को परिभाषित करने वाले और उसे बेहतर बनाने वाले कारक तत्व का नाम धर्म है। धर्म कोई स्थिर तत्व नहीं है और ना ही उसका स्वरूप एकांगी है। यह जीवन के सभी पहलुओं और तत्वों से जुड़ा हुआ है। इस कारण धर्म का स्वरूप अत्यंत ही व्यापक हो जाता है। 

धर्म केवल आत्मा-परमात्मा का सम्बन्ध स्थापित करने वाला ही नहीं बल्कि हमारे सभी कर्म, सभी व्यवहार क्रोध, करुणा, दया, स्नेह, त्याग, तप, तितिक्षा आदि का बोधक है और इसी के ही सहारे सभी मानव व्यापार-व्यवहार होते हैं और सभी मानववृत्तियाँ अपना कार्य करती हैं। 

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक विभिन्न विद्वानों एवं धर्माचार्यों ने धर्म के स्वरूप को व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। प्रत्येक विद्वानों ने अपनी दृष्टि के अनुसार धर्म को परिभाषित किया है। सिर्फ भारतीय ही नहीं वरन पश्चिमी देशों के विद्वानों ने भी धर्म को अपने-अपने हिसाब से परिभाषित किया है। परंतु पश्चिम की धर्म संबंधी मान्यता और भारतीय धर्म संबंधी मान्यताओं में विभेद है। इस कारण पश्चिम की मान्यता के आधार पर भारतीय धर्म के स्वरूप को नहीं समझा जा सकता है। यह भारतीय धर्म का आशय हिंदू धर्म या सनातन धर्म से है।

धर्म के स्वरूप की व्याख्या कई प्राचीन धर्म ग्रंथों में की गई है। प्राचीन आचार्यों ने भी धर्म को परिभाषित किया है। इस आलेख में प्राचीन धर्म ग्रंथों एवं विद्वानों की विचार दृष्टि के आधार पर धर्म के स्वरूप को समझने का प्रयास किया गया है।

धर्म तथा अधर्म के निर्णय का अधिकार किसका है और किसकी व्याख्या को हम धर्म-अधर्म का निर्णायक मानें? इसका उत्तर है, शिष्ट जनों के विचार ही धर्म हैं –
यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयुः स धर्मः स्यादशंकितः । 
अर्थात् धर्म के सम्बन्ध में संशय उत्पन्न होने पर शिष्ट जन जो कहें, वही असन्दिग्ध रूप से मूल स्वीकार करने योग्य धर्म है। शिष्ट वह है जो स्मृतियों सहित वेदों का ज्ञाता है, ज्ञाता ही नहीं, वेदोक्त धर्म उसके जीवन में प्रत्यक्ष उतर गए हों। करनी और कथनी दोनों में वेद चरितार्थ होने चाहिए।

मनु के अनुसार धर्म का स्वरूप

मनु ने धर्म को व्याख्यायित करते हुए अपनी स्मृति में कहा है –
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। 
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनुस्मृति)
अर्थात् धर्म के ये चार लक्षण हैं, जिनसे हम धर्माधर्म को पहचान सकते हैं। प्रथम, मानव-कृत कर्म वेद के अनुकूल हों; दूसरे, स्मृति आदि धर्मग्रन्थों से प्रतिपादित हों; तीसरे, महापुरुषों के आचार-व्यवहार के अनुकूल हों और चौथे हमारी आत्मा के अनुकूल भी हों। यही सच्चा धर्म है। इस प्रकार वेद, स्मृति, सदाचार और अपने मन की प्रसन्नता, ये धर्म के चार लक्षण कहे गये हैं।

अन्य स्थान पर उन्होंने चारों आश्रमों के लिए सर्वसाधारण द्वारा अनुष्ठेय धर्म  का उल्लेख करते हुए कहा है –
धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ 

  • धृति (धैर्य) अर्थात् संतोष, 
  • क्षमा अर्थात् सामर्थ्य रहते हुए भी अपकारी का अपकार न करना, 
  • दम अर्थात् विषय का संसर्ग होने पर भी मन को निर्विकार रखना, 
  • अस्तेय अर्थात् कार्य, वचन और मन से परद्रव्य को न चुराना, 
  • शौच अर्थात् शास्त्रानुसार मिट्टी-जल आदि के द्वारा देहशुद्धि, 
  • इन्द्रिय-निग्रह अर्थात् यथेच्छ विषयभोग से हटाकर अलौकिक विषय की प्राप्ति के लिये शास्त्रसम्मत मार्ग से इन्द्रियों को ले चलना, 
  • धी अर्थात् आत्मविषयिणी बुद्धि – मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ इस प्रकार की बुद्धि, 
  • विद्या अर्थात् आत्मज्ञान जिससे हो, उस ब्रह्मविद्या का अनुशीलन, 
  • सत्य अर्थात् यथार्थ कथन और प्राणियों का हितसाधन, 
  • अक्रोध अर्थात् क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी कुछ न होना।

इन दस का नाम धर्म है। इनमें जो सम्यक् प्रतिष्ठित है, वही धार्मिक है। उसी को परम गति की प्राप्ति होती है। ये दस गुण मानवता की समानता को कायम रखते हैं। ये ही परधर्म सहिष्णुता के कारण हैं। अतः इन्हीं दस गुणों को समझना और ग्रहण करना अत्यन्त आवश्यक है।

महर्षि कणाद की धर्म की व्याख्या

वैदिक धर्म में केवल परमात्मा में विश्वास रखने और उसकी उपासना करने को ही धर्म नहीं माना जाता। यह पूर्ण धर्म नहीं है यह तो धर्म का केवल एक अंग है। वेदोक्त धर्म ही वास्तव में मानवमात्र के लिए कल्याणकारी है। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया है कि जिस आचरण से सांसारिक ऐश्वर्य और अभ्युदय की प्राप्ति भी होती हो तथा मोक्ष की प्राप्ति भी होती हो उस आचरण को धर्म कहते हैं।

महर्षि कणाद की धर्म की एक व्याख्या इस प्रकार है –
यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः। 
अर्थात जिसके आचरण से इहलोक में अभ्युदय तथा परलोक में निःश्रेयस की प्राप्ति होती है, उसका नाम धर्म है।

‘अभ्युदय’ का अर्थ यह है कि शरीर के निर्वाह के साधन सुगमता से प्राप्त हों।

जिस कल्याण से बढ़कर दूसरा कोई बड़ा या अधिक महत्त्व का कल्याण न हो, उस सर्वश्रेष्ठ या सर्वोपरि कल्याण को ‘निःश्रेयस’ कहते हैं। सर्वश्रेष्ठ कल्याण ‘मोक्ष’ कहलाता है क्योंकि उसको प्राप्त करने के बाद और कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता। अतएव धर्म का एक लक्षण यह हुआ कि जिसके आचरण से मोक्ष की प्राप्ति हो। 

जैमिनि के अनुसार धर्म का स्वरूप 

पूर्व मीमांसा के आचार्य जैमिनि ने धर्म को व्याख्यायित करते हुए कहा है – चोदणालक्षणोऽर्थो धर्मः। क्रिया में प्रवर्तित करनेवाले शास्त्र वचन का नाम ‘चोदना’ है। अर्थात् आचार्य प्रेरित होकर जो योग आदि किये जाते हैं, उसी का नाम धर्म है। 

याज्ञवल्क्य की धर्म संबंधी व्याख्या

स्मृतिकारों ने धर्म के अन्तर्गत गुणों एवं करणीय कार्यों की संख्या निश्चित की। महर्षि याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ साधनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रियनिग्रह, दान, दया, दम, क्षान्ति को ग्रहण करते हुए कहा –
अहिंसा सत्यमस्ते शौचमिन्द्रियनिग्रहः । 
दा दया दमः क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥ ( याज्ञवल्क्यस्मृति)
वहीं आचाराध्याय में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं-
अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् ॥ 
अर्थात् जिस योगक्रिया द्वारा आत्मा का साक्षात्कार किया जाता है, वही परमधर्म है।

महाभारत में धर्म का स्वरूप

महाभारत के विभिन्न पर्वों में धर्म के स्वरूप एवं उसके तत्वों को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। महाभारत में धर्म को कर्तव्य का पर्याय भी माना गया है।

महाभारत में यक्ष के प्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा था –
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्। 
अर्थात धर्म का तत्व मनुष्य के हृदयरूपी गुहा में स्थित है और उस गुहा के प्रवेशद्वार को अध्यात्म-साधना द्वारा अनावृत किये बिना धर्म का तात्पर्य स्पष्ट होना सहज सम्भाव्य नहीं।

समदृष्टि सम्पन्न होने पर ही धर्म की वास्तविक समझ उदित होती है। चरमसत्ता की प्रत्यक्ष समझ उसे दीप्ति प्रदान करती है, उसमें विरोध, वैमनस्य, घृणा, असहिष्णुता, अनास्था, अविश्वास, अन्याय, उत्पीड़न तथा अनीति के लिए कोई स्थान नहीं होता। महाभारत के वन पर्व में कहा गया है –
धर्म यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुवर्त्म तत्। 
अविरोधात्तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम॥  (वनपर्व)
अर्थात्
जो धर्म दूसरे धर्म को बाधा पहुँचाये, दूसरे धर्म से लड़ने के लिये प्रेरित करे, वह धर्म नहीं, वह तो कुमार्ग है क्योंकि धर्म तो वास्तव में वह है जो किसी अन्य धर्म का विरोध नहीं करता।

महाभारत के उद्योगपर्व में धर्म के अष्टविध मार्ग का उल्लेख किया गया है। ये हैं – यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, धृति, क्षमा और अलोभ। 

श्रीमद्भागवत के अनुसार धर्म का स्वरूप 

श्रीमद्भागवत में प्रह्लाद को देवर्षि नारद ने धर्मोपदेश करते हुए तीस लक्षणयुक्त सार्ववर्णिक, सार्वभौम मानवधर्म बताया है।
सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः । 
अहिंसा ब्रह्मचर्य च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम् ॥

श्रीमद्भागवत के अनुसार विद्या, दान, तप और सत्य – धर्म के चार पाद हैं। 

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है-
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महँ एक प्रधान । 
जेन केन विधि दीन्हें दान करइ कल्यान ॥

धर्म के चार पाद कौन हैं, इस पर विभिन्न ऋषियों एवं आचार्यों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किए हैं, तथापि सर्वाधिक मान्य मत मनु का है-
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते। 
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ 

इस श्लोक का उल्लेख पद्म पुराण, लिंग पुराण, भविष्य पुराण, पराशर स्मृति इत्यादि में भी किया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में धर्म की परिभाषा करते हुए दैवी सम्पत्ति के नाम से अभय आदि 26 स्वरूप बतलाये हैं। 

श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि श्रीहरि में अहैतुक एवं व्यवधान रहित प्रीति प्राणिमात्र का परमधर्म है।
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । 
अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति ॥ 

योगशास्त्र के अनुसार धर्म

योग-शास्त्र के अनुसार यम और नियम का यथाशक्ति पालन करना ही धर्माचरण है।

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । 
अहिंसा, सत्यभाषण, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और संग्रह न करना – ये पाँच प्रकार के यम हैं।

शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । 
बाहर-भीतर की पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर का ध्यान करना – ये पाँच नियम हैं।

योगसार में प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा और स्मरण ये पाँच प्रकार के धर्म कहे गये हैं– 

प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोऽथ धारणा।
स्मरणं चैव योगेऽस्मिन् पञ्चधर्माः प्रकीर्तिताः॥

विष्णु संहिता के अनुसार धर्म

विष्णुसंहिता में लिखा है –

क्षमा, सत्य, दम, शौच, दान, इन्द्रियनिग्रह, अहिंसा, गुरु-सेवा, तीर्थ-दर्शन, दया, ऋजुता, निर्लोभता, देव- ब्राह्मणों की पूजा और अनसूया—ये साधारण धर्म हैं। ये धर्म चारों वर्णों के लिए पालन करने योग्य हैं।

वैदिक ग्रंथों के अनुसार धर्म

ऋग्वेद में ‘धर्म’ शब्द संज्ञा अथवा विशेषण रूप में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ प्रायः ‘ऊँचा उठानेवाला’ (उन्नायक ), ‘सम्पोषक’ ( प्राणतत्व का पालन-पोषण करनेवाला) है; किंतु ऋग्वेद में ही अन्य स्थलों पर इस ‘धर्म’ का अभिप्राय ‘सुबद्ध निश्चित सिद्धान्त’ एवं ‘धार्मिक क्रियाओं के नियम’ से है।

ऐतरेय ब्राह्मण में ‘धर्म’ का अर्थ है – धार्मिक कर्म का सर्वांगस्वरूप। ये धार्मिक कर्म परलोक सुधारने, संसार-सागर से तारने के लिये जप, व्रत, हवन, यज्ञ आदि ही थे ।

छान्दोग्य श्रुति का भी कथन है –
त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति ।
अर्थात् यज्ञ, पठन-पाठन और दान ये धर्म के तीन आधार (स्तम्भ) हैं। 

तैत्तिरीयोपनिषद्, मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में धर्म का अभिप्राय प्रायः समान ही है, केवल उक्ति में शब्द पार्थक्य पाया जाता है। 

पुराणों में धर्म संबंधी व्याख्या

पद्म पुराण

पद्म पुराण में धर्म का यह लक्षण कहा गया है –

पात्रे दानं मतिः कृष्णे मातापित्रोश्च पूजनम् । 
श्रद्धा बलिर्गवां ग्रासः षड्विधं धर्मलक्षणम् ॥

सत्पात्र को दान, भगवान् श्रीकृष्ण में बुद्धि, माता-पिता का सम्मान, गुरु-वेद-वाक्य में श्रद्धा, बलि और गोग्रास देना – ये छः लक्षण धर्म के होते हैं।

मनुस्मृति से मिलती-जुलती भाषा में पद्म पुराण के भूमिखण्ड में धर्म के ये दस अंग गिनाये गये हैं – ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, नियम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शान्ति और अस्तेय। 

वामन पुराण

वामन पुराण के 11वें अध्याय में ऋषियों ने सुकेशी से धर्म का तत्त्व कहा है। 

तदनुसार यज्ञ और स्वाध्याय देवताओं के धर्म हैं। दैत्यों का धर्म युद्ध, शिवमुक्ति तथा विष्णुभक्ति है। ब्रह्मविज्ञान, योगासाद्ध आदि सिद्धों के धर्म है। नृत्य, गीत, सूर्यभक्ति – ये गन्धर्वों के धर्म हैं। ब्रह्मचर्य, योग अभ्यास आदि पितरों के धर्म हैं। जप, तप, ज्ञान, ध्यान और ब्रह्मचर्य ऋषियों के धर्म हैं। इसी प्रकार दान, यज्ञ, दया, अहिंसा, शौच, स्वाध्याय, भक्ति आदि मानव धर्म हैं।

मत्स्य पुराण 

मत्स्य पुराण में धर्म के मूल तत्व की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया गया है –

अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमो भूतदया तपः ।
ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशः क्षमा धृतिः ॥ ( मत्स्यपुराण )

इस स्थल पर अद्रोह, अलोभ, दम, भूतदया, तप, ब्रह्मचर्य, सत्य, अनुक्रोश, क्षमा और धृति को धर्म का मूल कहा गया है। 

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