भारत के प्रसिद्ध शैव तीर्थस्थलों में झारखंड स्थित देवघर का बैद्यनाथ धाम (बाबा धाम) अत्यंत महत्वपूर्ण है। श्री शिव महापुराण के अनुसार 12 ज्योतिर्लिंग की गणना के क्रम में श्री बैद्यनाथ को नौवां ज्योतिर्लिंग बताया गया है। जहां पर यह मन्दिर स्थित है उस स्थान को देवघर अर्थात देवताओं का घर कहते हैं। यह स्थान माता सती के 52 शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि यहाँ पर आने वालों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस कारण इस लिंग को “कामना लिंग” भी कहा जाता हैं। इस स्थान के अनेक नाम प्रचलित हैं, जैसे – हरितकी वन, चिताभूमि, रणखंड, रावणेश्वर कानन, हाद्रपीठ।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग से जुड़ा विवाद
महाराष्ट्र के बीड जिले के परली ग्राम के निकट श्रीबैद्यनाथ को भी ज्योतिर्लिंग माना जाता है। पुराणों में ‘परल्यां बैद्यनाथं च’ ऐसा उल्लेख मिलता है, जिसके आधार पर कुछ लोग बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का स्थान ‘परलीग्राम’ को बताते हैं। परलीग्राम स्थित मन्दिर अत्यन्त पुराना है, जिसका जीर्णोद्धार रानी अहिल्याबाई ने कराया था। यह मन्दिर एक पहाड़ी के ऊपर निर्मित है। पहाड़ी से नीचे एक छोटी नदी भी बहती है तथा एक छोटा सा शिवकुण्ड भी है। पहाड़ी के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। कुछ लोगों की मान्यता है कि परली ग्राम के पास स्थित बैद्यनाथ ही वास्तविक बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है।
लेकिन शिव पुराण के अनुसार, झारखण्ड प्रान्त के देवघर का श्री बैद्यनाथ शिवलिंग ही वास्तविक बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है। श्री शिव महापुराण में स्थान का संकेत करते हुए लिखा गया है कि ‘चिताभूमौ प्रतिष्ठित:’। ‘चिताभूमौ’ शब्द का विश्लेषण करने पर परली के बैद्यनाथ 12 ज्योतिर्लिंगों में नहीं आते हैं, इसलिए उन्हें वास्तविक बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मानना उचित नहीं है। सन्थाल परगना जनपद के देवघर पर स्थित स्थान को ‘चिताभूमि’ कहा गया है। जिस समय भगवान शंकर माता सती के शव को अपने कन्धे पर रखकर इधर-उधर उन्मत्त की तरह घूम रहे थे, उसी समय इस स्थान पर सती का हृत्पिण्ड अर्थात हृदय भाग गलकर गिर गया था। भगवान शंकर ने सती के उस हृत्पिण्ड का दाह-संस्कार उक्त स्थान पर किया था, जिसके कारण इसका नाम ‘चिताभूमि’ पड़ गया।
श्री शिव पुराण में उल्लिखित श्लोक के अनुसार बैद्यनाथ का उक्त चिताभूमि में स्थान माना जाता है।
बैद्यनाथावतारो हि नवमस्तत्र कीर्तित:।
आविर्भूतो रावणार्थं बहुलीलाकर: प्रभु:।।
तदानयनरूपं हि व्याजं कृत्वा महेश्वर:।
ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण चिताभूमौ प्रतिष्ठित:।।
बैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोऽभूज्जगत्त्रये।
दर्शनात्पूजनाद्भभक्या भुक्तिमुक्तिप्रद: स हि।।
शास्त्रों में कहा गया है –
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीबैद्यनाथं तमहं नमामि ॥ (बृहत्स्तोत्ररत्नाकर, स्तोत्र संख्या-181)
अर्थात, जो पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि बैद्यनाथ धाम में पार्वती के साथ सदा ही विराजमान हैं और देव दानव जिनके चरणकमलों की आराधना करते हैं, उन्हीं ‘श्री बैद्यनाथ’ नाम से विख्यात शिव को मैं नमन करता हूँ ।
बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग से जुड़ी पौराणिक कथा
श्री शिव महापुराण के कोटिरुद्र संहिता में श्री बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार लिखी गई है–
राक्षसराज रावण मनोकामना लिंग की स्थापना लंका में करने की इच्छा के साथ कैलास पर्वत पर भक्तिभावपूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया। रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।
वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल में आकण्ठ जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था। इन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए।
कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब उसने अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवां सिर भी काटनेवाला था कि शिव जी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर यथावत कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा। रावण ने शिव जी से सबसे ज्यादा बलशाली होने का वर मांगा। भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया।
भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको अपने साथ लंका ले जाना चाहता हूँ। आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।
रावण के इस प्रकार के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये। उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपने यहाँ ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना कि रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा।
भगवान शिव के इस वचन को सुनकर देवताओं के अंदर चिंता उत्पन्न हो गई। देवतागण यह नहीं चाहते थे कि रावण शिवलिंग को अपने साथ लंका ले जाए क्योंकि अगर शिवलिंग वहां पहुंच गया तो रावण के बुरे कामों से दुनिया को खतरा होगा। इसलिए सभी देवताओं ने जल के देवता वरुण से अनुरोध किया कि वे रावण के पेट में प्रवेश करें। ऐसा भी कहा जाता है कि देवों के प्रेरणा से माता जाह्नवी (गंगा) स्वयं रावण के उदरस्थ हो गईं। देवताओं के अनुरोध पर वरुण देव रावण के पेट में प्रवेश कर गए। रावण के पेट में पानी बढ़ने की वजह से उसे लघुशंका यानी मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) करने की इच्छा होने लगी। इसके बाद उसने सोचा कि ज्योतिर्लिंग किसी को सौंपकर लघुशंका कर लेता हूं।
उस समय एक ग्वाले (बैजू) के रूप में भगवान विष्णु उस स्थान पर प्रकट हुए जहां से रावण शिवलिंग लेकर जा रहा था। रावण ने उस ग्वाले को देखा और उसके पास गया। रावण ने उसे शिवलिंग सौंप यह कहा कि उसे लघुशंका आ रहा है, जब तक वह उससे निवृत्त होकर आ रहा है तब तक वह उसे पकड़े रहे। किसी भी हालत में इस शिवलिंग को धरती पर ना रखे। जब रावण मूत्र विसर्जन करने गया तो उस ग्वाले (बैजू) ने शिवलिंग को नीचे रख दिया। जब रावण लौटकर आया तो उसने देखा कि शिवलिंग जमीन पर रखा हुआ है। उसे यह देखकर अत्यंत क्रोध आया।
जमीन पर रखे शिवलिंग को उठाने की रावण ने लाख कोशिश की परंतु वह शिवलिंग को उठा नहीं पाया। तब उसे भी भगवान की यह लीला समझ में आ गई और वह क्रोधित शिवलिंग पर अपना अंगूठा गड़ाकर चला गया। उसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की। शिव जी का दर्शन होते ही सभी देवी-देवताओं ने शिवलिंग को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया और शिव–स्तुति करके वापस अपने-अपने धाम को चले गए।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग से जुड़ी दूसरी कथा
एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य (सप्त ऋषियों में से एक) की तीन पत्नियाँ थीं। पहली से कुबेर, दूसरी से रावण और कुंभकर्ण, तीसरी से विभीषण का जन्म हुआ। रावण ने बल प्राप्ति के निमित्त घोर तपस्या की। शिव ने प्रकट होकर रावण को शिवलिंग अपने नगर तक ले जाने की अनुमति दी। साथ ही कहा कि मार्ग में पृथ्वी पर रख देने पर लिंग वहीं स्थापित हो जाएगा। रावण शिव के दिये दो लिंग ‘कांवरी’ में लेकर चला। मार्ग में लघुशंका के कारण, उसने कांवरी किसी ‘बैजू’ नामक चरवाहे को पकड़ा दी। शिवलिंग इतने भारी हो गए कि उन्हें वहीं पृथ्वी पर रख देना पड़ा। वे वहीं पर स्थापित हो गए। रावण उन्हें अपनी नगरी तक नहीं ले जाया पाया।
जो लिंग कांवरी के अगले भाग में था, चन्द्रभाल नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा जो पिछले भाग में था, बैद्यनाथ कहलाया। चरवाहा बैजू प्रतिदिन बैद्यनाथ की पूजा करने लगा। एक दिन उसके घर में उत्सव था। वह भोजन करने के लिए बैठा, तभी स्मरण आया कि शिवलिंग पूजा नहीं की है, सो वह बैद्यनाथ की पूजा के लिए गया। सब लोग उससे रुष्ट हो गए। शिव और पार्वती ने प्रसन्न होकर उसकी इच्छानुसार वर दिया और उसकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो गईं। तभी से महादेव ‘कामना लिंग’ के रूप में देवघर में विराजते हैं। उसके नाम के आधार पर वह शिवलिंग भी ‘बैजनाथ’ कहलाए।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग से जुड़ी तीसरी कथा
शिव पुराण में कई ऐसे आख्यान हैं जो बताते हैं कि शिव वैद्यों के नाथ हैं। कहा गया है कि शिव ने रौद्र रूप धारण कर अपने ससुर दक्ष का सिर त्रिशुल से अलग कर दिया। बाद में जब काफी विनती हुई तो बाबा बैद्यनाथ ने तीनों लोकों में खोजा पर वह मुंड नहीं मिला। इसके बाद एक बकरे का सिर काट कर दक्ष के धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिया। इसी के चलते बकरे की ध्वनि – ब.ब.ब. के उच्चरण से महादेव की पूजा करते हैं। इसे गाल बजा कर उक्त ध्वनि के साथ श्रद्धालु बाबा को खुश करते हैं। पौराणिक कथा है कि कैलास से लाकर भगवान शंकर को रावण ने स्थापित किया है। इसी के चलते इसे रावणेश्वर बैद्यनाथ कहा जाता है।
बैद्यनाथ मंदिर का स्वरूप
ऐसी मान्यता है कि बैद्यनाथ मंदिर का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने किया था। पुराणों में वर्णित है कि जब रावण ज्योतिर्लिंग को यहां से ले जाने में असमर्थ रहा और उसने ज्योतिर्लिंग को यहीं छोड़ दिया तब भगवान विष्णु स्वयं इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए आए थे। तब विष्णु ने शिव की षोडशोपचार पूजा की थी। भगवान विष्णु के ही आदेश पर विश्वकर्मा जी के द्वारा इस मंदिर का निर्माण किया गया।
बैद्यनाथ मंदिर की संरचना को देखकर इसके काल के निर्धारण का अनुमान लगाया गया लेकिन इसे लेकर इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं में मत भिन्नता की स्थिति है। कुछ इतिहासकार इसे पालकालीन मानते हैं तो कुछ इसे गुप्तकालीन बताते हैं।
बैद्यनाथ धाम मंदिर की संरचना कमल के समान है। बैद्यनाथ धाम का मंदिर ठोस पत्थरों से निर्मित है। मंदिर की ऊंचाई 72 फीट है। इस मंदिर में भगवान बैद्यनाथ का मुख पूर्व दिशा की ओर है। इस मंदिर के प्रांगण में भगवान बैद्यनाथ के मंदिर के अतिरिक्त एक ही परिसर में 21 अन्य मंदिर स्थित हैं।
मंदिर में प्राचीन और आधुनिक दोनों प्रकार की स्थापत्य कला देखने को मिलती है। मंदिर के शीर्ष पर आरोही संरचना में तीन स्वर्ण कलश स्थित हैं। इन स्वर्ण कलश को गिद्धौर के महाराजा राजा पूरन सिंह के द्वारा दान दिया गया था। कहा जाता है कि मंदिर के सामने के कुछ हिस्सों को 1596 में गिद्दौर के महाराजा पूरन सिंह ने बनवाया था। आमेर के शासक राजा मानसिंह के द्वारा एक तालाब का निर्माण करवाया गया था जिसे मानसरोवर कहा जाता है। विदित हो कि गिद्धौर के राज परिवार और आमेर के राज परिवार के मध्य वैवाहिक संबंध थे।
बाबा बैद्यनाथ धाम के प्रांगण में स्थित मंदिर
माँ पार्वती मंदिर | माँ जगत जननी मंदिर | गणेश मंदिर | ब्रह्मा मंदिर | संध्या मंदिर | कल मनाशा मंदिर | हनुमान मंदिर |
माँ मनशा मंदिर | माँ सरस्वती मंदिर | सूर्य नारायण मंदिर | माँ बागला मंदिर | राम मंदिर | आनंद भैरव मंदिर | माँ गंगा मंदिर |
गौरी शंकर मंदिर | माँ तारा मंदिर | माँ काली मंदिर | माँ नारदेश्वर मंदिर | माँ अन्नपूर्णा मंदिर | लक्ष्मी नारायण मंदिर | नीलकंठ मंदिर |
मुख्य मंदिर के गर्भ गृह में भगवान बैद्यनाथ विराजमान हैं। बैद्यनाथ लिंग की संरचना बेलनाकार है जिसका व्यास लगभग 5 इंच है। प्रारंभ में यह सतह से ऊपर होता था लेकिन भक्तों के द्वारा निरंतर स्पर्श होने से इसमें घिसाब आ गया। वर्तमान में इसके ऊपर एक आवरण चढ़ा दिया गया है जो देखने में शिवलिंग के सदृश्य प्रतीत होता है। ज्योतिर्लिंग बेसाल्ट पत्थर के एक बड़े से आधार पर स्थित है। इस पत्थर का व्यास लगभग 8 इंच है।
इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके शीर्ष पर त्रिशूल नहीं, ‘पंचशूल’ है, जिसे सुरक्षा कवच माना गया है। अन्य सभी ज्योतिर्लिंग के मंदिरों के शीर्ष पर ‘त्रिशूल’ है, परंतु बाबा बैद्यनाथ के मंदिर में ही पंचशूल स्थापित है। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि भगवान शंकर ने अपने प्रिय शिष्य शुक्राचार्य को पंचवक्त्रम निर्माण की विधि बताई थी, जिनसे फिर लंकापति रावण ने इस विद्या को सीखा था। कहा जाता है कि रावण ने लंका के चारों कोनों पर पंचशूल का निर्माण करवाया था, जिसे राम के द्वारा तोड़ना आसान नहीं हो रहा था। बाद में विभीषण द्वारा इस रहस्य की जानकारी भगवान राम को दी गई और तब जाकर अगस्त मुनि ने पंचशूल ध्वस्त करने का विधान बताया था। रावण ने उसी पंचशूल को इस मंदिर पर लगाया था, जिससे इस मंदिर को कोई क्षति नहीं पहुंचा सके। सुरक्षा कवच के कारण ही इस मंदिर पर आज तक किसी भी प्राकृतिक आपदा का असर नहीं हुआ है।
मानव शरीर में पांच प्रकार के विकार माने गए हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह और ईर्ष्या। पंचशूल इन सभी मानवीय विकारों से भक्तों को संरक्षित करता है। इसके अतिरिक्त पंचशूल को 5 पंचतत्वों क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर का द्योतक तक माना जाता है।
यहां प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि से 2 दिन पूर्व बाबा बैद्यनाथ मंदिर, मां पार्वती मंदिर और लक्ष्मी नारायण मंदिर के ऊपर से पंचशूल को उतारा जाता है। अन्य मंदिरों के शीर्ष से पंचशूल को इससे कुछ दिन पहले ही उतार लिया जाता है। जब पंचशूल को उतारा जाता है तो उसे छूने के लिए भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। महाशिवरात्रि से एक दिन पूर्व सभी पंचशूलों की विशेष पूजा की जाती है। इस दौरान बाबा बैद्यनाथ और पार्वती मंदिर के गठबंधन को हटा दिया जाता है। महाशिवरात्रि के दिन नया गठबंधन किया जाता है। गठबंधन के लाल पवित्र कपड़े को प्राप्त करने के लिए भी भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है
इस मंदिर की विशेषता है कि यहां शिवलिंग पर मंदिर के ऊपर लगे चंद्रकांत मणि से बराबर बूंद-बूंद जल टपकता रहता है। मान्यता के अनुसार, चंद्रकांत मणि रावण ने यहां धन-देवता कुबेर से हासिल कर लगवाया था। चंद्रकांत मणि अष्टदल कमल की आकृति के बीच में लगा हुआ है।
ऐसी जनश्रुति है कि मंदिर के गर्भ गृह के शीर्ष पर आठ पंखुड़ियों वाला कमल रत्न चंद्रकांत मणि विराजमान है। हालांकि यह चंद्रमणि दिखाई नहीं देता है। इस चंद्रकांत मणि से टपकने वाली जल की बूंदों से ज्योतिर्लिंग का जलाभिषेक होता है। यहां के पुजारियों का कहना है कि मंदिर में रात में होने वाली श्रृंगार पूजा में शिवलिंग पर जो चंदन का लेप चढ़ाया जाता है उसके ऊपर रात भर चंद्रकांत मणि से बूंदें टपकती रहती हैं। इस कारण से सुबह के समय इस चंदन को लेने के लिए भक्तों की भारी भीड़ लगी रहती है। भक्त इस घाम चंदन को अमृत के समान मानते हैं। भक्तों का मानना है कि इसके प्रभाव से सभी कष्टों का निवारण हो जाता है।
यहां के पुजारियों का कहना है कि बैद्यनाथ मंदिर में चंद्रकांत मणि के होने का पता 1962 में चला। उस समय सरकार भक्तों की सुविधा को देखते हुए इस मंदिर में एक और दरवाजा बनवाने के लिए खुदाई करवा रही थी। चंद्रकांत मणि के मिलने के बाद दूसरा दरवाजा बनवाने के लिए होने वाली खुदाई को रोक दिया गया। अभी भी इस मंदिर में एक ही दरवाजा है, उसी से प्रवेश होता है और उसी से निकास। यहां के पुजारी यह भी दावा करते हैं कि एक और चंद्रमणि देवी लक्ष्मी के मंदिर में है।
बाबा बैद्यनाथ मंदिर समय सारणी
पट्ट खुलेगा | प्रातः 4:00 बजे |
काँचा जल | प्रातः 4:10 बजे |
पट्ट बंद होगा | दोपहर 2:00 बजे |
पट्ट खुलेगा | संध्या 6:00 बजे |
श्रृंगार पूजा | संध्या 6:10 बजे |
पट्ट बंद होगा | रात्रि 8:00 बजे |
विशेष दिनों में मंदिर की समय सारणी में परिवर्तन भी किया जाता है। |
बैद्यनाथ धाम को हाद्रपीठ क्यों कहते हैं?
बाबा बैद्यनाथ धाम एकमात्र स्थल है जहां ज्योतिर्लिंग होने के साथ-साथ शक्तिपीठ की है। शक्तिपीठ होने का वर्णन विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। धर्म ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार एक बार दक्ष प्रजापति ने शिवजी से अपमानित होने के पश्चात बृहस्पति नामक यज्ञ प्रारंभ किया। शिवजी से नाराज होने की वजह से दक्ष प्रजापति ने शिव जी को निमंत्रण नहीं दिया। उनके अतिरिक्त इस यज्ञ में सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया गया था। जब दक्ष प्रजापति की पुत्री और शिव जी की पत्नी सती को अपने पिता के घर में यज्ञ होने की सूचना मिली तो उन्होंने शिव जी से उस यज्ञ में शामिल होने का अनुरोध किया। शिवजी तो यज्ञ में नहीं गए परंतु सती उस यज्ञ में शामिल हुईं। जब सती वहां गईं तो अपने पिता दक्ष प्रजापति से अपने पति शिवजी के लिए अनादर के शब्द सुनकर बहुत आहत हुईं। स्वयं को अपमानित महसूस करते हुए सती ने यज्ञ की अग्नि में अपनी आहुति दे दी।
यह सुनकर शिव जी अत्यंत क्रोधित हुए और सती के जले हुए शव को कंधे पर रखकर तांडव करने लगे। जब देवताओं ने शिवजी को तांडव करते देखा तो उन्हें संपूर्ण सृष्टि के महाप्रलय की चिंता होने लगी। देवतागण भगवान विष्णु के पास गए और उन्होंने भगवान विष्णु से इसका उपाय करने को कहा। भगवान विष्णु ने लोक कल्याण के लिए सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर के 52 टुकड़े कर दिए। जिन-जिन स्थानों पर देवी सती का अंग गिरा उन स्थानों को शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। बाबा बैद्यनाथ धाम में देवी सती का ह्रदय गिरा था इसलिए इस स्थान को हाद्रपीठ भी कहा जाता है।इस रूप में बाबा बैद्यनाथ धाम शिव और शक्ति दोनों का केंद्र स्थल है।
प्रसिद्ध श्रावण मेला
बैद्यनाथ मंदिर में हर साल जुलाई और अगस्त के महीने में (हिंदू पंचांग के अनुसार सावन महीने में) श्रावण मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें देश के सभी भागों से लगभग 7 से 8 मिलियन भक्त आते हैं। यहां आने वाले भक्त सुल्तानगंज से गंगा का जल एकत्र करते हैं और फिर नंगे पांव उस जल को कांवड़ में लेकर बैद्यनाथ तक जाते हैं जो कि लगभगग 108 किलोमीटर दूर है। इस जलसे भक्त बाबा बैद्यनाथ पर जलाभिषेक करते हैं और उनकी कृपा पाते हैं। जो मनुष्य श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान बैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग नष्ट हो जाता है। इसलिए बैद्यनाथ धाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है।
बाबा बैद्यनाथ धाम कैसे पहुंचें
रेल मार्ग द्वारा यात्रा : देवघर स्थित बाबा बैजनाथ मंदिर जाने के लिए सबसे प्रमुख रेलवे स्टेशन जसीडीह जंक्शन है। जसीडीह जंक्शन दिल्ली-पटना-हावड़ा रेल मार्ग पर स्थित है। जसीडीह से देवघर की दूरी लगभग 10 किलोमीटर है। यहां सभी एक्सप्रेस और पैसेंजर ट्रेनें रुकती हैं। बैद्यनाथधाम और देवघर स्टेशन से उतर कर भी बाबा बैद्यनाथ मंदिर जाया जा सकता है। हालांकि बैद्यनाथधाम और देवघर स्टेशन पर बहुत सीमित रेलगाड़ियों का परिचालन और ठहराव है
सड़क मार्ग द्वारा यात्रा : देवघर सड़क मार्ग द्वारा रांची पटना कोलकाता भुवनेश्वर जमशेदपुर भागलपुर इत्यादि शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। देवघर कोलकाता से 375 किलोमीटर, पटना से 283 किलोमीटर, रांची से 252 किलोमीटर दूर है। टैक्सी या निजी वाहन के द्वारा उड़ी बाबा बैद्यनाथ मंदिर के दर्शन के लिए आया जा सकता है।
हवाई जहाज द्वारा : जुलाई 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देवघर स्थित अटल बिहारी वाजपेयी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का उद्घाटन किया। इसके पश्चात देवघर से हवाई जहाजों के परिचालन शुरू हो गया। यहां से दिल्ली पटना रांची जैसे शहरों के लिए हवाई जहाज की सुविधा उपलब्ध है। बाबा बैद्यनाथ के दर्शन के इच्छुक व्यक्ति इस हवाई सुविधा का लाभ ले सकते हैं।
उपसंहार
बाबा बैद्यनाथ धाम स्थित ज्योतिर्लिंग का स्थान 12 ज्योतिर्लिंगों में नौवां है। इस ज्योतिर्लिंग को कामना लिंग भी कहा जाता है। बाबा बैद्यनाथ धाम में ज्योतिर्लिंग होने के साथ-साथ शक्तिपीठ भी है। यहां देवी सती का हृदय गिरा था इसलिए इसे हाद्रपीठ भी कहा जाता है। प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान भोले के भक्त सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर इस ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करते हैं और भगवान शिव आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ऐसा माना जाता है कि सच्ची श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजा करने वाले सभी भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं और उनके सभी कष्टों का निवारण हो जाता है।
हर हर महादेव…
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I’m resident of deoghar..but yet anaware of some fact..which is being mentioned here.. thankyou Mr.pawan for all the information.
Great 👍.. keep it up