अष्टावक्र कौन थे?

अष्टावक्र कौन थे?

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सामान्यतः जब किसी व्यक्ति के हाथ-पैर में कोई विकृति होती है तो लोग उपहासवश उसे अष्टावक्र कह देते हैं। लेकिन क्या अष्टावक्र का संबंध केवल अंगों की विकृति से है या उनकी लोकप्रियता का आधार उनका आत्मज्ञान था। इस आलेख में अष्टावक्र से जुड़े विभिन्न प्रसंगों का उल्लेख किया गया है जिसके माध्यम से यह समझने का प्रयास किया गया है कि अष्टावक्र कौन थे और किस प्रकार अष्टावक्र की विद्वता ने भारतीय दर्शन को नई ऊंचाइयां प्रदान कीं।  

आत्मज्ञानी अष्टावक्र के सम्बन्ध में अनेक उपाख्यान प्रचलित हैं – महाभारत के वन पर्व के अतर्गत ‘तीर्थ यात्रा पर्व’ में महर्षि लोमश ने अपने आश्रम में युधिष्ठिर को अष्टावक्र के सम्बन्ध में एक विस्तृत उपाख्यान सुनाया जो अत्यन्त रोचक है।

अष्टावक्र के पिता का नाम मुनि कहोड एवं माता का नाम सुजाता था। कहोड ऋषि महर्षि उद्दालक के शिष्य थे। महर्षि उद्दालक ने सेवाव्रती कहोड को वेदों में पारंगत जानकर अपनी पुत्री सुजाता का विवाह कहोड के साथ कर दिया। आचार्य अष्टावक्र इन्हीं कहोड और सुजाता की संतान थे। महर्षि उद्दालक के ज्ञानी पुत्र श्वेतकेतु अष्टावक्र के मामा थे। 

अष्टावक्र के बारे में बहुत सारी दंतकथायें प्रचलित हैं। उनमें से तीन कथाओं का उल्लेख यहां किया जा रहा है। जिनसे पता चलता है कि वे ज्ञानियों के शिरोमणि थे। अल्पायु में ही इन्हें आत्मज्ञान हो गया था।

अष्टावक्र के टेढ़े-मेढ़े अंगों की कथा

अष्टावक्र के अंग जन्म से ही आठ जगहों से टेढ़े-मेढ़े थे और वे देखने में भी कुरूप थे। जन्म से ही अंगों के टेढ़े-मेढ़े होने के पीछे भी एक कथा है जिसका वर्णन आगे किया गया है –

एक बार जब कहोड मुनि वेद पाठ कर रहे थे तो सुजाता के गर्भस्थ बालक ने उनके गलत उच्चारण एवं व्याख्या के लिए उनको टोक दिया। इन्होंने गर्भ में से ही अपने पिता से कहा – रुको, यह सब बकवास है, शास्त्रों में ज्ञान कहाँ? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है। सत्य शास्त्रों मे नहीं स्वयं में है। शास्त्र शब्दों का संग्रह मात्र है।

उनके पिता इस प्रकार का वचन सुनकर अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने कहा – अपनी मां के पेट से ही तू टेढ़ी-मेढ़ी बातें कर रहा है, जब पैदा होगा तो ना जाने क्या करेगा।

कहोड मुनि ने बालक को शाप देते हुए कहा – तू टेढ़ी-मेढ़ी बातें कर रहा है इसलिए तेरे शरीर के अंग आठ जगहों से टेढ़े-मेढ़े रहेंगे।

ऐसा ही हुआ भी। इसलिए उनका नाम पड़ा ‘अष्टावक्र’। 

अष्टावक्र और राजा जनक

अष्टावक्र के संबंध में जो दूसरी कथा ज्ञात है वह यह है कि जब वे बारह वर्ष के थे तब राजा जनक ने देश के सभी बडे़-बडे़ विद्वानों को बुलाकर एक सभा का आयोजन किया जिसमें तत्त्व-ज्ञान पर शास्त्रार्थ रखा गया था। इसमें यह भी घोषणा हुई थी कि जो इसमें जीतेगा उसे सींगों पर स्वर्ण मढ़ी हुई सौ गायें दी जाएंगी। शास्त्रार्थ में भाग लेने के लिये देश के बडे़-बडे़ विद्वान एकत्र हुए। इसमें अष्टावक्र के पिता भी सम्मिलित हुए। 

शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और लम्बे समय तक चलता रहा। तत्त्व ज्ञान पर चर्चा चल रही थी। सायंकाल को अष्टावक्र को खबर मिली कि उनके पिता और सभी से तो जीत गए हैं किन्तु एक पण्डित से हार रहे हैं। यह सुनकर अष्टावक्र भी वहाँ सभा में पहुँच गए। 

सभा पण्डितों की ही थी। उनमें आत्मज्ञानी तो कोई था नहीं। अष्टावक्र जब अपने टेढ़े-मेढ़े रूप के साथ उस सभा में पहुँचे तो उनकी आकृति व चाल-ढाल देखकर सभी सभासद हँस पडे। थोडी देर रुकने के बाद अष्टावक्र भी उन सभासदों को देखकर जोर से हँसे। 

उनकी हँसी देखकर राजा जनक ने उनसे पूछा – ये विद्वान क्यों हँसे यह तो मैं समझ गया किन्तु तुम क्यों हँसे, यह मेरी समझ में नहीं आया। 

इस पर अष्टावक्र ने कहा – मैं इसलिए हँसा कि इन चर्मकारों की सभा में आज सत्य का निर्णय हो रहा है। ये चर्मकार यहाँ क्या कर रहे हैं। 

बारह वर्ष का बालक कितना अनूठा रहा होगा, कितना आत्मविश्वासी एवं प्रतिभाशाली रहा होगा जिसने देश के प्रसिद्ध विद्वानों को चर्मकार की संज्ञा दे डाली। चर्मकार शब्द सुनते ही सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सभी स्तब्ध रह गये। जनक ने जिन्हें विद्वान समझ कर बुलाया था उन्हें कोई आकर चर्मकार कह दे तो यह जनक का भी अपमान था। 

इससे पहले कि ये सभासद अपना रोष प्रकट करते राजा जनक ने स्थिति सम्भालते हुए संयमित होकर अष्टावक्र से पूछा – यह समझ नहीं पाया कि तुम इन्हें चर्मकार क्यों कह रहे हो। 

अष्टावक्र ने कहा – बहुत सीधी सी बात है कि चर्मकार चमड़ी का ही पारखी होता है वह ज्ञान को क्या समझे। ज्ञानी ज्ञान को देखता है चमडी को नहीं। इनको मेरी चमडी ही दिखायी दी, मेरा टेढ़ा-मेढ़ा शरीर ही दिखायी दिया जिसे देखकर ये हँस पडे़, ये चमडी के अच्छे पारखी हैं अतः यह ज्ञानी नहीं हो सकते, चर्मकार ही हो सकते हैं। 

हे राजन्, जैसे मंदिर के टेढ़ा होने से आकाश टेढ़ा नहीं होता और मन्दिर के गोल अथवा लम्बा होने से आकाश गोल अथवा लम्बा नहीं होता, क्योंकि आकाश का मंदिर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। आकाश निरवयव (आकार रहित, निराकार) है तथा मंदिर सावयव है, वैसा ही आत्मा का भी शरीर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि आत्मा निरवयव है और शरीर सावयव। आत्मा नित्य है और शरीर अनित्य। 

शरीर के वक्र आदि धर्म आत्मा के कदापि नहीं हो सकते। हे राजन्! ज्ञानवान को आत्मदृष्टि रहती है, चर्मदृष्टि से अज्ञानी देखते हैं, ज्ञानवान नहीं देखते। 

अष्टावक्र के इन वचनों को सुनकर राजा जनक बडे प्रभावित हुए। वे उनके चरणों में बैठे व शिष्य-भाव से अपनी जिज्ञासाओं का इस बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र से समाधान कराया। यही शंका-समाधान ‘जनक-अष्टावक्र संवाद’ रूप में ‘अष्टावक्र गीता’ है।

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कहीं-कहीं यह कथा थोड़े भिन्न रूप में मिलती है। उस कथा के अनुसार जब अष्टावक्र गर्भ में थे तभी उनके पिता कहोड मुनि मिथिला के राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ के लिए जाते हैं। अष्टावक्र के पिता कहोड राजा जनक के दरबार में उपस्थित एक अन्य विद्वान बंदी से शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते हैं। 

बंदी से जो शास्त्रार्थ में पराजित हो जाता था उसे वह समुद्र में डूबवा देता था। कहोड मुनि भी जब शास्त्रार्थ में पराजित हो गए तो बंदी ने उन्हें समुद्र में डूबवा दिया। जब अष्टावक्र 12 वर्ष के हुए तब वह राजा जनक के दरबार में गए और उन्होंने शास्त्रार्थ में बंदी को पराजित कर अपने पिता के अपमान का बदला लिया।

अष्टावक्र, राजा जनक और आत्मज्ञान

अष्टावक्र के सम्बंध में एक और कथा मिलती है। राजा जनक ने आत्मज्ञान सम्बंधी अनेकों शास्त्रों का अध्ययन किया। एक शास्त्र में लिखा था कि आत्म-ज्ञान बहुत ही सरल है। इसके लिए कुछ करना नहीं पडता। घोडे़ पर चढ़ने के लिए उसके पागडे़ में एक पांव रखें व दूसरे पागडे़ में रखने में जितना समय लगता है, उससे भी कम समय में आत्म-ज्ञान संभव है। 

राजा जनक मुमुक्षु (जिज्ञासु) थे। वे इसकी सत्यता की परख करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने बड़े-बड़े विद्वानों के समक्ष कहा – आत्म-ज्ञान के संबंध में कहे गए इस कथन को सत्य प्रमाणित कीजिए। 

वे सभी विद्वान तो पण्डित ही थे जिन्हें शास्त्रों का पुस्तकीय ज्ञान मात्र था। वे शास्त्रार्थ करने में तो प्रवीण थे परंतु स्वयं आत्म-ज्ञानी नहीं होने से ज्ञान प्राप्ति के इस रहस्य को सत्य प्रमाणित करने में असमर्थ थे। सब ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हम तो पण्डित मात्र हैं। आत्म ज्ञान का हमें कुछ पता नहीं है कि यह कैसे होता है? 

यह सुनने के पश्चात राजा जनक ने सभी को कारावास में डाल देने का आदेश दिया। जब अष्टावक्र ने यह समाचार सुना तो वे स्वयं राजा जनक के पास गये एवं उनकी इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कहा – हे राजन्, ऐसा संभव है और शास्त्र जो कहते हैं, वह पूर्ण सत्य है। मैं इसे प्रमाणित करता हूँ। 

अष्टावक्र राजा जनक को लेकर शहर से दूर एकांत स्थान पर गए। वहाँ घोड़ा रोककर जनक से अपना एक पांव घोडे़ के एक पागडे़ में रखने को कहा। राजा जनक ने जब अपना एक पाँव पागडे़ में रख दिया तब अष्टावक्र ने उनसे कहा – अब बताएं आपने शास्त्रों में क्या पढ़ा? 

राजा जनक ने वही बात फिर दोहरायी – आत्म-ज्ञान बहुत ही सरल है। 

इस पर अष्टावक्र ने पूछा – यह तो सत्य है किन्तु इसके आगे आपने क्या पढ़ा? 

राजा जनक ने कहा – इसके लिए पात्रता होनी चाहिए।

इस पर अष्टावक्र बोले – क्या यह शर्त आपने पूरी कर ली है? जब इसकी शर्त ही नहीं पूरी की तो आत्म-ज्ञान कैसे संभव है?

राजा जनक चौंक गए किन्तु वे मुमुक्षु थे। आत्म-ज्ञान की उत्कट इच्छा थी । वे हर कीमत पर इसे प्राप्त करना चाहते थे। वे केवल मानना ही नहीं, जानना भी चाहते थे। वैज्ञानिक की भाति ब्रह्म-ज्ञान को प्रत्यक्ष देखना चाहते थे। जब ऐसा सद्गुरु उन्हें मिल गया तो वे इस अवसर को खोना भी नहीं चाहते थे। 

राजा जनक में तीव्र बुद्धि व प्रतिभा थी, उच्च बोध या रहस्य को समझने की क्षमता थी। इससे भी उच्चकोटि की थी उनकी मुमुक्षा। शास्त्रों के ज्ञाता होने के कारण वे जानते थे कि पात्रता के लिए आवश्यक है – अहंकार से मुक्ति, पूर्ण समर्पण, शरीर व मन के भावों से मुक्ति, शास्त्र व ज्ञान से मुक्ति, सभी प्रकार के बाध्य उपादानों से अपने आपको मुक्त कर देना। 

इन सबका कारण अहंकार है जिसके छूटते ही व्यक्ति का आत्मा से उसी क्षण सम्पर्क हो जाता है, थोडी भी देरी नहीं होती। सारी देरी लगती है तो इन सबके प्रति अपनी धारणा, अपनी दृष्टि बदलने में।} यदि दृष्टि बदल गयी तो सबकुछ बदल जाता है। यह दृष्टि परिवर्तन, बोध से ही संभव है किन्तु बोध न होने पर साधना आवश्यक होती है जिससे बोध हो जाय। 

राजा जनक ने अष्टावक्र के सामने उसी समय समर्पण कर दिया और कहा – यह शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार सब कुछ मैं आपको समर्पित करता हूँ। समर्पण भाव आते ही अहंकार खो गया, स्थूल से संबंध छूट गया, सूक्ष्म में प्रवेश कर गये। 

अष्टावक्र गीता का सार

अष्टावक्र गीता क्या है?अष्टावक्र गीता भारतीय आध्यात्म का शिरोमणि ग्रन्थ है, जिसकी तुलना अन्य किसी ग्रन्थ से नहीं की जा सकती। अष्टावक्र गीता की रचना अष्टावक्र के द्वारा हुई है। यह अद्वैत वेदांत का ग्रंथ है। अष्टावक्र गीता 20 अध्यायों में संकलित है। संपूर्ण ग्रंथ अष्टावक्र और राजा जनक के मध्य संवाद के रूप में है। अध्यात्म की यह पुस्तक ज्ञान को सारी क्रियाविधि के केंद्र में रखती है।

अष्टावक्र गीता का आरम्भ मुमुक्षु राजा जनक द्वारा पूछे गये तीन प्रश्नों से होता है। ये तीन प्रश्न थे –
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो।।1.1।।

अर्थात्

  • पुरुष आत्म-ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है? 
  • संसार के बंधन से कैसे मुक्त हो जाता है अर्थात जन्म-मरण रूपी संसार से कैसे छूट जाता है? 
  • वैराग्य को कैसे प्राप्त होता है? 

सम्पूर्ण आध्यात्म का सार इन तीन प्रश्नों में समाहित है। आध्यात्मिक उपलब्धि में वैराग्य का होना एवं आसक्ति का त्याग पहली शर्त है। इससे होता है आत्म-ज्ञान एवं आत्म-ज्ञान से ही मुक्ति होती है जो जीव की सर्वोपरि स्थिति है। जनक के तीन प्रश्नों का समाधान अष्टावक्र ने तीन वाक्यों में कर दिया।

अष्टावक्र गीता में परमसत्ता का स्वरूप, ज्ञान की अवधारणा, जीव का स्वरूप एवं परमसत्ता के साथ संबंध, सृष्टि की अवधारणा, बंधन-मोक्ष एवं साधना जैसे विषयों पर विचार किया गया है।

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2 thoughts on “अष्टावक्र कौन थे?”

  1. अष्टावक्र के बारे में जानकारी प्राप्त किया.. बहुत सुंदर रचना 🙏

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