विश्वामित्र कौन थे?

विश्वामित्र कौन थे? विश्वामित्र के जीवन से जुड़ी कहानियां

शेयर करें/

भारत में ऋषियों की सुदीर्घ परंपरा रही है। ऋषियों ने अपने ज्ञान और तपस्या के बल पर भारतीय धर्म और संस्कृति को समृद्ध किया है। इसी में एक नाम महर्षि विश्वामित्र का है। गायत्री मंत्र के दृष्टा महर्षि विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर क्षत्रियत्व से ब्राह्मणत्व धारण किया था। वैदिक चिंतन में विश्वामित्र का विशेष स्थान है। महर्षि विश्वामित्र ही ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दृष्टा हैं। वैदिक और पौराणिक कथा प्रसंगों में विश्वामित्र के कार्यों का उल्लेख किया गया है। इस आलेख में विभिन्न प्रसंगों की चर्चा के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया गया है कि विश्वामित्र कौन थे और उनका अवदान क्या था।

Table of Contents

विश्वामित्र का जीवन परिचय

    • पिता का नाम – गाधि
    • माता का नाम – उर्वि
    • जन्म – कार्तिक शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को
    • जन्म स्थान कान्यकुब्ज (कन्नौज)
    • वंश का नाम – कुशिक वंश
    • ब्रह्मर्षि बनने से पहले का नाम विश्वरथ 
    • विश्वामित्र के अन्य नाम – कौशिक, गाधितनय, गाधिसून
    • पत्नी का नाम – दृषद्वती (पहली पत्नी), हेमवती, शीलवती, सांकृति, माधवी, मेनका
    • पुत्र का नाम – ऐसा माना जाता है कि विश्वामित्र के 100 पुत्र थे। कुछ पुत्रों के नाम हैं – देवरात या शुनः शेप, हिरण्याक्ष, कति, रेणु, सांस्कृति, गालव, मुग्दल, मधुच्छंद, अष्टक, कच्छप, हारीत इत्यादि
    • आश्रम का नाम – सिद्धाश्रम (तपोवन में गंगा-सरयू संगम के निकट स्थित)
    • रचित पुस्तकें – विश्वामित्र कल्प, विश्वामित्र संहिता एवं विश्वामित्र स्मृति
    • योगदान – ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दृष्टा, गायत्री मंत्र के द्रष्टा, हिंदू धर्म में तपस्या के महत्व को स्थापित करने वाले श्रेष्ठ ऋषि

महर्षि विश्वामित्र के जन्म की कथा

प्राचीन काल में एक धर्मात्मा राजा कुश थे। उसकी पत्नी का नाम वेदर्भि था। इनके चार पुत्र हुए जिसमें एक का नाम कुशनाभ था। कुशनाभ ने पुत्रकामेष्टी यज्ञ किया जिससे गाधि नामक पुत्र हुआ।

गाधि की पुत्री का नाम सत्यवती था। सत्यवती का विवाह भृगु ऋषि के पुत्र ऋचीक के साथ हुआ। विवाह के उपरांत भृगु ऋषि ने सत्यवती को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया और उनसे वर मांगने के लिए कहा। सत्यवती ने अपनी माता के लिए पुत्र की कामना की।  

भृगु ऋषि ने सत्यवती को दो चरु (यज्ञ का प्रसाद) पात्र दिए और कहा कि एक तुम्हारे लिए है और दूसरा तुम्हारी माता के लिए। जब तुम दोनों ऋतु स्नान कर लेना तो पुत्र की कामना लेकर तुम गूलर के पेड़ का आलिंगन करना और तुम्हारी माता पीपल का आलिंगन करेगी। जब तुम इस चरु पात्र का सेवन करोगी तुम्हारी कामना पूर्ण होगी।

गलती से चरु पात्र बदल गया परिणामतः जो चरु सत्यवती को ग्रहण करना था उसे उसकी माता ने ग्रहण कर लिया। इससे सत्यवती और उसकी मां से जन्म लेने वाले शिशुओं का अदल-बदल हो गया।

सत्यवती की माता के गर्भ से विश्वरथ का जन्म हुआ जो बाद में चलकर महर्षि विश्वामित्र हुए। वहीं सत्यवती के गर्भ से सप्त ऋषियों में स्थान पाने वाले महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि के पांचवें पुत्र भगवान परशुराम थे। चरुओं के अदल-बदल जाने के कारण ही महर्षि विश्वामित्र जो क्षत्रिय कुल में पैदा हुए थे ब्राह्मण धर्म का पालन करते थे वहीं परशुराम ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे परंतु क्षत्रिय धर्म का पालन करते थे।

परशुराम के जन्म की कथा एवं जीवन परिचय के लिए निम्न आलेख देख सकते हैं –
भगवान विष्णु के परशुराम अवतार की कथा

महर्षि विश्वामित्र के पूर्वजों में महर्षि जह्नु थे जो गंगा से नाराज होकर उसका सारा जल पी गए थे। 

गायत्री मंत्र के दृष्टा

ऋग्वेद में 10 मंडल हैं। इन 10 मंडलों को अलग-अलग ऋषियों के द्वारा रचा गया है। महर्षि विश्वामित्र ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दृष्टा हैं। इस कारण तीसरे मंडल को वैश्वामित्र मंडल कहा जाता है। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के 62वें सूक्त में गायत्री मंत्र का वर्णन किया गया है। 

गायत्री मंत्र :- 

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

अर्थात उस प्राणस्वरूप, दुखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपने अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें। गायत्री मंत्र को सभी वेद मंत्रों का मूल कहा जाता है। 

तीसरे मंडल में इंद्र, अदिति, अग्नि, उषा, अश्विनी आदि देवताओं की स्तुतियों के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म और गौ महिमा का वर्णन किया गया है।

सातवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में शामिल

विभिन्न मन्वंतरों में अलग-अलग सप्तर्षि हुए हैं जिनका उल्लेख विष्णु पुराण सहित विभिन्न धर्मग्रंथों में किया गया है। सातवें मन्वंतर में जिन 7 ऋषियों का उल्लेख किया गया है उनमें महर्षि विश्वामित्र भी शामिल हैं। सातवें मन्वंतर में शामिल सप्तर्षि हैं – वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

महर्षि विश्वामित्र और वशिष्ठ के मध्य संघर्ष

ऐसे कई कथा प्रसंगों का उल्लेख वेदों एवं पुराणों में किया गया है जहां महर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के मध्य संघर्ष हुआ है। महर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के मध्य परस्पर युद्ध का भी उल्लेख कई जगहों पर मिलता है। महर्षि वशिष्ठ विश्वामित्र के ब्राह्मणत्व को स्वीकार नहीं करते थे क्योंकि विश्वामित्र का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। इस कारण दोनों ऋषियों के मध्य संघर्ष होता था।

नंदिनी गाय के लिए युद्ध

यह संघर्ष तब हुआ जब विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व ग्रहण नहीं किया था। उस समय वह कान्यकुब्ज के राजा थे और उनका नाम विश्वरथ था। 

एक बार जब दिग्विजय के पश्चात विश्वरथ अपने राज्य की ओर वापस लौट रहे थे तो रास्ते में वे महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में रुके। महर्षि वशिष्ठ ने नंदिनी गाय की सहायता से विश्वरथ सहित उनकी पूरी सेना का भरपूर स्वागत किया। नंदनी की विशिष्टता को जानकर विश्वरथ उस गाय को प्राप्त करने के लिए लालायित हो गए। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से कहा कि यह गाय वह उन्हें दे दें। महर्षि वशिष्ठ ने इससे इनकार कर दिया। 

महर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के मध्य युद्ध

इससे क्रोधित होकर विश्वरथ ने बलपूर्वक उस गाय को प्राप्त करना चाहा। वशिष्ठ का अनिष्ट जानकर नंदिनी क्रुद्ध हो गई और उसने अपने बल व पराक्रम का प्रभाव दिखाते हुए विश्वरथ सहित उनकी पूरी राजकीय सेना को पराजित कर दिया।

इस पराजय से विश्वरथ को यह पता चल गया कि राजबल की तुलना में ब्रह्मबल अधिक श्रेष्ठ है। इसके पश्चात विश्वरथ राजकाज छोड़कर कठिन तपस्या में रत हो गए। अपनी कठिन तपस्या से वे तपस्वी, राजर्षि और फिर ब्रह्मर्षि बने। इसके पश्चात उनका नाम विश्वामित्र हो गया।

दशराज्ञ युद्ध में महर्षि विश्वामित्र की पराजय

दशराज्ञ युद्ध या दासराज युद्ध का वर्णन ऋग्वेद के सातवें मंडल में किया गया है। दशराज्ञ युद्ध को दस राजाओं का युद्ध भी कहा जाता है। इस युद्ध में एक ओर भरत वंश के राजा सुदास थे तथा दूसरी ओर दस जनों के राजा शामिल थे। इन 10 राजाओं में अनु, यदु,  द्रुहु, पुरु, तुर्वशु, अलीन  पक्थ, भलान, विषाणन और शिवि शामिल थे। दशराज्ञ युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे लड़ा गया था।

दशराज्ञ युद्ध में महर्षि वशिष्ठ सुदास की ओर से एवं महर्षि विश्वामित्र दस राजाओं के समूह की ओर से शामिल थे। इस युद्ध में भरतों के राजा सुदास ने विजय प्राप्त की थी। इस युद्ध के पश्चात सुदास का आर्य जनों पर आधिपत्य स्थापित हो गया।

विश्वामित्र और वशिष्ठ के मध्य विवाद : तपस्या बड़ी है या सत्संग

महर्षि वशिष्ठ विश्वामित्र को ब्राह्मण स्वीकार नहीं करते थे। बीच-बीच में दोनों में कुछ विवाद भी हो जाया करता था। एक बार दोनों में यह विवाद हुआ कि तपस्या बड़ी है या सत्संग। विश्वामित्र तपस्या के पक्ष में थे और वशिष्ठ सत्संग के। इस विवाद का निर्णय करने के लिए दोनों भगवान शेषनाग के पास पहुंचे। 

भगवान शेषनाग ने दोनों की बातें सुनीं और कहा – मेरे सिर पर इतनी बड़ी पृथ्वी का भार है। तुम में से कोई एक क्षण के लिए इसे अपने पास ले लो तो मैं निर्णय करूं। 

विश्वामित्र ने अपनी हजारों वर्ष की तपस्या के फल का संकल्प करके एक क्षण तक पृथ्वी को धारण करना चाहा पर वह कर ना सके। वशिष्ठ ने एक क्षण के सत्संग का फल लगाकर समस्त पृथ्वी को धारण कर लिया। बिना कुछ कहे ही निर्णय हो गया कि तपस्या महत्वपूर्ण है या सत्संग। इसके पश्चात दोनों वापस चले आए। 

विश्वामित्र और वशिष्ठ में मित्रता

महर्षि वशिष्ठ के साथ निरंतर संघर्ष एवं विवाद के कारण महर्षि विश्वामित्र के मन में वशिष्ठ को लेकर कुछ दुर्भावना शेष थी। एक दिन वह दुर्भावना पूर्वसंस्कारवश उभर आई और वे वशिष्ठ का अनिष्ट करने के लिए उनके आश्रम पहुंच गए। उस समय अरुंधति और वशिष्ठ आपस में विश्वामित्र की ही चर्चा कर रहे थे। 

अरुंधति ने कहा – आजकल विश्वामित्र के तप की बड़ी प्रशंसा हो रही है। सुना है कि वह अपने तपोबल से क्षत्रिय से ब्राह्मण हो गए हैं। 

इस पर महर्षि वशिष्ठ ने कहा – सत्य है, वर्तमान में विश्वामित्र बहुत ही ऊंचे तपस्वी हैं। उनके ब्राह्मण होने में भला किसे संदेह है। 

वशिष्ठ को एकांत में इस प्रकार की बातें करते सुन विश्वामित्र का मन निर्मल हो गया। इसके पश्चात महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र के मध्य मित्रता स्थापित हो गई।

राम और विश्वामित्र

ताड़का का वध और यज्ञ की पूर्णाहुति

जिस वन में महर्षि विश्वामित्र का आश्रम था उसी वन में ताड़का नाम की एक राक्षसी रहती थी। उस वन को सुंदरवन या तड़का वन कहा जाता था। ताड़का का पुत्र मारीच और सुबाहु था। ये सभी ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ में तरह-तरह से बाधा पहुंचाते थे।

यज्ञ बिना बाधा के संपन्न हो जाए इसके लिए सहयोग मांगने हेतु महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास गए। उन्होंने राजा दशरथ से कहा कि वह अपने पुत्र श्रीराम को हमारे साथ भेज दें ताकि यज्ञ के दौरान कोई बाधा उत्पन्न ना हो। अनिच्छा के बावजूद राजा दशरथ ने श्री राम और लक्ष्मण को यज्ञ में सहयोग देने के लिए विश्वामित्र जी के साथ भेज दिया।

महर्षि विश्वामित्र के साथ श्रीराम और लक्ष्मण

जब महर्षि विश्वामित्र अपने आश्रम में बाधारहित यज्ञ के निष्पादन के लिए प्रभु श्री राम और लक्ष्मण को अपने साथ लेकर आए तो उन्होंने श्री राम को दंडचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, इंद्रचक्र जैसे कई दिव्यास्त्र प्रदान किए। महर्षि विश्वामित्र ने अपनी धनुर्विद्या का एषीकास्त्र, दो दिव्य धनुष तथा दिव्य ब्रह्मास्त्र भी प्रदान किए।

श्री राम और लक्ष्मण ने 6 दिन और 6 रात्रि तक लगातार जागकर विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की। राम जी ने ताड़का और सुबाहु का वध कर एवं मारीच को अपने बाणों से दक्षिणी समुद्र में गिरा कर विश्वामित्र जी के यज्ञ की रक्षा की जिससे बिना किसी विघ्न-बाधा के विश्वामित्र जी के यज्ञ की पूर्णाहुति संभव हो सकी। 

अहिल्या का उद्धार

जब राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के आश्रम में थे उसी समय मिथिला के राजा जनक जी ने विश्वामित्र के पास सीता जी के स्वयंवर का निमंत्रण भेजा। राम और लक्ष्मण को साथ लेकर महर्षि विश्वामित्र जनक जी के निमंत्रण पर मिथिला गए। मिथिला में जब राम और लक्ष्मण विश्वामित्र जी के साथ मिथिला के वन-उपवन को देख रहे थे वहीं उन्हें एक निर्जन आश्रम मिला। 

निर्जन आश्रम को देखकर विश्वामित्र जी ने राम-लक्ष्मण को बताया कि यह पहले महर्षि गौतम का आश्रम था। महर्षि गौतम ने इंद्र द्वारा किए गए छल से कुपित होकर अपनी पत्नी अहिल्या को पत्थर बन जाने का शाप दिया और कहा कि जब प्रभु श्री राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनके स्पर्श से तुम्हारा उद्धार होगा। शाप देकर गौतम ऋषि हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए। 

इतना बताकर विश्वामित्र जी ने श्री राम से कहा कि तुम आश्रम में प्रवेश कर अहिल्या का उद्धार कर दो। श्री राम के आश्रम में प्रवेश करते ही अहिल्या पत्थर से नारी के रूप में प्रकट हो गई। 

सीता जी का स्वयंवर

सीता जी के स्वयंवर में यह शर्त रखी गई थी कि जो शिव जी के धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाएगा उसी के साथ सीता जी का विवाह होगा। स्वयंवर में बड़े-बड़े राजा उपस्थित हुए परंतु उनमें से कोई भी उस धनुष को हिला तक नहीं सका। तब महर्षि विश्वामित्र के आदेश पर श्रीराम ने उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई। प्रत्यंचा चढ़ाने के क्रम में वह धनुष दो भागों में टूट गया। स्वयंवर की शर्तों को पूरा करने के पश्चात श्री राम का विवाह सीता जी के साथ संपन्न हुआ।

महर्षि विश्वामित्र की तपस्या को मेनका द्वारा भंग करना

मेनका और विश्वामित्र की कथा का वर्णन विभिन्न पुराणों में किया गया है। ऋषि विश्वामित्र अपने ब्रह्म बल को बढ़ाने के लिए निरंतर तपस्या में लीन रहते थे। उनकी तपस्या से भयभीत होकर इंद्र ने स्वर्गलोक की अप्सरा मेनका को उनके पास भेजा। मेनका को भेजने का उद्देश्य विश्वामित्र की तपस्या को भंग करना था।

मेनका के रूप और लावण्य से मोहित होकर विश्वामित्र का मन विचलित हो गया और वह अपनी तपस्या पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सके। मेनका के प्रेम में डूब कर विश्वामित्र ने मेनका से विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात विश्वामित्र और मेनका से शकुंतला नामक कन्या का जन्म हुआ जिसका लालन-पालन महर्षि कण्व ने किया। 

बड़े होने पर शकुंतला ने राजा दुष्यंत के साथ गंधर्व विवाह किया जिससे उनका पुत्र भरत उत्पन्न हुआ। ऐसी मान्यता है कि इसी भरत के नाम पर देश का नाम भारत पड़ा है। शकुंतला और दुष्यंत की प्रेमकथा का रोचक वर्णन पुराणों में मिलता है।

त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजना

इक्षवाकु वंश के राजा त्रैय्यारुण के पुत्र सत्यव्रत थे जिन्हें त्रिशंकु के नाम से जाना जाता है। राजा त्रिशंकु यज्ञ के माध्यम से सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने कुल के ऋषि वशिष्ठ से यज्ञ कराने को कहा। परंतु महर्षि वशिष्ठ ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। 

इसके पश्चात राजा त्रिशंकु महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों के पास गए और उनसे भी यही अनुरोध किया कि आप हमारा यज्ञ करा दें ताकि हम सदेह स्वर्ग जा सकें। राजा के इस प्रकार के अनुरोध को महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों ने वशिष्ठ का अपमान समझा और उन्हें शाप दिया कि तुम चांडाल हो जाओ। 

महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों के शाप से दुखी होकर त्रिशंकु महर्षि विश्वामित्र के पास गए और उनसे अनुरोध किया कि वे उन्हें सदेह स्वर्ग भेज दें। महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें इसके लिए यज्ञ कराने का आश्वासन दिया। यज्ञ के लिए महर्षि विश्वामित्र ने विभिन्न ऋषि-मुनियों को निमंत्रण दिया। 

वशिष्ठ के पुत्रों ने यह कहकर यज्ञ में आने से इंकार कर दिया कि जिस यज्ञ में चांडाल यजमान और अब्राह्मण पुरोहित हो उसमें देवता नहीं आ सकते। इससे क्रोधित होकर महर्षि विश्वामित्र ने वशिष्ठ के पुत्रों को शाप दिया कि वे सभी चांडाल हो जाएं।

इसके पश्चात महर्षि विश्वामित्र ने तपस्या के बल से त्रिशंकु को स्वर्ग भेज दिया, परंतु इंद्र आदि देवताओं ने त्रिशंकु को स्वर्ग से वापस भेज दिया जिससे वे बीच में ही लटक गए। ऐसी मान्यता है कि आज भी त्रिशंकु स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में लटके हुए हैं। 

इससे विश्वामित्र क्रोधित हो गए और उन्होंने कहा कि मैं दूसरे स्वर्ग की रचना करूंगा और आकाश में दूसरे ग्रह-नक्षत्र आदि की सृष्टि प्रारंभ कर दी। इससे भयभीत होकर देवता गण विश्वामित्र के पास आए और उनसे ऐसा नहीं करने का अनुरोध किया। देवताओं ने कहा कि ऋषियों के शाप के कारण त्रिशंकु चांडाल हो गए हैं इसलिए वह स्वर्ग नहीं जा सकते हैं। देवताओं के अनुरोध के पश्चात विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के निर्माण का विचार त्याग दिया। 

राजा हरिश्चंद्र के सत्य की परीक्षा

जब राजा हरिश्चंद्र के धर्मात्मा होने की कीर्ति चारों ओर फैलने लगी तो देवराज को असह्य हो गया। उन्होंने विश्वामित्र से हरिश्चन्द्र की परीक्षा करने की प्रार्थना की। महर्षि विश्वामित्र ने इसे स्वीकार कर लिया। विश्वामित्र के तप के प्रभाव में राजा हरिश्चंद्र ने यह सपना देखा कि वह अपना सब कुछ महर्षि विश्वामित्र को दान कर रहे हैं।

अगले दिन महर्षि विश्वामित्र अयोध्या की राजसभा पहुँचे। वहां पहुंचकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र से कहा – राजन्! तुम्हें अपने दान का स्मरण है?

हरिश्चंद्र ने स्वीकार करते हुए कहा – हां भगवन, मुझे स्मरण है।

तब विश्वामित्र ने कहा – यह राज्य अब मेरा है। तुम मेरे राज्य से चले जाओ। 

साथ ही उन्होंने कहा – तुम्हें इस महान् धर्मकार्य के अनुष्ठान की दक्षिणा भी देनी चाहिये। बिना दक्षिणा के कोई धर्मकार्य पूर्ण नहीं होता।और इस कार्य की दक्षिणा है 1000 सोने की मुद्राएं। 

राजा हरिश्चंद्र ने दक्षिणा देना स्वीकार कर लिया। इसके लिए विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को एक महीने का समय दिया।

राजा हरिश्चंद्र की कथा

सब कुछ विश्वामित्र को दान करने के पश्चात हरिश्चंद्र अपनी पत्नी और पुत्र रोहित के साथ काशी चले गए। आय का कोई साधन ना होने के कारण दक्षिणा देने को लेकर हरिश्चंद्र अत्यंत चिंतित हो गए।

 पत्नी से विचार-विमर्श के पश्चात धन की प्राप्ति के लिए उन्होंने पत्नी को बेचना तय किया। एक ब्राह्मण ने दासी के रूप में कार्य कराने के लिए 500 स्वर्ण मुद्राओं के बदले रानी को खरीद लिया। रोहित के अत्यंत रोने-बिलखने के कारण रानी उसे भी अपने साथ ले गई।

विश्वामित्र को 500 स्वर्ण मुद्राएं देने के पश्चात शेष 500 स्वर्ण मुद्राओं के लिए हरिश्चंद्र ने स्वयं को एक चांडाल के पास बेच दिया। चांडाल ने उसे श्मशान घाट पर नियुक्त किया और कहा – कोई कर दिये बिना शव दाह न करने पाये!

इतनी विपरीत परिस्थिति उत्पन्न कर हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के पश्चात भी महर्षि विश्वामित्र को संतुष्टि नहीं हुई। महर्षि विश्वामित्र को हरिश्चन्द्र की पूर्ण परीक्षा करनी थी। 

अचानक एक दिन रात के समय हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित को सर्प ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई। ब्राह्मण ने रात भर रोहित के मृत शरीर को घर में रहने देना स्वीकार नहीं किया परिणामतः रात में ही रानी को अपने मृत पुत्र रोहित को लेकर श्मशान घाट जाना पड़ा।

जिस समय रानी अपने पुत्र का शव लेकर श्मशान घाट आई उस समय हरिश्चंद्र वहीं कार्य कर रहे थे। उन्होंने किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनी तो अनुमान लगाया कि शायद कोई मुर्दा आया है। अंधकार के कारण वह अपनी पत्नी को नहीं पहचान सके। उन्होंने कहा – कुछ करने से पहले शमशान के स्वामी का कर देना होगा।

रानी ने हरिश्चंद्र के स्वर को पहचान लिया और कहा – यह आपके पुत्र रोहित का शव है। सांप के काटने से इसकी मृत्यु हो गई है जिससे इसका दाह तो हो नहीं सकता, प्रवाह करने ही आयी हूँ।

अपने कर्तव्य से विचलित ना होते हुए हरिश्चंद्र ने कहा – जीवन अनित्य है केवल धर्म ही नित्य है। तुम अपने धर्म का पालन करो और मुझे भी अपने धर्म पर स्थित रहने में सहयोग दो।

रानी ने रोते हुए कहा – मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है। मैंने अपनी साड़ी से इसे ढक रखा है।

इस पर हरिश्चंद्र ने कहा – मैं अपने कर्तव्य और धर्म से बंधा हूं। बिना कर लिए मैं कोई क्रिया करने नहीं दे सकता हूं। उसका आधा फाड़कर मुझे कर के रूप में दे दो!

पुत्र के शवाच्छादन को फाड़ने के लिये रानी ने जैसे ही अपने हाथ बढ़ाये श्मशान भूमि में देवराज इन्द्र, धर्मराज तथा महर्षि विश्वामित्र उपस्थित हो गए। धर्मराज ने रोहित को पुनर्जीवित कर दिया और हरिश्चंद्र से कहा कि तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मुझे चांडाल का रूप लेना पड़ा। सत्य के पथ से विचलित ना होने से प्रसन्न होकर महर्षि विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को उसका राज्य पुनः वापस लौटा दिया।

थोड़ी-बहुत भिन्नता के साथ राजा हरिश्चंद्र की यह कथा कई पुराणों में कही गई है।

शुनःशेप द्वारा विश्वामित्र को पिता के रूप में स्वीकार करना 

इक्षवाकु वंश के राजा हरिश्चंद्र ने पुत्र प्राप्ति के लिए वरुण भगवान से प्रार्थना की और कहा – यदि मुझे पुत्र उत्पन्न होता है तो मैं उसे आपको समर्पित कर दूंगा। 

कुछ समय पश्चात जब राजा हरिश्चंद्र को रोहित नामक पुत्र की प्राप्ति हुई तो वरुण देव ने आकर कहा – हे राजन, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो। 

पुत्र मोह में हरिश्चंद्र तरह-तरह के बहाने बनाने लगे। कभी पवित्र तिथि आने के, कभी दांत निकलने के, कभी विद्या ग्रहण करने के बहाने बनाकर हरिश्चंद्र वरुण देव को टालते रहे। जब किसी भी प्रकार से और टालना संभव ना रहा तो हरिश्चंद्र ने अपने पुत्र रोहित से कहा – अब तुम्हारे लिए प्रतिज्ञा पूर्ण करने का समय आ गया है। 

यह सुनकर रोहित जंगल चला गया और वर्षों तक जंगल में ही भटकता रहा। कुछ वर्ष जंगल में भटकने के पश्चात रोहित ने 100 गायों के बदले अजीगर्त के पुत्र शुनःशेप को अपने स्थान पर वरुण देव को समर्पित करने के लिए खरीद लिया। अजीगर्त के तीन पुत्र थे लेकिन पिता ने जयेष्ठ पुत्र को अपने आश्रय का आधार मानते हुए उसकी बिक्री से इनकार कर दिया, वहीं माता ने कनिष्ठ पुत्र को अपनी ममता का आधार मानते हुए रोहित को देने से इंकार कर दिया। तब मध्यम पुत्र शुनःशेप को लेकर रोहित राजा हरिश्चंद्र के पास आ गया।

हरिश्चंद्र ने वरुण देव के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह शुनःशेप की बलि स्वीकार कर लें। क्षत्रिय के स्थान पर ब्राह्मण की बलि को वरुण देव ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात बलि देने के लिए राजसूय यज्ञ की तैयारी प्रारंभ हो गई।

राजसूय यज्ञ में विश्वामित्र, वशिष्ठ एवं जमदग्नि जैसे ऋषि यज्ञकर्ता के रूप में उपस्थित थे। राजसूय यज्ञ में शुनःशेप को रस्सियों से बांधकर पशु बलि के लिए उपस्थित किया गया।

राजसूय यज्ञ में जब कोई भी यज्ञकर्ता शुनःशेप की बलि देने के लिए तैयार नहीं हुए तो शुनःशेप के पिता अजीगर्त ने ही 100 गायों के बदले शुनःशेप की बलि देना स्वीकार किया। अपनी बलि सुनिश्चित जानकर शुनःशेप एक-एक कर विभिन्न देवताओं – प्रजापति, अग्नि, इंद्र, अश्विन, उषा, वरुण की स्तुति करने लगा। उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर वरुण देव ने उसे मुक्त कर दिया। 

यज्ञ की समाप्ति के पश्चात पिता के व्यवहार से दुखी शुनःशेप ने करुणा की मूर्ति महर्षि विश्वामित्र को अपने पिता के रूप में स्वीकार किया।

गालव की कथा

गालव के संबंध में विभिन्न कथाओं का वर्णन पुराणों में किया गया है। एक कथा के अनुसार वैवस्वत मनु की वंश परंपरा में एक राजा त्रैय्यारुण हुए थे। त्रैय्यारुण से महाबली पुत्र सत्यव्रत उत्पन्न हुए।

एक बार सत्यव्रत ने चंचलतावश एक कन्या का अपहरण कर लिया। पुत्र के इस व्यवहार से नाराज होकर त्रैय्यारुण ने सत्यव्रत का त्याग कर दिया और उसे चांडालों के बीच जीवन बिताने का आदेश दिया। अपने पिता के आदेशानुसार सत्यव्रत चांडालों के बीच जाकर रहने लगे।

जिस क्षेत्र में सत्यव्रत रहने गए उसी क्षेत्र में महर्षि विश्वामित्र का आश्रम था, जहां वह अपने बच्चों और पत्नी के साथ रहते थे। जिस समय सत्यव्रत उस क्षेत्र में रहने के लिए आए उस समय महर्षि विश्वामित्र समुद्र किनारे तपस्या करने गए हुए थे। उसी समय इस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा। अकाल के कारण विश्वामित्र के परिवार के लिए जीवन निर्वाह मुश्किल हो गया। तब विश्वामित्र की पत्नी ने 100 गायों के बदले अपने एक पुत्र को गले में रस्सी डालकर बेच दिया।

सत्यव्रत ने विश्वामित्र के उस पुत्र को पहचान लिया और उसे बिक्री से मुक्त कराया। इसके पश्चात उसका पुत्रवत पालन-पोषण किया। सत्यव्रत ने विश्वामित्र को प्रसन्न करने के लिए उनके पुत्र का पालन-पोषण किया था ताकि विश्वामित्र उससे प्रसन्न होकर उसे चंडालत्व से मुक्ति प्रदान कर दें। बाद में जब विश्वामित्र तपस्या से वापस आए तब उन्होंने सत्यव्रत के व्यवहार से प्रसन्न होकर उसे चंडालत्व से मुक्त कर दिया।

विश्वामित्र के पुत्र के गले में पशुओं के समान जो रस्सी डाली गई थी उसी से उसका नाम गालव प्रसिद्ध हो गया। आगे चलकर गालव प्रसिद्ध ऋषियों की श्रेणी में गिने गए।

धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा

विश्वामित्र ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या कर रहे थे। विश्वामित्र की परीक्षा लेने के लिए धर्मराज ने वसिष्ठ का रूप धारण किया और विश्वामित्र के आश्रम पहुंच गए। आश्रम पहुंचकर उन्होंने विश्वामित्र से कहा कि उन्हें भूख लगी है वो उन्हें भोजन कराएं। 

विश्वामित्र उनके लिए भोजन तैयार कराने लगे, लेकिन तब तक ‘वसिष्ठ’ रूपधारी धर्मराज ने अन्य तपस्वियों के पास जाकर भोजन ग्रहण कर दिया। भोजन तैयार होने के बाद जब विश्वामित्र धर्मराज को भोजन के लिए बुलाने आए तो धर्मराज यह कह कर चले गए कि उन्होंने अन्य स्थान से भोजन ग्रहण कर लिया है।

विश्वामित्र उस भोजन को थामकर 100 वर्ष तक मूर्तिवत खड़े रहे। इस दौरान उन्होंने सिर्फ वायु का सेवन किया। जब तक विश्वामित्र भोजन लेकर धर्मराज की प्रतीक्षा में तपस्यारत रहे तब तक गालव ने उनकी सेवा की थी। 100 वर्षों के पश्चात धर्मराज पुनः विश्वामित्र के आश्रम आए और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें ब्रह्मर्षि होने का आशीर्वाद प्रदान किया।

आप इन लेखों को भी देख सकते हैं –
वेदव्यास कौन थे? 
अष्टावक्र कौन थे?


शेयर करें/

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *