सनातन धर्म के लक्षण

सनातन धर्म के लक्षण

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‘सनातन धर्म’ वह होता है जो देश, काल, जाति, अवस्था आदि मर्यादाओं से मर्यादित न होता हुआ मनुष्यमात्र के पास सदा रह सकता है। किसी देश का, किसी काल का, किसी जाति का अथवा किसी अवस्था का धर्म ‘सनातन धर्म नहीं हो सकता। जो सब देशों, सब कालों, सब जातियों और सब अवस्थाओं में मनुष्य के साथ रह सकता है वही सनातन धर्म है। इस आलेख में सनातन धर्म के लक्षणों का वर्णन किया गया है। 

सामान्य शब्दों में ‘सनातन’ शब्द का अर्थ है – नित्य, सदा रहने वाला, अनंत, अजर-अमर, अविनाशी, चिरस्थायी, स्थिर, निश्चित, नियमबद्ध, प्रारंभ से चला हुआ, प्राचीन। इस रूप में यह कहा जा सकता है कि जो धर्म मनुष्य के साथ सदा रह सकता है वह सनातन धर्म है।

जो धर्म सदा से आर्य जाति के साथ रहा है, जिसको ऋषियों ने वेद, स्मृति, पुराण आदि के द्वारा हमें बताया है, जो धर्म हमें पाप करने से या नोचे गिरने से बचाता है और इहलोक तथा परलोक में हमारी सब तरह से उन्नति करता हुआ अन्त में भगवान के चरणों में हमें पहुंचाता है, उसी का नाम सनातन धर्म है। सनातन धर्म अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा, इसका नाश कभी नहीं हो सकता, इसलिये इसका नाम ‘सनातन’ है। 

सनातन धर्म के लक्षण

मनु स्मृति में सनातन धर्म के दस लक्षणों  का उल्लेख किया गया है, वे निम्न हैं –

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिंद्रिय निग्रहः॥ 

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणं॥ मनु ॥

  • (1) धृति – धैर्य 
  • (2) क्षमा – कष्ट सहन करने की शक्ति 
  • (3) दम – मनोविकारों का दमन 
  • (4) अस्तेय – चोरी न करना 
  • (5) शौच – शुद्धता 
  • (6) इंद्रियनिग्रह – इंद्रियों का निग्रह 
  • (7) धी – धारण करने की शक्ति 
  • (8) विद्या – ज्ञान 
  • (9) सत्य – सच्चाई 
  • (10) अक्रोध – क्रोध न करना 

सनातन धर्म में कहा गया है कि मनुष्य को जितना संभव हो सके इन 10 लक्षणों का पालन करना चाहिए। इसी में मनुष्य का कल्याण निहित है। 

वहीं, श्रीमद्भागवत में धर्म के चार लक्षण कहे गये हैं –

कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तज्जनैर्धृतः॥

सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोर्नृप॥

सत्य, दया, तप और दान ये धर्म के चार पाद है। अर्थात् इन चार लक्षणों से युक्त सनातन धर्म कृतयुग में था। लेकिन त्रेता युग में इससे सत्य का, द्वापर युग में दया का और कलियुग में तप का लोप हो गया, जिसके कारण कलियुग में धर्म का सिर्फ चतुर्थ पाद अर्थात दान ही बचा रह गया है।    

इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत  के एक अन्य श्लोक में सनातन धर्म के 30 लक्षण बताए गए हैं। 

सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः॥ 

अहिंसा ब्रह्मचर्ये च त्यागः स्वाध्याय आर्जवं॥ 8 ॥ 

संतोषः समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः॥ 

नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्॥ 9 ॥ 

अन्नाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः॥ 

तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पांडव॥ 10 ॥ 

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः॥ 

सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्॥ 11 ॥ 

नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः॥

इन श्लोकों में वर्णित सनातन धर्म के तीस लक्षण हैं – 

(1) सत्य, (2) दया, (3) तप, (4) शौच, (5) तितिक्षा – सहनशक्ति, (6) ईक्षा – निरीक्षण करना, (7) शम, (8) दम, (9) अहिंसा, (10) ब्रह्मचर्य, (11) त्याग-दान, (12) स्वाध्याय, (13) आर्जव – सरलता, (14) संतोष, (15) समदृष्टि – समता भाव, (16) ग्राम्य विकारों का शमन, (17) मनुष्यों की विपरीत अवस्था का विचार, (18) मौन, (19) आत्मपरीक्षण, (20) अन्नदान, (21) आत्मवद्भाव, (22) परमेश्वर का गुणवर्णन, (23) गुणों का श्रवण, (24) ध्यान, (25) परमात्म सेवा, (26) सत्कर्म, (27) नम्रता, (28) ईश्वर का दास बनकर रहना, (29) ईश्वर के साथ मित्रता, (30) आत्मसमर्पण। 

सनातन धर्म के लक्षण

किसी भी देश, काल और अवस्था में मनुष्य सनातन धर्म के उक्त लक्षणों का अनुपालन कर सकता है। मनुष्य चाहे छोटा हो या बड़ा, धनी हो या निर्धन, सबल हो या निर्बल, उच्च हो या नीच, किसी भी अवस्था में हो, सनातन धर्म के लक्षणों के अनुपालन पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है।

मनुष्य स्वतंत्र रहे अथवा परतंत्र, नगर में रहे अथवा गांव या जंगल में, पहाडों पर विचरण करता हो अथवा रेगिस्तान में भटकता हो, सब काल में और सब अवस्था में सनातन धर्म वह अपने पास रख सकता है। हर एक देश का मनुष्य हर एक अवस्था में इसका पालन कर सकता है। 

सनातन धर्म के इन लक्षणों की विशिष्टता यह है कि इनके पालन के लिये किसी मनुष्य को अपने पंथ, मत अथवा महजब को छोडने की जरूरत नहीं है। हर एक मनुष्य इनका पूर्णतया पालन कर सकता है। इसमें पंथ का आग्रह नहीं है, मत का अभिमान नहीं है। केवल सनातन धर्म के लक्षणों में विश्वास और आस्था के माध्यम से कोई मनुष्य इन गुणों को ग्रहण कर सकता है।  

इस प्रकार अपने रूप में सनातन धर्म अत्यंत ही उदार एवं सार्वभौमिक आधार धारण करता है। यहां आम दुराग्रह के लिये स्थान नहीं है, अन्य मतों से द्वेष नहीं है, यहां अपने विचारों से वैर नहीं है; यहां केवल मनुष्यत्व के विकास की दृष्टि है। जो इन लक्षणों को अपनायेगा वह बिना शुद्धि संस्कार के भी सनातनधर्मी है। मूलतः और प्रभावतः सनातन धर्म मानव धर्म है जिसका एकमात्र उद्देश्य मनुष्य के इहलौकिक और पारलौकिक जीवन का कल्याण करना है।

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