नरसिंह अवतार की कथा

भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की कथा

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जब समस्त लोक दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु के अत्याचार से त्रस्त था तो उसके अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने नरसिंह का अवतार धारण किया और उसका वध किया। नरसिंह अवतार भगवान विष्णु के 10 अवतारों में चौथा अवतार है। हिरण्यकशिपु का जुड़वाँ भाई हिरण्याक्ष था जिसकी हत्या के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण किया था। भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की कथा का विस्तृत वर्णन विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण में किया गया है।

नरसिंह अवतार की कथा

पुराणों में वर्णित कथा कुछ इस प्रकार है –

महर्षि कश्यप और दैत्यों की माता दिति के संसर्ग से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु नामक दो जुड़वा भाइयों का जन्म हुआ था। हिरण्यकशिपु की छोटी बहन का नाम होलिका था। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के जन्म से जुड़ी कथा के लिए पढ़ें –  

भगवान विष्णु के वराह अवतार की कथा

हिरण्यकशिपु और उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष समस्त लोकों पर अत्याचार किया करता था। दोनों भाइयों ने पृथ्वी लोक पर सभी प्रकार के हवन, पूजन, अनुष्ठान इत्यादि धार्मिक क्रियाकलापों को प्रतिबंधित कर दिया था। हिरण्याक्ष ने धरती को ले जाकर समुद्र में छुपा दिया था जिससे समस्त लोकों में अव्यवस्था व्याप्त हो गई थी। इससे मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण किया और हिरण्याक्ष का वध किया।

अपने भाई का वध होने से हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने उन सभी लोगों को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया जो भगवान विष्णु की आराधना करते थे, उन्हें स्मरण करते थे और उनकी भक्ति करते थे।

राक्षसी प्रवृत्ति के हिरण्यकशिपु ने भगवान विष्णु से बदला लेने के लिए शक्ति अर्जित करने की योजना बनाई। अपने दिमाग में ऐसे विचार लेकर वह वन की तरफ निकल पड़ा और भगवान ब्रह्मा की तपस्या में लीन हो गया। वह भगवान ब्रह्मा से अमर होने का वरदान मांग सके इसलिए वह लंबे समय तक कठिन तपस्या करता रहा। इस दौरान वह अपने साम्राज्य के बारे में भी भूल गया।

इंद्र द्वारा हिरण्यकशिपु के राज्य पर आक्रमण

इस दौरान इंद्रदेव को यह ज्ञात हुआ कि हिरण्यकशिपु असुरों का नेतृत्व नहीं कर रहा है। इंद्रदेव ने सोचा कि यदि इस समय असुरों को समाप्त कर दिया जाए तो फिर कभी वो आक्रमण नही कर पाएंगे। हिरण्यकशिपु के बिना असुरों की शक्ति आधी है। अगर इस समय इनको खत्म कर दिया जाए तो हिरण्यकशिपु के लौटने पर उसका आदेश मानने वाला कोई शेष नहीं रहेगा।

ये सोचते हुए इंद्र ने अपने दूसरे देवों के साथ असुरों के साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। इंद्रदेव की अपेक्षा के अनुरूप हिरण्यकशिपु के बिना असुर मुकाबले में कमजोर पड़ गये और युद्ध में हार गये। इंद्रदेव ने असुरों के कई समूहों को समाप्त कर दिया।

हिरण्यकशिपु की राजधानी को तबाह कर इन्द्रदेव ने हिरण्यकशिपु के महल में प्रवेश किया। जहां पर उनको हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू नजर आयी। इंददेव ने हिरण्यकशिपु की पत्नी को बंदी बना लिया ताकि भविष्य में हिरण्यकशिपु के लौटने पर उसके बंधक बनाने का उपयोग कर पाएं। इंद्रदेव जैसे ही कयाधू को इंद्र लोक लेकर जाने लगे महर्षि नारद प्रकट हुए। महर्षि नारद इंद्रदेव के कयाधू को अपने रथ में ले जाते देख क्रोधित हो गये और उसी समय इंद्र को कहा – इंद्रदेव रुक जाएं, आप यह क्या कर रहे हैं।

इंद्रदेव ने नतमस्तक होकर महर्षि नारद से कहा – महर्षि मैंने हिरण्यकशिपु के नेतृत्व से विहीन असुरों पर आक्रमण किया है और मेरा मानना है कि असुरों के आतंक को समाप्त करने का यही समय है।

वहां के विनाश को देखकर महर्षि नारद ने क्रोधित स्वर में कहा – हां ये सत्य है, मैं देख सकता हूं, लेकिन ये औरत इसमें कहां से आयी? क्या इसने तुमसे युद्ध किया? मुझे ऐसा नहीं लग रहा है कि इसने तुम्हारे विरुद्ध कोई शस्त्र उठाया है, फिर तुम उसको क्यों चोट पहुंचा रहे हो? 

इंद्रदेव ने महर्षि नारद की तरफ देखते हुए जवाब दिया – वह उसके शत्रु हिरण्यकशिपु की पत्नी है जिसे वो बंदी बना कर ले जा रहे हैं ताकि हिरण्यकशिपु कभी आक्रमण करे तो वो उसका उपयोग कर सकें। महर्षि नारद ने गुस्से में इन्द्रदेव को कहा – केवल युद्ध जीतने के लिए दूसरे की पत्नी का अपहरण करोगे। इस निरपराध स्त्री को ले जाना महापाप होगा।

इंद्रदेव के लिए महर्षि नारद की बात सुनने के बाद कयाधू को मुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इंद्रदेव ने कयाधू को छोड़ दिया। कयाधू ने महर्षि नारद को उसका जीवन बचाने के लिए धन्यवाद दिया। 

महर्षि नारद ने कयाधू से पूछा – असुरों के विनाश के बाद वह अब कहां रहेगी। कयाधू उस समय गर्भवती थी और अपनी संतान की रक्षा के लिए उसने महर्षि नारद से उसकी देखभाल करने की प्रार्थना की। महर्षि नारद उसको अपने घर लेकर चले गये और उसकी देखभाल की। 

इस दौरान नारद कयाधू को विष्णु भगवान की कथाएं भी सुनाया करते थे जिसको सुनकर कयाधू को भगवान विष्णु से लगाव हो गया था। उसके गर्भ में पल रहे शिशु को भी विष्णु भगवान की कहानियों ने मोहित कर दिया था।

हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा का वरदान

इसी क्रम में समय गुजरता गया। एक दिन स्वर्ग की वायु इतनी गर्म हो गयी थी कि सांस लेना मुश्किल हो रहा था। कारण खोजने पर देवों को पता चला कि हिरण्यकशिपु की तपस्या बहुत प्रचंड हो गयी थी जिसने स्वर्ग को भी गर्म कर दिया था। इस असहनीय गर्मी को देखते हुए देवता गण भगवान ब्रह्मा के पास गये और मदद के लिए कहा। भगवान ब्रह्मा को हिरण्यकशिपु से मिलने के लिए धरती पर प्रकट होना पड़ा। भगवान ब्रह्मा हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या से बहुत प्रस्सन हुए और उससे वरदान मांगने को कहा।

हिरण्यकशिपु  ने नतमस्तक होकर कहा – भगवान, मुझे अमर बना दो। 

भगवान ब्रह्मा ने अपना सिर हिलाते हुए कहा – पुत्र, जिनका जन्म हुआ है उनकी मृत्यु निश्चित है। मैं सृष्टि के नियमों को नहीं बदल सकता हूं, कुछ ओर मांग लो। 

हिरण्यकशिपु अब सोच में पड़ गया क्योंकि जिस वरदान के लिए उसने तपस्या की वो प्रभु ने देने से मना कर दिया। हिरण्यकशिपु अब विचार करने लगा कि अगर वो असंभव शर्तों पर मृत्यु का वरदान मांगे तो उसकी साधना सफल हो सकती है। हिरण्यकशिपु ने कुछ देर सोचते हुए भगवान ब्रह्मा से वरदान मांगा।

हिरण्यकशिपु ने भगवान से कहा – हे भगवन, मुझे आप ऐसा वरदान दें कि ना कोई मुझे दिन में मार सके, ना ही रात में। ना मुझे कोई घर के अंदर मार सके, ना ही घर के बाहर। ना कोई मुझे जमीन पर मार सके, ना ही आसमान में। साथ ही ना ही कोई मनुष्य, ना कोई पशु और ना कोई देवता मेरा वध कर सके। भगवान ने उसे ऐसा ही होने का वचन दिया। 

हिरण्यकशिपु वरदान प्राप्त कर जब अपने साम्राज्य लौटा तो इंद्रदेव द्वारा किये विनाश को देखकर बहुत दुखी हुआ। उसने इंद्रदेव से बदला लेने की ठान ली और अपने वरदान के बल पर इंद्रलोक पर आक्रमण कर दिया। हिरण्यकशिपु के भय से इंद्रदेव सहित सभी देवता देवलोक छोड़कर चले गये। हिरण्यकशिपु अब इंद्रलोक का राजा बन गया।

हिरण्यकशिपु अपनी पत्नी कयाधू को खोजकर घर ले आया। कयाधू के विरोध करने के बावजूद हिरण्यकशिपु का अत्याचार बढ़ गया। समस्त लाेकों में उसके अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे।

प्रहलाद के वध का प्रयास और होलिका दहन

कुछ समय पश्चात कयाधू ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रहलाद रखा गया। कयाधू के तीन अन्य पुत्र थे जिनका नाम अनुहलाद, सहलाद और हलाद था। 

एक ओर जहां हिरण्यकशिपु भगवान विष्णु की पूजा करने वाले को अनेक प्रकार से दंड देता था वहीं उसका सबसे छोटा पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु की भक्ति में लीन रहता था। उसे भक्त शिरोमणि भी कहा जाता है। 

एक दिन असुर गुरु शुक्राचार्य प्रहलाद की शिकायत लेकर हिरण्यकशिपु के पास पहुंचे और कहा – महाराज , आपका पुत्र हम जो पढ़ाते हैं वो नहीं पढ़ता है और सारा समय विष्णु के नाम जप में लगा रहता है। हिरण्यकशिपु ने उसी समय गुस्से में प्रहलाद को बुलाया और पूछा – वो दिन भर विष्णु का नाम क्यों लेता रहता है?  

प्रहलाद ने जवाब दिया – पिताश्री, भगवान विष्णु ही सारे जगत के पालनहार हैं इसलिए मैं उनकी पूजा करता हूं। मैं दूसरों की तरह आपके आदेशों को मानकर आपकी पूजा नहीं कर सकता हूं। प्रह्लाद ने कहा – जब इंद्रदेव ने आपके साम्राज्य पर हमला किया था तब जगत के पालनहार भगवान विष्णु की कृपा से ही आपके परिवार की रक्षा हो सकी थी। प्रहलाद की इन बातों का हिरण्यकशिपु के ऊपर कोई असर नहीं हुआ।

हिरण्यकशिपु ने शाही पुरोहितों से उसका ध्यान रखने को कहा और विष्णु का जाप बंद कराने को कहा लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। इसके विपरीत गुरुकुल में प्रहलाद दूसरे शिष्यों को भी भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए प्रेरित करने लगा।

हिरण्यकशिपु ने परेशान होकर फिर प्रहलाद को बुलाया और पूछा – पुत्र तुम्हें सबसे प्रिय क्या है?

प्रहलाद ने जवाब दिया – मुझे भगवान विष्णु का नाम लेना सबसे प्रिय लगता है।

तब हिरण्यकशिपु ने पूछा – इस सृष्टि में सबसे शक्तिमान कौन है?

प्रहलाद ने फिर उत्तर दिया – तीनों लोकों के स्वामी और जगत के पालनहार भगवान विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।

हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रहलाद से बहुत बार कहा कि वह भगवान विष्णु की पूजा करना बंद कर दे क्योंकि वह हमारा शत्रु है लेकिन प्रहलाद भगवान विष्णु की आराधना में हमेशा रत रहता था। 

प्रहलाद की भगवान विष्णु के प्रति भक्ति देखकर हिरण्यकशिपु उसपर अत्यंत क्रोधित रहता था। उसने प्रहलाद को मारने के लिए कई बार प्रयास किए। प्रह्लाद के ऊपर हथियारों से हमला किया गया, उसे सांपों से कटवाया गया, उसे पहाड़ से नीचे फेंका गया, उसे हाथियों के पैरों से कुचलवाया गया परंतु प्रभु की कृपा से उसे कभी कुछ नहीं हुआ।

होलिका दहन

इतना कुछ करने के बाद भी जब हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लाद को मारना संभव न हो सका तो उसने दूसरी युक्ति निकाली। हिरण्यकशिपु की छोटी बहन होलिका थी। होलिका को भगवान महादेव ने ऐसी चादर प्रदान की थी जिसे ओढ़ने पर अग्नि उसे जला नहीं सकती थी। हिरण्यकशिपु ने योजना बनाई कि होलिका उस चादर को ओढ़ कर प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाएगी जिससे प्रहलाद जल जाएगा और होलिका बच जाएगी। 

जब होलिका प्रहलाद को लेकर अग्निकुंड में बैठी थी उसी समय देव कृपा से तेज हवा चली और होलिका की चादर प्रहलाद के ऊपर आ गई। जिसके प्रभाव से प्रहलाद अग्नि से बच गया और होलिका उसी अग्नि में जलकर भस्म हो गई।

नरसिंह अवतार और हिरण्यकशिपु का वध

अपने पुत्र प्रहलाद की भगवत भक्ति से क्रोधित होकर एक दिन हिरण्यकशिपु ने उसे अपने दरबार में बुलाया और एक खंभे से बांध दिया। हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को मारने के लिए खड़ग हाथ में ले लिया। इससे भी प्रहलाद भयभीत नहीं हुआ और उसने जगत का स्वामी अपने पिता को मानने के बजाय परमात्मा को ही माना। इस पर हिरण्यकशिपु ने पूछा – कहां है तुम्हारा परमात्मा?

प्रह्लाद ने शांत भाव से उत्तर दिया – वह मुझमें हैं, आपमें हैं, इस खड्ग में हैं, इस खंभे में हैं, वह सर्वत्र व्याप्त हैं। 

वह सर्वत्र व्याप्त है, इस खंभे में भी है यह कहते हुए हिरण्यकशिपु ने खंभे पर अपने खड्ग से तेज प्रहार किया। खंभे पर प्रहार करते ही भयंकर गर्जना के साथ भगवान विष्णु नरसिंह अवतार धारण कर उस खंभे के भीतर से प्रकट हुए। 

नरसिंह अवतार धारण किए भगवान विष्णु का संपूर्ण शरीर मनुष्य का तथा मुख सिंह का था जिसके बड़े-बड़े नख और दंत थे। भगवान नरसिंह ने प्रवेश द्वार की चौखट पर जो ना घर के भीतर था ना बाहर, गोधूलि बेला में जो ना दिन का समय था और ना ही रात का, नरसिंह रूप में जो ना मनुष्य का रूप था ना पशु का, अपने तेज नाखूनों से जो कोई अस्त्र-शस्त्र ना था, अपने पैर की जंघाओं पर बिठाकर जो न जमीन था ना आसमान, हिरण्यकशिपु का पेट चीरकर वध कर दिया। हिरण्यकशिपु के वध से समस्त लोकों में आनंद व्याप्त हो गया।

जब हिरण्यकशिपु का वध हो गया तब सारे असुर ऐसे क्रूर पशु को देखकर भाग गये और देवताओं की भी नरसिंह के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। तब बिना डरे हुए प्रहलाद आगे बढ़ा और नरसिंह भगवान से कहा – प्रभु, मैं जानता हूं कि आप मेरी रक्षा के लिए आए हैं।

नरसिंह भगवान ने मुस्कुराकर जवाब दिया – हां पुत्र, मैं तुम्हारे लिए ही आया हूं, तुम चिंता मत करो। तुम्हें इस कथा का ज्ञान नहीं है कि तुम्हारे पिता मेरे द्वारपाल विजय हैं। उन्हें एक श्राप के कारण पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा और तीन जन्मों के पश्चात उन्हें फिर वैकुण्ठ में स्थान मिल जाएगा इसलिए तुम्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नही है।

प्रहलाद ने अपना सिर हिलाते हुए कहा – प्रभु, अब मुझे कुछ नही चाहिए। तब नरसिंह भगवान ने कहा – नहीं पुत्र, तुम जनता पर राज करने के लिए बने हो और तुम अपनी जनता की सेवा करने के पश्चात वैकुण्ठ आना।

इसके पश्चात प्रहलाद असुरों का उदार शासक बन गया जिसने अपने शासनकाल के दौरान प्रसिद्धि पायी और असुरों के पुराने क्रूर तरीके समाप्त कर दिए। 

आगे चलकर प्रहलाद का पौत्र राजा बलि हुआ जिसके अभिमान को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया। भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा के बारे में विस्तार से जानने के लिए निम्न आलेख देख सकते हैं –

भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा

भगवान विष्णु के दशावतार से जुड़े अन्य अवतारों का वर्णन निम्न आलेख में किया गया है –
विष्णु के मत्स्य अवतार की कथा : हयग्रीव का वध और वेदों की रक्षा
भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कथा
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