मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग 12 ज्योतिर्लिंगों में से द्वितीय ज्योतिर्लिंग माना जाता है। यह आंध्रप्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ‘मल्लिका’ माता पार्वती का नाम है और ‘अर्जुन’ भगवान शिव का है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से ज्योतिर्लिंग का नाम ‘मल्लिकार्जुन’ हो गया। इस ज्योतिर्लिंग में भगवान शिव और देवी पार्वती दोनों की ज्योतियां प्रतिष्ठित हैं।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग शैल नामक पर्वत पर स्थित है। इसे श्रीशैल या श्रीशैलम भी कहा जाता है। धार्मिक ग्रंथों में इसे दक्षिण का कैलास भी कहा जाता है। श्रीशैलम पर्वत करनूल जिले के नल्ला-मल्ला नामक घने जंगलों के बीच है। नल्ला मल्ला का अर्थ है सुंदर और ऊंचा। यह पर्वत कृष्णा नदी के किनारे स्थित है। इस नदी को पातालगंगा भी कहते है।
पातालगंगा मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर के पूर्व द्वार से करीब 2 मील की दूरी पर बहती है। इस नदी के एक पार होने के बाद 852 सीढियां बनी हुई है। इस नदी में यात्री स्नान करते है। लोगों की धार्मिक विचारधारा के अनुसार इस नदी में स्नान करने से मनुष्य के पाप नष्ट होते है तथा वह अनन्त सुख प्राप्त करता है। इसी गंगा के पवित्र जल को ही भगवान शिव को चढ़ाया जाता है। कुछ आगे चलकर ये नदी दो अलग-अलग नालों में प्रवाहित होती है। इस स्थान को त्रिवेणी कहा जाता है।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग से जुड़ी पौराणिक कथा
शिवपुराण के अनुसार मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कहानी भगवान शिव के परिवार से जुडी हुई है। माना जाता है कि भगवान शिव के छोटे पुत्र गणेश जी अपने बड़े भाई कार्तिकेय से पहले शादी करना चाहते थे। कार्तिकेय का मानना था कि वे बड़े हैं, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले कराने को लेकर जिद्द पर अड़े थे। जब दोनों के झगड़े की वजह पिता महादेव और माता पार्वती को पता लगी तो उन्होंने इस झगड़े को खत्म करने के लिए कार्तिकेय और गणेश के सामने एक प्रस्ताव रखा।
समाधान करने के लिए माता पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों से कहा कि तुम दोनों में से जो कोई भी इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आएगा उसी का विवाह पहले होगा। माता के ये वचन सुनते ही कार्तिकेय शीघ्र पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए अपने वाहन पर सवार हो निकल पड़े। लेकिन गणेश जी उसी स्थान पर खड़े रहे। मोटे होने के कारण और उनका वाहन चूहा होने के कारण जल्दी परिक्रमा करने जाना उनके लिए संभव नहीं था।
लेकिन गणेश सबसे बुद्धिमान देवता थे। उन्होंने अपनी तीव्र बुद्धि का उपयोग किया। उनके मस्तिष्क में एक विचार आया और उन्होंने अपने माता-पिता से एक स्थान पर बैठने को कहा। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनका विधिवत पूजन किया।
शास्त्रों में कहा गया है –
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।
तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।।
अर्थात जो माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसको पृथ्वी की परिक्रमा करने का फल मिलता है।
फिर उन्होंने माता-पिता की सात बार परिक्रमा की। इस तरह माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से मिलने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गए। और उन्होंने शर्त जीत ली। पुत्र गणेश की इस चतुराई को देखकर माँ पार्वती और शिव जी बहुत प्रसन्न हुए और फिर गणेश जी का विवाह करा दिया गया।
जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और ऋद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेश जी को उनकी ‘सिद्धि’ नामक पत्नी से ‘क्षेम’ तथा ऋद्धि नामक पत्नी से ‘लाभ’, नामक दो पुत्र भी हो चुके थे।
यह जानकर कार्तिकेय जी बहुत दुखी हुए क्योंकि उनके आने से पूर्व गणेश जी का विवाह संपन्न हो चुका था। कार्तिकेय ने माता-पिता का आशीर्वाद लिया और वहाँ से चले गए। वे क्रोधित होकर क्रौन्च पर्वत जाकर बैठ गए। जब इस बात की सूचना माँ पार्वती और शिव जी को लगी तो उन्होंने नारद जी को कार्तिकेय को मनाकर अपने पास लाने को कहा।
नारद जी क्रौन्च पर्वत पर पहुँचे और कार्तिकेय को मनाने लगे। लेकिन उनके लाख प्रयत्न करने पर भी कार्तिकेय नहीं माने। तब नारद जी निराश होकर वापस माँ पार्वती और शिव जी के पास पहुँचे और सारा वृतांत कह सुनाया। सारी बातें सुनकर माता बहुत दुखी हुईं। स्वयं शिव जी के साथ क्रौंच पर्वत पर पहुंचीं। माता-पिता के क्रौंच पर्वत पर आने की खबर सुनकर कार्तिकेय उनके आने से पहले ही 12 कोस दूर चले गए।
तभी शिव जी वहां ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए और अलग-अलग स्थान पर कार्तिकेय की तलाश में अपने ज्योतिर्लिंग फैला दिए। वह स्थान तभी से मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग से जुड़ी अन्य कथा
धार्मिक ग्रंथों में उल्लिखित एक अन्य कथा के अनुसार क्रौंच पर्वत के नजदीक राजा चन्द्रगुप्त का राज्य था। एक समय की बात है जब राजा चन्द्रगुप्त की कन्या किसी गंभीर संकट में उलझ गई। इस संकट से बचने के लिए वह कन्या पर्वत राज पर पहुंच गई और आराधना में लीन हो गई। कन्या अपना जीवन निर्वाह करने के लिए जंगल से फल-सब्जी खाती थी और इस तरह उसका जीवन चलता था। उसके पास एक गाय थी। वह गया की सेवा बहुत करती और उसका ख्याल रखती। कुछ दिन सही चलता रहा। फिर कुछ समय बाद गाय के साथ कुछ घटना होने लगी। हर रोज कोई गाय का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने अपनी गाय श्यामा का दूध निकालते हुए किसी चोर को देखा।
यह देखकर वह उस पर क्रोधित होकर उसे मारने के लिए गाय के पास पहुंची तो बहुत आश्चर्य से वह दंग रह गई। उस जगह उसे एक शिवलिंग के अलावा कुछ भी नहीं दिखा। उसके बाद उस राजकुमारी कन्या ने उस शिवलिंग के ऊपर मंदिर स्थापित करवाया। यह मंदिर बहुत ही सुन्दर और शानदार था। आज उसी शिवलिंग को पूरे विश्व में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण कार्य 2 हजार वर्ष पुराना है।
मल्लिकार्जुन मंदिर का इतिहास
सातवाहन राजवंश के शिलालेख में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर का उल्लेख मिलता है जिससे यह प्रमाणित होता है कि दूसरी शताब्दी में यह मंदिर अस्तित्व में था। मंदिर के अधिकांश भागों का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के राजा हरिहर प्रथम के काल में हुआ। पल्लव, चालुक्य और काकतीय शासकों ने भी इस मंदिर के निर्माण में अपना योगदान दिया था। मंदिर का निर्माण मुख्यतः द्रविड़ शैली में किया गया है।
लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व विजयनगर साम्राज्य के कृष्णदेवराय ने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण कराया था, जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे। उन्होंने इस मंदिर के उत्तरी गोपुरम (प्रवेश द्वार) का निर्माण करवाया था और मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्तम धर्मशाला बनवायी थी। इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग मिलते हैं।
मल्लिकार्जुन मंदिर की संरचना
2 हेक्टेयर में विस्तारित मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर परिसर में चार प्रवेश द्वार हैं जिन्हें गोपुरम कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में लगभग आठ अंगुल ऊंचा शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के गर्भगृह का शिखर सोने से निर्मित है।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के अंदर कई मंदिर बने हुए हैं जिनमें मल्लिकार्जुन और भ्रामराम्बा सबसे प्रमुख मंदिर हैं। इसके अतिरिक्त वृद्ध मल्लिकार्जुन, सहस्त्र लिंगेस्वर, अर्ध नारीश्वर, वीरमद, उमा महेश्वर और ब्रह्मा मंदिर यहां स्थापित हैं। मंदिरों की दीवारों पर निर्मित मूर्तियां यहां दर्शन के लिए आने वाले लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित करती हैं। मंदिर के केंद्र में कई मंडपम स्तंभ हैं जिसमें नादिकेश्वरा की एक विशाल दर्शनीय मूर्ति है। सभा मंडप में नन्दी की विशाल मूर्ति है।
मुख्य मंदिर के बाहर पीपल-पाकर का सम्मिलित वृक्ष है। उसके आस-पास चबूतरा है। यहाँ लिंग मूर्ति का स्पर्श प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे पार्वती मंदिर है। इन्हें मल्लिका देवी कहते हैं।
अन्य तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल
हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार 51 शक्तिपीठ माने जाते हैं। ये शक्तिपीठ सभी ज्योतिर्लिंगों में अलग-अलग आकार व प्रवृति में पाए जाते हैं। मल्लिकार्जुन शक्तिपीठों में 18 महाशक्तिपीठ का अपना अलग महत्व है। इसके 4 शक्तिपीठों को सबसे ज्यादा पवित्र माना जाता है। जिनमें श्रीशैल का विशेष महत्व है। मल्लिकार्जुन मंदिर का सबसे पहला शक्तिपीठ भ्रमराम्बादेवी है।
भ्रमराम्बादेवी : भ्रमराम्बादेवी शक्तिपीठ मल्लिकार्जुन मंदिर से 2 मील की दूरी पर स्थित है। इस शक्तिपीठ पर मां सती की ग्रीवा गिरी थी। इसलिए यह स्थल बहुत ही महतत्वपूर्ण माना जाता है।
शिखरेश्वर : शिखरेश्वर मल्लिकार्जुन से लगभग 6 किमी दूरी पर स्थित है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 2830 फीट है। यहाँ स्थित शिखरेश्वर मंदिर ‘श्री वीर शिखर स्वामी’ को समर्पित है जो यहां के स्थानीय निवासी थे।
विल्वन : शिखरेश्वर से 6 मील पर एकम्मा देवी का मंदिर घोर वन में है। यहाँ मार्गदर्शक एवं सुरक्षा के बिना यात्रा संभव नहीं।
श्रीशैल : यह पूरा क्षेत्र घने जंगल वाला है। अतः इस वन्य क्षेत्र से केवल मोटर से जाया जाता है। इसे मोटर मार्ग भी कहते है। पैदल यहाँ की यात्रा केवल शिवरात्रि पर होती है।
महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से भक्तों के सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं, उसे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और वह आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। ये स्थान धार्मिक श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए विशेष महत्व के हैं।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर में दर्शन का समय
मंदिर खुलने का समय (सुबह) – 4:30 से दोपहर 03:00 बजे तक
प्रात: आरती – 05:15 से 06:30 तक
मंदिर खुलने का समय (शाम) – 06:00 से 09:00 बजे तक
संध्या आरती – 05:20 से 06:00 तक
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर कैसे पहुंचें
रेलमार्ग द्वारा यात्रा – मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का सबसे करीबी रेलवे स्टेशन मारकापुर रोड रेलवे स्टेशन है, जो मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग से करीब 84 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मारकापुर रोड रेलवे स्टेशन से देश के विभिन्न शहरों के लिए ट्रेन सेवाएं उपलब्ध हैं।
सड़क मार्ग द्वारा यात्रा – मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग सड़क मार्ग द्वारा अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। आंध्र प्रदेश के विभिन्न शहरों के अलावा नजदीकी राज्यों से भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के लिए बस सेवा उपलब्ध है। निजी वाहनों के द्वारा भी सड़क मार्ग से मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए आया जा सकता है।
हवाई जहाज द्वारा यात्रा – मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग से सबसे नजदीक हैदराबाद स्थित राजीव गांधी इंटरनेशनल हवाई अड्डा है। राजीव गांधी इंटरनेशनल हवाई अड्डे से मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की दूरी लगभग 215 किलोमीटर है। श्रीशैलम में भी उड़ान सुविधा उपलब्ध है लेकिन यहां से नियमित उड़ानें नहीं हैं।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग दर्शन से जुड़ी जानकारियां निम्न वेबसाइट पर जाकर प्राप्त कर सकते हैं –http://www.srisailadevasthanam.org
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