अनंत चतुर्दशी व्रत

अनंत चतुर्दशी व्रत क्यों किया जाता है?

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भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी व्रत मनाया जाता है। अनंत चतुर्दशी को अनंत चौदस भी कहा जाता है। अनंत चतुर्दशी जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु की उपासना का प्रतीक पर्व है। विष्णु पुराण में इस व्रत की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस व्रत के संबंध में यह लोककथा प्रचलित है कि जिस समय युधिष्ठिर अपना राज-पाट हार कर वनवास कर रहे थे तो भगवान कृष्ण उनसे मिलने आए। उनकी कष्ट-कथा सुनकर श्री कृष्ण ने उन्हें अनंत व्रत करने की सलाह दी, जिसे करने के पश्चात वे कष्ट मुक्त हो गए।

अनंत चतुर्दशी व्रत कथा

सतयुग में सुमंत नाम का एक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उनकी शुभ लक्षणों से युक्त शीला नाम की एक कन्या थी। जब शीला थोड़ी बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा का निधन हो गया। दीक्षा के निधन के पश्चात सुमंत ने कर्कशा नाम की एक दूसरी स्त्री से विवाह कर लिया। कुछ समय के पश्चात सुमंत ने अपनी कन्या शीला का विवाह कौंडिण्य नामक ब्राह्मण से कर दिया। सुमंत के मन में अपनी कन्या को कुछ धन देने की इच्छा हुई परंतु कर्कशा ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया। जब शीला अपने पति कौंडिण्य के साथ ससुराल से विदा हो रही थी तो कर्कशा ने एक बक्से में बहुत सा ईंट-पत्थर भरकर उसके साथ भेज दिया।

पत्नी को साथ लेकर कौंडिण्य जब जा रहा था तब थक कर वह मार्ग में यमुना नदी के किनारे ठहरा। जहां वह ठहरा वहीं पास में कुछ स्त्रियां अनंत भगवान का पूजन कर रही थीं। नवविवाहिता शीला ने उनके पास जाकर पूजन में भाग लिया और विधि के अनुसार एक डोरे में चौदह गांठें बांधकर उसे केसर के रंग में रंगा और अनंत भगवान का पूजन करके डोरा (अनन्तसूत्र) अपने हाथ में बांध लिया। शीला के घर आते ही घर जगमग हो उठा। सारा घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।

एक दिन कौंडिण्य ने ससुराल से मिले हुए बक्से को खोल कर देखा। उसमें रखे ईंट-पत्थर को देखकर अत्यंत क्रोधित हुआ। शीला के हाथ में पीला धागा बंधा देखकर उसने यह समझा कि उसे वश में करने के लिए शीला ने कोई यंत्र बांध रखा है। उसने उसे छीन कर आग में डाल दिया। उस डोरे को आग से निकालकर शीला ने पुनः अपने हाथ में बांध लिया परंतु कौंडिण्य के आचरण के कारण घर में रखी सारी संपदा धीरे-धीरे खत्म हो गई। जो कुछ था उसे भी चोर चुरा कर ले गए। घर में दरिद्रता आ गई।

तब एक दिन शीला ने अपने पति कौंडिण्य से कहा – स्वामी! आपने बात की असलियत जाने बिना मुझ पर शंका करके भगवान अनंत का तिरस्कार किया है। आपको इस अपराध का प्रायश्चित करना चाहिए। तभी हमलोग फिर से सुखी हो सकते हैं। जीवन में अनावश्यक शंका नहीं करनी चाहिए।

कौंडिण्य अपनी पत्नी से अनंत भगवान की महिमा सुनकर जंगल को चला गया और निराहार रहकर भगवत स्मरण करने लगा। एक दिन उसने वन में एक आम के वृक्ष को देखा जो फलों से लदा हुआ था परंतु उस पर ना तो कोई पक्षी बैठता था और ना कोई कीड़ा-मकोड़ा उस पर चढ़ता था। कौंडिण्य ने उसे देखकर पूछा – हे महाद्रुम! क्या तुमने भगवान अनंत को देखा है? उस वृक्ष ने कहा – हे ब्राह्मण! मैंने आज तक किसी अनंत का नाम भी नहीं सुना।

इसके बाद कौंडिण्य ने एक बछड़े सहित गाय देखी। वह घास के बीच में इधर-उधर दौड़ रही थी। कौंडिण्य ने उससे पूछा – हे धेनु! क्या तुमने कभी इस वन में अनंत भगवान को देखा है? गाय ने उत्तर दिया – हे ब्राह्मण! मैं अनंत को नहीं जानती।

आगे बढ़ने पर उसने हरी घास पर बैठे एक बैल को देखा। कौंडिण्य ने उससे भी वही प्रश्न किया – क्या तुमने अनंत नामधारी किसी देवता को इस वन में देखा है? बैल ने कहा – नहीं, मैंने अनंत को नहीं देखा है।

इसके बाद एक हाथी और एक गधा मिला। कौंडिण्य ने उससे भी वही पूछा। उन दोनों ने बड़े तिरस्कार भरे शब्दों में कहा – हमने किसी अनंत नाम धारण करने वाले को आज तक नहीं देखा है।

कौंडिण्य ने सोचा कि दुनिया का कोई प्राणी जिस अनंत को नहीं जानता और आज तक जिसे ना किसी ने देखा है और ना सुना है, पता नहीं वह अनंत कौन है, कैसा है और कहां रहता है इसी चिंता में थक कर एक ओर बैठ गया। थोड़ी देर में अनंत भगवान एक वृद्ध ब्राह्मण का भेष बनाकर उसके सामने उपस्थित हुए और उसका हाथ पकड़ कर अपनी पुरी में ले गए। 

उस पुरी का वैभव और शांत वातावरण देखकर कौंडिण्य को बड़ा संतोष हुआ और उसने वृद्ध ब्राह्मण से पूछा – भगवन्! आप कौन हैं और यह कौन सी नगरी है? 

यह सुनकर प्रभु ने अपना वृद्ध ब्राह्मण का भेष हटा दिया और शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किए हुए चतुर्भुजी विष्णु के रूप में दर्शन दिया। उन्होंने कौंडिण्य से कहा – हे विप! मैं ही अनंत हूं। अपनी साध्वी पत्नी के बल से ही तुम मेरा साक्षात दर्शन कर सके हो। 

कौंडिण्य ने प्रभु को प्रणाम कर प्रश्न किया – हे देव! आप इतने दुर्लभ हैं कि मार्ग में मिला कोई भी प्राणी आपके बारे में कुछ नहीं बता सका। इसका क्या कारण है?

भगवान अनंत ने कहा – हे विप्र! तुम्हें मिलने वालों में सर्वप्रथम एक आम का वृक्ष था। वृक्ष पहले एक ब्राह्मण था जो पंडित होने के साथ बड़ा घमंडी था। अपने शिष्यों को भी पूरी विद्या का रहस्य नहीं बताता था इसलिए वह वृक्ष बन गया। दूसरी बछड़े समेत गाय थी जो स्वयं पृथ्वी थी। तीसरा बैल था जो साक्षात धर्म था। मार्ग में तुमने जो दो तलैया देखी थी वह पूर्व जन्म में सगी बहनें थीं। किंतु वे जो दान करती थीं आपस में ही बांट लेती थी इसलिए वे तलैया बनीं। जो हाथी मिला वह धर्मद्वेषी था और गधा एक लोभी ब्राह्मण। 

फिर भगवान ने आगे कहा – तुम यह बात जान लो कि दुर्गुणों से युक्त पुरुष मुझे कभी भी नहीं प्राप्त कर सकते, चाहे वे कितने ही बड़े क्यों ना हों। मुझे तो सरलता का गुण रखने वाले ही प्राप्त कर सकते हैं। वह गुण तुम्हारी पत्नी में है। यह उसी की पुण्य साधना का प्रभाव था कि तुम मुझे पा सके।

कौंडिण्य भगवान अनंत की भक्ति से ओतप्रोत होकर अपने घर लौटे और अपनी साध्वी पत्नी का आदर करने लगे। उनका घर फिर से धन-धान्य से भरपूर हो गया और घर में सुख-शांति व्याप्त हो गई।

अनंत चतुर्दशी व्रत की विधि

  • अनंत चतुर्दशी में चौदह गांठ वाले डोरे को बांधने का विधान है। अनंत चतुर्दशी व्रत के दौरान चौदह ग्रंथि देवताओं का पूजन किया जाता है। इसमें आरंभ में जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु, अंत में सृष्टिपालक धरणीधर अनंत (शेष) और मध्य में सृष्टि संचालक बारह देवताओं का पूजन किया जाता है। वे बारह देवता हैं – सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, सृष्टि संहारक शिव, सृष्टि निर्वाहक अग्नि, अमृतदायक सोम, प्राणदायक सूर्य, विघ्न विनाशक गणेश, देव सेनापति स्कंद, देवराज इंद्र, जीवन के मुख्य साधन – जल, वायु और अन्न के अधिष्ठाता वरुण, पवन तथा सृष्टि को बसाने वाले वसु। ये सभी देवता जीवन जगत की संपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले हैं।
  • अनंत चतुर्दशी व्रत में स्नानादि के पश्चात अक्षत, दूव तथा शुद्ध सूत से बने और हल्दी से रंगे हुए 14 गांठ के अनंत को सामने रखकर हवन किया जाता है। 
  • ॐ अनन्तायनम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्र की षोडशोपचार विधि से पूजा की जाती है। 
  • तत्पश्चात अनंत देव का ध्यान करके शुद्ध अनंत को पुरुष अपनी दाहिनी भुजा पर  और स्त्रियां अपनी बाईं भुजा पर बांधते हैं।
  • अनन्तसूत्र को बांधते समय निम्नलिखित मंत्र का पाठ किया जाता है –

अनंन्तसागर महासमुद्रे मग्नान्समभ्युद्धर वासुदेव।

अनंतरूपे विनियोजिता त्माह्यनन्तरूपाय नमो नमस्ते॥

  • अनंत भगवान की पूजा के समय पानी भरे घड़े में अनंत देवता की खोज की जाती है। कहीं-कहीं एक बड़े कटोरे में दूध भरकर उसमें चांदी के पत्र पर बनी विष्णु की लघु प्रतिमा को रखा जाता है और उसकी पूजा की जाती है। पूजा करने वाला उसमें हाथ डालकर अनंत देव को खोजता है।
  • अनंत सूत्र बांधने के बाद भोज्य पदार्थ ग्रहण करने का विधान है। इस कारण इस व्रत को स्त्री-पुरुष, बड़े-बुजुर्ग, बालक सभी कर सकते हैं।

अनंत चतुर्दशी व्रत का लाभ

अनंत चतुर्दशी व्रत सब पापों को हरने वाला एक अत्यंत शुभ व्रत है। इससे पुरुष और स्त्री दोनों की सकल मंगलकामनाएं पूर्ण होती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से निर्धन को धन, पुत्रहीन को पुत्र और रोगी को आरोग्य मिलता है। ऐसी मान्यता है कि अनंत चतुर्दशी व्रत को यदि 14 वर्षों तक किया जाए तो इससे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है।

व्रत का उद्यापन 

अनंत चतुर्दशी व्रत का उद्यापन आरंभ मर्द या अंत में कहीं भी किया जा सकता है। उद्यापन के समय अनंत भगवान की प्रतिमा निर्मित होती है। उसको पूर्ण पात्र में श्वेत वस्त्रों से ढक कर जूता, छाता, गौ सहित ब्राह्मण को दान दिया जाता है। 

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