bhagwan Vishnu ka Vamana Avatar

भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा

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हिंदू धर्म ग्रंथों में भगवान विष्णु के अवतार लेने के कारण एवं उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं –

परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्। 

धर्मसंस्थापनार्थय संभवामि युगे युगे।।

अर्थात धर्म की स्थापना के लिए, साधु एवं सज्जन पुरुषों को परित्राण अर्थात मुक्ति प्रदान करने के लिए एवं दुष्टों का विनाश करने के लिए मैं विभिन्न युगों में उत्पन्न होता हूं। 

विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में भगवान विष्णु के दशावतार की चर्चा संक्षेप में या विस्तार के साथ की गई है। भगवान विष्णु के 10 अवतार हैं – मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, नरसिंह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, राम अवतार, कृष्ण अवतार और कल्कि अवतार।

दशावतार में भगवान विष्णु का वामन अवतार पांचवां अवतार है। भगवान विष्णु ने इंद्र को उसका राज्य वापस दिलाने के लिए एवं राजा बलि के अहंकार को समाप्त करने के लिए वामन अवतार ग्रहण किया था। वामन अवतार भगवान विष्णु का ऐसा पहला अवतार है जब वह पहली बार मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं।

राजा बलि कौन है?

प्राचीन काल की बात है, दैत्यमाता दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु आदि पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद हुआ जिसकी गणना परमभागवत में होती है। भक्त शिरोमणि प्रहलाद का विवाह धरती नामक स्त्री से हुआ था। उससे विरोचन नामक पुत्र पैदा हुआ। विरोचन अपने पिता की तरह भगवान विष्णु का भक्त एवं दानवीर था। 

विरोचन का विवाह विशालाक्षी (स्कंद पुराण में पत्नी का नाम सुरुचि है।) से हुआ जिससे उसे बलि नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। असुर कुल में पैदा होने के बाद भी बलि एक महान योद्धा, विष्णुभक्त एवं दानवीर था। उसकी प्रकृति उदार थी परंतु उसे अपनी शक्ति और वैभव का अहंकार था। 

बलि का पूर्व जन्म

प्राचीन काल में देवताओं और ब्राह्मणों की निंदा करने वाला एक महापापी जुआरी था। वह सदा पराई स्त्रियों में आसक्त रहता था। एक दिन उसने कपटपूर्ण जुए के द्वारा बहुत सारा धन जीता। फिर अपने हाथों से स्वास्तिक (पान का तिकोना बीड़ा) बनाकर तथा गंध और माला आदि सामग्री जुटा कर एक वेश्या को भेंट देने के लिए वह उसके घर की ओर दौड़ा।

रास्ते में उसके पैर लड़खड़ा गए और उसी समय वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। गिरने पर क्षण भर के लिए उसे मूर्छा आ गई। जब मूर्छा दूर हुई तब पूर्वजन्म के किसी अन्य प्रभाव से उसके मन में सद्बुद्धि उत्पन्न हुई। जुआरी के मन में अपने कार्यों के लिए दुख और वैराग्य पैदा हुआ। उसने पृथ्वी पर पड़ी हुई गंध, पुष्प आदि सामग्री भगवान शिव की सेवा में समर्पित कर दी। जीवन में केवल यही एक पुण्य का काम उसके द्वारा किया गया।

मृत्यु के बाद जब यमराज के दूत उसे यमलोक ले गए तब यमराज ने उससे कहा – तुम अपने पाप के कारण बड़े-बड़े नरकों की यातना भोगने के योग्य हो। तब उसने कहा – यमराज, यदि मेरा कोई पुण्य भी हो तो उस पर भी विचार कर लीजिए। तब चित्रगुप्त ने कहा – तुमने मृत्यु से पहले पृथ्वी पर पड़े हुए कुछ पुष्प भगवान शिव को समर्पित किए थे। इस सत्कर्म के बदले तुम्हें तीन घड़ी के लिए इंद्र का पद प्राप्त होगा।

चित्रगुप्त की बात सुनकर जुआरी ने कहा – मैं सबसे पहले अपना शुभ कर्म भोगूंगा। उसके ऐसा कहने पर देवगुरु बृहस्पति जी देवताओं सहित वहां आ पहुंचे और उस जुआरी को ऐरावत हाथी पर लेकर इंद्र भवन गए। वहां बृहस्पति जी ने इंद्र से कहा – तुम तीन घड़ी के लिए इसे अपना सिंहासन प्रदान कर दो। गुरु की बात मानकर इंद्र ने  जुआरी के लिए अपना सिंहासन छोड़ दिया।

जब जुआरी इंद्र के सिंहासन पर बैठा तब उसने दान देना प्रारंभ कर दिया। महादेव शिव के प्रिय भक्त ऐरावत हाथी को उसने अगस्त्य ऋषि को प्रदान कर दिया। उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा विश्वामित्र को दे दिया। उसने कामधेनु गाय महर्षि वशिष्ठ को दे दी और चिंतामणि नामक रत्न गालव मुनि को समर्पित कर दिया। उसने कल्पवृक्ष उठाकर कौण्डिल्य मुनि को दे दिया। जब तक तीन घड़ी पूरी नहीं हुई तब तक वह ऐश्वर्य व वैभव की समस्त चीजों को दान देता रहा। तीन घड़ी के पश्चात यमराज के दूत उसे वापस ले गए।

जुआरी के दान-पुण्य कर्म से यमराज ने उसे पुनः पृथ्वी पर जीवन प्रदान कर दिया। वही जुआरी अपने अगले जन्म में विरोचन के पुत्र बलि के रूप में पैदा हुआ। उसकी माता का नाम सुरुचि था। बलि के गर्भ में आने से विरोचन और सुरुचि का मन धर्म और दान में अधिक लगने लगा।

विरोचन के साथ इंद्र का छल

विरोचन का पुत्र जब गर्भ में था, उसी समय इंद्र दैत्यराज विरोचन को मारने की इच्छा से भिक्षुक ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके घर गए और उन्होंने विरोचन से कहा – राजन, मुझे अपनी रूचि के अनुसार कुछ दान मिलना चाहिए। याचक की बात सुनकर विरोचन ने कहा – यदि आपकी इच्छा हो तो मैं इस समय अपना मस्तक भी दे सकता हूं। इसके सिवा अपना निष्कंटक राज्य भी आपको समर्पित कर दूंगा।

विरोचन के ऐसा कहने पर इंद्र ने सोच-विचार कर कहा – मुझे अपना मुकुटमंडित मस्तक उतार कर दे दीजिए। ब्राह्मण रूपधारी इंद्र के ऐसा कहने पर प्रहलाद पुत्र विरोचन ने प्रसन्नतापूर्वक अपने हाथ से अपना मस्तक काटकर इंद्र को दे दिया। जब बलि वयस्क हुआ तो दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने बलि को उसके पिता के सिंहासन पर अभिषिक्त किया।

बलि का स्वर्ग लोक विजय और अदिति द्वारा पयोव्रत 

बलि ने गुरु शुक्राचार्य की प्रेरणा से उसने समस्त देवलोक को जीत लिया और स्वर्ग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। जब बलि ने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया तो स्वर्ग लोक के राजा इंद्र देवताओं के गुरु बृहस्पति जी के पास गए और अपने भय का कारण बताया। बृहस्पति जी ने कहा – राजा बलि त्रैलोक्य विजयी हो गया है इसलिए देवतागण स्वर्ग लोक छोड़कर अन्यत्र कहीं चले जाएं।

देवतागण निराश होकर अपनी माता अदिति की शरण में चले गए। अदिति दक्ष प्रजापति की पुत्री तथा महर्षि कश्यप की धर्मपत्नी थीं। देवताओं की स्थिति जानकर अदिति ने कहा – तुम लोग भय मत करो, मैं कुछ उपाय करती हूं। उन्हें आश्वस्त कर वे महर्षि कश्यप का स्मरण करने लगीं। महर्षि कश्यप सृष्टि कार्य से विरक्त हो चुके थे और नारायण के ध्यान में समाधिस्थ थे।

एक दिन जब महर्षि कश्यप की समाधि टूटी तो उन्हें अदिति का ध्यान आया। फिर वह अदिति के आश्रम की ओर चल पड़े। महर्षि कश्यप के आश्रम पहुंचने पर अदिति ने उन्हें बलि द्वारा स्वर्ग पर अधिकार कर लिए जाने की सूचना दी। कुछ देर विचार करने के पश्चात कश्यप जी ने अदिति से कहा – तुम नारायण की उपासना करो। उनके अतिरिक्त कोई इस विपत्ति को दूर नहीं कर सकता है। तुम पयोव्रत (सर्वव्रत, सर्वयज्ञ) के अनुष्ठान से श्रीहरि को प्रसन्न करो।

महर्षि कश्यप के कहने पर दैवमाता अदिति ने 12 दिनों तक पयोव्रत करके भगवान विष्णु की आराधना की। देवतागण भी ब्रह्मा जी की सलाह पर क्षीरसागर के उत्तरी तट पर श्री नारायण की तपस्या करने लगे। स्वयं महर्षि कश्यप भी परम-स्तव नामक स्तोत्र द्वारा भगवान का स्तवन करने लगे।

भगवान विष्णु का वामन अवतार धारण करना

देवमाता अदिति, महर्षि कश्यप और इंद्र आदि देवताओं की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह इंद्र का राज्य वापस दिलाएंगे। इस कार्य को निष्पादित करने के लिए वह माता अदिति के गर्भ से ही उत्पन्न होंगे। 

अपने वचन के अनुरूप भगवान विष्णु महर्षि कश्यप और अदिति की संतान के रूप में वामन अवतार धारण कर उत्पन्न हुए। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के मध्यान्ह में प्रयाग में वामन भगवान का अवतरण हुआ था।

इस प्रकार भगवान वामन अदिति के 12 पुत्रों जिन्हें आदित्य कहा जाता है में से एक हुए। अदिति के अन्य पुत्रों में इंद्र, विवस्वान, अंशुमान, मित्र, वरुण इत्यादि हैं। इस प्रकार भगवान वामन इंद्र के छोटे भ्राता भी हुए। भगवान वामन को विक्रम, त्रिविक्रम, उपेंद्र, आदित्य, अदितिनंदन, काश्यप इत्यादि नामों से भी जाना जाता है।

जब भगवान विष्णु वामन अवतार में प्रकट हुए तब ब्रह्मा जी ने आकर उन्हें यज्ञोपवित दिया। चंद्रमा ने दंडकाष्ठ प्रदान किया। मृगचर्म और मेखला मंगाई गई। पृथ्वी ने उन्हें चरणपादुका भेंट की।

वामन अवतार के रूप में बलि से तीन पग भूमि की मांग

जब राजा बलि ने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया तो एक दिन उसने दैत्यों से कहा – संपूर्ण असुर पाताल लोक छोड़कर यहीं मेरे समीप स्वर्ग लोक में निवास करें। यह सुनकर शुक्राचार्य ने कहा – यदि तुम स्वर्ग लोक में अपना निवास बनाना चाहते हो तो तुम्हें अश्वमेध यज्ञ द्वारा अग्नि देव की आराधना करनी होगी। यह आराधना भूलोक पर ही संभव है।

जब राजा बलि स्वर्ग लोक पर अपने अधिकार को स्थाई बनाने के लिए अपना अंतिम अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे तभी भगवान वामन एक ब्राह्मण के रूप में उसकी यज्ञशाला में पहुंचे। राजा बलि ने वामन देव को देख कर कहा – हे ब्राह्मण देवता आप बताएं आपको क्या चाहिए।

तब वामन भगवान ने राजा बलि का गुणगान करते हुए कहा – राजन, हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद जी हुए जो बड़े विष्णुभक्त हैं। उन्हीं प्रहलाद जी के पुत्र आपके पिताजी थे जो संसार में विरोचन के नाम से विख्यात हुए। उन महात्मा ने स्वयं ही अपने मस्तक का दान करके इंद्र को संतुष्ट किया था। राजन, आप उन्हीं महात्मा विरोचन के पुत्र हो। आपने अपने यश का विस्तार किया है। आपने इंद्र को भी जीत लिया है। आपकी ख्याति दान करने वाले के रूप में है। मुझे ज्यादा कुछ नहीं बस तीन पग भूमि दे दो। 

राजा बलि ने कहा – बस इतनी सी बात है आप कुछ और मांग लें। 

वामन देव ने कहा – मुझे कुछ और नहीं चाहिए बस तीन पद भूमि दे दो। 

राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य वामन देव को पहचान गए। उन्होंने बलि को सचेत करते हुए कहा – यह साक्षात भगवान विष्णु हैं। आप इन्हें जमीन देने से मना कर दें। इनके छल में आने से आपका सर्वस्व चला जाएगा। ये इंद्र का कार्य सिद्ध करने के लिए आए हैं। इन्होंने मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत पिलाया और राहु को मार डाला।

शुक्राचार्य के समझाने पर राजा बलि ने कहा – मैं प्रहलाद का पौत्र हूं, वचन देने के बाद पीछे नहीं हट सकता। 

बलि से भूमि दान का संकल्प लेने के बाद भगवान वामन अपने विराट रूप में उपस्थित हो गए। उन्होंने एक पग में संपूर्ण पृथ्वी एवं दूसरे पग में ऊपर के सभी लोक को नाप दिया। उनका दूसरा पग सत्यलोक में जाकर ठहरा था। ब्रह्मा ने अपने कमंडल के जल से भगवान के उस चरण को पखारा। भगवान के चरण पखारने से जो चरणोदक तैयार हुआ उसी से संपूर्ण पापों का नाश करने वाली तथा सबके लिए परम मंगलमयी गंगा जी प्रकट हुईं।

दो पग में संपूर्ण जगत को नापने के बाद भगवान वामन अपना विराट रूप छोड़कर पुनः वामन रूप में आ गए।  इसके पश्चात भगवान वामन ने राजा बलि से पूछा – मैं अपना तीसरा पग कहां रखूं। यदि तुम अपने संकल्प से विमुख होते हो तो तुम्हें नरक का भागी होना पड़ेगा। 

राजा बलि ने अपना मस्तक उनके सामने रखते हुए कहा – हे प्रभु, आप इस पर अपना तीसरा पग रख दें। राजा बलि ने कहा – संपत्ति का स्वामी संपत्ति से बड़ा होता है। 

सब कुछ गंवा देने के बाद भी राजा बलि के अपने वचन से विमुख ना होने की वजह से भगवान वामन अति प्रसन्न हो गए और उसे पाताल लोक का अधिपति बना दिया। इंद्र को उसका राज्य वापस दिला दिया।

ऐसी मान्यता है कि पूरे दक्षिण भारत में बलि का राज्य था एवं महाबलिपुरम उसकी राजधानी थी केरल में ओणम का पर्व आज भी राजा बलि की याद में मनाया जाता है।

राजा बलि के द्वारपाल के रूप में भगवान विष्णु

जब भगवान वामन ने राजा बलि को पाताल लोक का अधिपति बना दिया तो राजा बलि ने वामन देव से कहा – हे प्रभु, आप मुझे वरदान दीजिए कि मेरा साम्राज्य शत्रुओं से सुरक्षित रहे। ऐसा वरदान देने के कारण भगवान विष्णु को पाताल लोक का द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान विष्णु सशरीर उपस्थित रहकर आठों पहर पाताल लोक की रक्षा करने लगे।

भगवान विष्णु के पाताल लोक में रहने के कारण बैकुंठ धाम में सभी इस बात से चिंतित हो गए कि बैकुंठ धाम का क्या होगा। इस समस्या के निदान के लिए नारद जी ने लक्ष्मी जी को एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी राजा बलि के दरबार में उपस्थित हुईं और उन्होंने राजा बलि से कहा – वह राजा बलि को अपना भाई बनाना चाहती हैं। 

राजा बलि ने लक्ष्मी जी की इच्छा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके बाद लक्ष्मी जी ने राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध दिया। 

लक्ष्मी जी ने राजा बलि से कहा – उनके सुख-सौभाग्य व गृहस्थी की रक्षा का दायित्व उन्हीं का है जिसे आपने प्रहरी के रूप में अपने पास रख लिया है। 

लक्ष्मी जी की बात सुनकर राजा बलि ने भगवान विष्णु को प्रहरी के कार्य से मुक्त कर दिया। इसके बाद राजा बलि ने लक्ष्मी जी से कहा – यदि आप यहां आ गई हैं तो कुछ दिन यहां रुकें और हमें आतिथ्य का अवसर प्रदान करें। लक्ष्मी जी ने उनके आग्रह को मान लिया।

ऐसी मान्यता है कि श्रावण पूर्णिमा (रक्षाबंधन) से कार्तिक मास की त्रयोदशी (धनतेरस) तक भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी पाताल लोक में राजा बलि के यहां रहते हैं। धनतेरस के बाद जब भगवान विष्णु लक्ष्मी जी सहित वापस बैकुंठ लोक को आते हैं तो दीपावली का पर्व मनाया जाता है।

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विष्णु के मत्स्य अवतार की कथा : हयग्रीव का वध और वेदों की रक्षा
भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कथा
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3 thoughts on “भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा”

  1. चंद्र भूषण

    ज्ञानवर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद भाई। मन प्रसन्न हो गया। इसी तरह अपनी लेखनी को जारी रखना।

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