भारतीय धर्म परंपरा में सोलह संस्कार

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भारतीय धर्म परंपरा में मनुष्यों के लिए चार पुरुषार्थों का उल्लेख किया गया है। ये चार पुरुषार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मनुष्य जीवन का उद्देश्य इन पुरुषार्थों से अपने को युक्त करना है। मनुष्य अपने दोषों को दूर कर इन पुरुषार्थों को धारण कर सके इसके लिए संस्कारों का विधान किया गया है। पुरुषार्थों को धारण करने का उद्देश्य जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखना है जिससे समाज में सभी लोगों का कल्याण हो सके। इन पुरुषार्थों की प्राप्ति का माध्यम संस्कार ही हैं। हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों का विधान किया गया है। 

संस्कार शब्द का अर्थ 

संस्कार शब्द कृ धातु में सम् उपसर्ग और घञ् प्रत्यय लगने से बना है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – संस्क्रियते अनेन।अर्थात जिससे कोई वस्तु संस्कृत, परिष्कृत या शुद्ध की जाती है उसे संस्कार कहते हैं। भारतीय संस्कृति में संस्कारों को अत्यधिक महत्ता प्रदान की गई है।  मनुष्य की नैतिक, आध्यात्मिक और मानसिक उन्नति के लिए तथा उसमें बल, बुद्धि, साहस व अन्य दैवीय गुणों के आविर्भाव के लिए शास्त्रों में संस्कारों का विधान किया गया है। कोई व्यक्ति इन संस्कारों का अनुपालन कर अपने जीवन को श्रेष्ठ गुणों से युक्त बना सकता है। शास्त्रों में कहा गया है जन्मना जायते शूद्रः संस्काराराद् द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शूद्र ही होता है किंतु इन संस्कारों के अनुपालन के द्वारा वह द्विज की श्रेणी में आ जाता है।

 भिन्न-भिन्न धर्म ग्रंथों एवं विद्वानों के द्वारा संस्कार शब्द की अलग-अलग व्याख्या की गई है। उनके द्वारा की गई व्याख्याएं व अर्थ निष्पादन निम्न हैं –

मनुस्मृति – कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह यः। अर्थात शरीर को पवित्र बनाने के लिए धार्मिक अनुष्ठान की विधि ही संस्कार है।

शबर स्वामी – संस्कार उसे कहते हैं जिसके संपन्न होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के योग्य बन जाता है।

कुमारिल भट्ट – जो विधियां किसी कर्म के लिए योग्यता प्रदान करती हैं, उन्हें संस्कार कहते हैं।

मेदिनी कोश – इसके अनुसार संस्कार शब्द के तीन अर्थ हैं – प्रतियत्न, अनुभव व मानस कर्म।

हिंदू धर्म में संस्कारों के उद्देश्य क्या हैं?

संस्कारों के अनुपालन के माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर के दोषों को दूर करने में सक्षम हो पाता है और अपने जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रकाशमान बनाता है। विद्वानों द्वारा संस्कारों के तीन उद्देश्य माने गए हैं –

दोषमार्जन – जीवन में जो दोष हैं उन्हें दूर करना।

अतिशयाधान – उपयोगी बनाने के लिए कुछ विशेषता उत्पन्न कर देना।

हीनांगपूर्ति (संस्कारप्रकाश) – अपने भीतर की कमी को समाप्त करना।

गर्भाधान, जातकर्म व अन्नप्राशन आदि संस्कारों के द्वारा मानव का दोषमार्जन होता है। चूड़ाकरण व उपनयन आदि संस्कारों के माध्यम से विशेष गुण की स्थापना (अतिशयाधान) होती है तथा विवाह आदि संस्कार के माध्यम से हिनांगपूर्ति होती है।

इस प्रकार संस्कारों के अनुपालन का उद्देश्य अपने भीतर की कमी को दूर करना और व्यक्तित्व को प्रकाशमान बनाना है। संस्कारों के अनुपालन का उद्देश्य अशुभ तत्वों से रक्षा करना तथा शुभ तत्वों का जीवन में विकास करना है। संस्कारों के अनुपालन से व्यक्ति के भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का प्रसार होता है और मानव जीवन के कल्याण के लिए उसकी क्षमता में वृद्धि होती है।

इन संस्कारों का नैतिक प्रयोजन भी है। इसके द्वारा मनुष्य के नैतिक गुणों का विकास संभव हो पाता है। संस्कारों के माध्यम से क्रियाशील सांसारिक जीवन का समन्वय आध्यात्मिक तत्वों  के साथ संभव हो पाता है।

हिंदू धर्म में संस्कारों की संख्या कितनी है?

 विभिन्न गृह्य सूत्रों एवं स्मृतियों में संस्कारों का उल्लेख किया गया है। कई विद्वानों ने भी संस्कारों का जिक्र किया है। संस्कारों की संख्या को लेकर धर्म ग्रंथों एवं विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न मत प्रकट किए गए हैं। हालांकि लोकप्रचलित मान्यता के अनुसार संस्कारों की कुल संख्या 16 है। विभिन्न विद्वानों एवं धर्म ग्रंथों के द्वारा संस्कारों की जो संख्या बताई गई है, वह निम्न प्रकार हैं –

महर्षि व्यास –

गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च।

नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया॥

कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः।

केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः।

त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः।     व्यासस्मृति 1 | 13 | 15

16 संस्कार (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण या वपनक्रिया, कर्णवेध, व्रतादेश या उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त या गोदान, वेदस्नान, विवाह, विवाहाग्नि-परिग्रह और त्रेताग्नि संग्रह।)

जातुकर्ण्य ऋषि – 16 संस्कार (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, उपनयन, वेदारम्भ, ब्रह्मव्रत, वेदव्रत, गोदान, समावर्तन, विवाह, ब्राह्मव्रत और अंत्यकर्म।)

आश्वलायन गृह्य सूत्र – 10 संस्कार (विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, चूड़ाकरण, उपनयन, समावर्तन और अंत्येष्टि।)

बौद्धायन गृह्य सूत्र – 13 संस्कार (विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, उपनिष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, उपनयन, समावर्तन और पितृमेध।)

पारस्कर गृह्य सूत्र – 13 संस्कार (विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, उपनयन, केशान्त, समावर्तन और अंत्येष्टि।)

वैखानस – 18 संस्कार (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, अक्षरारम्भ, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि।)

संस्कारों के कितने प्रकार हैं?

जीवन के कुछ संस्कार जन्म लेने से पूर्व प्रारंभ हो जाते हैं और कुछ संस्कार जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में संचालित होते हैं जो मनुष्य की मृत्यु के साथ समाप्त होते हैं। इन आधारों पर संस्कारों को निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

प्राग्जन्म संस्कार – गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन।

बाल्यावस्था के संस्कार – जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण और कर्णवेध।

शिक्षा संबंधी संस्कार – विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त और समावर्तन।

विवाह संस्कार – विवाह।

अंत्येष्टि संस्कार – अंत्येष्टि।

हिंदू धर्म के 16 संस्कार

गर्भाधान संस्कार

 यह 16 संस्कारों में पहला संस्कार है। यह संस्कार जन्म लेने से पूर्व ही संपन्न होता है। जिस कर्म के द्वारा पुरुष स्त्री में अपना बीज स्थापित करता है और स्त्री गर्भ को धारण करती है उस कर्म को गर्भधारण संस्कार कहा जाता है। गर्भाधान संस्कार में किसी महिला के पति को इस संस्कार का मुख्य कर्ता माना गया है।  

हिंदू धर्म परंपरा में हमेशा ही वीर एवं योग्य संतानों की कामना की गई है। इसके लिए तरह-तरह के यज्ञ एवं कर्म का प्रावधान धर्म शास्त्रों में किया गया है। धर्म शास्त्रों में गर्भाधान संस्कार के लिए उचित समय एवं अवस्था का उल्लेख किया गया है।

धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पत्नी के ऋतुस्नान के बाद चौथी रात्रि से लेकर सोलहवीं रात्रि तक का समय गर्भाधान संस्कार के लिए उपयुक्त है। गर्भाधान संस्कार तभी करना चाहिए जब पत्नी शारीरिक और मानसिक रूप से उसके लिए तैयार हो। गर्भाधान के लिए दिन के समय की मनाही की गई है। इसके लिए रात्रि के समय को ही विहित किया गया है।

इसके पीछे वैज्ञानिक कारणों की पड़ताल भी की गई है। दिन के समय प्राणवायु अधिक गत्मान होता है, इस कारण दिन के समय गर्भाधान नहीं करना चाहिए। दिन में गर्भाधान करने से उत्पन्न संतान कमजोर और विकारयुक्त हो सकती है। धर्म शास्त्रों में ऐसा माना गया है कि रात्रि काल में गर्भाधान से उत्पन्न संतान साहसी और स्वस्थ होती है। रात्रि काल में गर्भाधान करने वाले पुरुष को ब्रह्मचारी भी धर्म शास्त्रों में माना गया है।

धर्म शास्त्रों में तिथि के अंकों के आधार पर उत्पन्न होने वाली संतान के लिंग के निर्धारण का उल्लेख भी किया गया है। ऐसा कहा गया है कि सम संख्या वाली तिथि की रात्रि में गर्भाधान करने से पुरुष संतति तथा विषम संख्या वाली तिथि की रात्रि में गर्भाधान करने से कन्या संतति की उत्पत्ति होती है।

पुंसवन संस्कार

हिंदू परंपरा मूलतः पितृसत्तात्मक रही है। इसलिए समाज में हमेशा योग्य एवं वीर पुत्रों की कामना की जाती रही है। वैदिक साहित्य में भी पुत्र की प्राप्ति के लिए अनेक प्रार्थनाओं का उल्लेख है। तत्कालीन समाज में पुरुषों की महत्ता अधिक थी इसलिए पुत्र संतति उत्पन्न करने वाली माताओं को भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।

पुंसवन संस्कार की व्यवस्था पुत्र संतति की कामना से ही की गई है। यह संस्कार पति-पत्नी द्वारा गर्भधारण का निश्चय कर लिए जाने के बाद किया जाता है। पुं अर्थ होता है पुरुष और सवन का अर्थ होता है जन्म। अर्थात पुंसवन का तात्पर्य उस पूजा या अनुष्ठान से है जिसके करने से पुत्र संतति का जन्म होता है।

गर्भधारण के दूसरे या तीसरे महीने या गर्भ का लक्षण व्यक्त होने पर पुंसवन संस्कार करने का विधान है। हालांकि धर्म ग्रंथों में दूसरे माह से लेकर आठवें माह तक इस संस्कार को संपन्न करने की अनुमति दी गई है। धर्म शास्त्रों में इस संस्कार को संपन्न करने की अवधि के दौरान दी जाने वाली औषधियों की भी चर्चा है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार

प्राग्जन्म संस्कारों में यह अंतिम संस्कार है। इस संस्कार में गर्भधारण की हुई स्त्री के श्रीमंत को ऊपर उठाया जाता है इसलिए इसे सीमन्तोन्नयन कहा जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भिणी को प्रसन्न रखना है। इस संस्कार का उद्देश्य दुष्ट शक्तियों से गर्भ की रक्षा करना है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री के प्रथम गर्भ को खाने का प्रयास रुधिर का भक्षण करने वाली दुष्ट राक्षसी शक्तियां करती हैं। उन राक्षसी शक्तियों से बचाव के लिए पति द्वारा सीमन्तोन्नयन संस्कार का आयोजन किया जाता है।

 यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक संस्कार है। गर्भ के पांचवें महीने में गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क का निर्माण आरंभ हो जाता है। सीमन्तोन्नयन से गर्भधारण की हुई स्त्री प्रसन्न रहती है जिसका सकारात्मक प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस संस्कार का आयोजन छठे से आठवें महीने के मध्य करना चाहिए। हालांकि कुछेक धर्म शास्त्रों में इसके पूर्व भी इसे संपन्न करने की अनुमति दी गई है।

जातकर्म संस्कार

 यह संस्कार बालक के जन्म लेने के पश्चात किया गया प्रथम संस्कार है। यह बाल्यावस्था का प्रथम संस्कार भी है। इस संस्कार के तहत विविध कर्म संपन्न किए जाते हैं। इन कर्मों में मेधाजनन, आयुष्यकरण, बल, नालच्छेदन तथा षष्ठी महोत्सव प्रमुख हैं।

मेधाजनन – यह कर्म बालक को मेधावी बनाने के लिए किया जाता है। इसके तहत किसी सुवर्णादि के पात्र में मधु और घी को मिलाकर सुवर्ण की शलाका से या अनामिका से बालक को चटाना चाहिए। इससे बालक की मेधा शक्ति बढ़ती है। इस कर्म को नालच्छेन कर्म से पहले करना चाहिए।

आयुष्यकरण – आयुष्यकरण कर्म के द्वारा बालक के दीर्घायु होने की कामना की जाती है।

बल – इस कर्म के तहत बालक का पिता बालक की शारीरिक दृढ़ता के लिए प्रार्थना करता है साथ ही बालक की माता के कल्याण की कामना करता है।

नालच्छेदन – सूतिका के गृहद्वार पर जल से भरे घड़े तथा अग्नि की स्थापना करके बालक का पिता शांति हेतु प्रार्थना करता है। इसके पश्चात आठ अंगुल छोड़कर नालच्छेद किया जाता है। यह माना जाता है कि नाल काटने के अनंतर जन्म अशौच प्रारंभ हो जाता है। यह जन्म अशौच दस दिनों तक माना जाता है।

षष्ठी महोत्सव – इसका आयोजन बालक के जन्म के छठे दिन किया जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में षष्ठी को बालक की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि षष्ठी देवी सदैव बालक की रक्षा करती है।

नामकरण संस्कार

16 संस्कारों में नामकरण संस्कार को विशिष्ट महत्व प्रदान किया गया है। मनुष्य की पहचान उसके नाम से ही होती है। मनुष्य द्वारा किए गए समस्त  शुभ-अशुभ कार्य उसके नाम के साथ ही जुड़े रहते हैं। वीरमित्रोदय ग्रंथ में उल्लिखित एक श्लोक के अनुसार-

नामखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः ।

नाम्नैव कीर्ति लभेत मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलुनामकर्म ।।

अर्थात नाम ही मनुष्य के समस्त व्यवहार का कारण है। केवल लौकिक कार्य ही नाम से संपादित नहीं होते अपितु आध्यात्मिक फल की प्राप्ति की इच्छा से किए जाने वाले यज्ञ आदि में भी नाम की भूमिका होती है, इसलिए नामकरण समस्त संस्कारों में प्रमुख है।

नामकरण की तिथि – शास्त्रों में कहा गया है दसमे अहनि पिता नाम कुर्यात्। अर्थात जन्म के दसवें दिन के बाद पिता नामकरण संस्कार करें। ऐसे भी प्रसव से लेकर दसवें दिन तक सूतक रहता है। कुछ धर्म ग्रंथों में जन्म के 11वें दिन से लेकर दूसरे वर्ष के प्रथम दिन तक नामकरण करने का विधान किया गया है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि 11वें दिन ब्राह्मणों का, 13वें दिन क्षत्रियों का, 16वें दिन वैश्य का एवं एक माह में शूद्रों का नामकरण संस्कार करना चाहिए।

नामों का स्वरूप – धर्म शास्त्रों में चार प्रकार के नामों का उल्लेख किया गया है – कुल देवता के अनुरूप नाम, मास देवता के अनुरूप नाम, नक्षत्र के अनुरूप नाम और व्यवहार के अनुरूप नाम।

नामकरण में अक्षरों की संख्या का महत्व – पारस्कर गृह्य सूत्र में कहा गया है कि नाम दो अथवा चार अक्षरों का होना चाहिए। नाम व्यंजन से आरंभ होना चाहिए, इसमें अर्द्ध स्वर भी हो। नाम के अंत में दीर्घ स्वर अथवा विसर्ग आना चाहिए। कृत प्रत्यय से युक्त नाम रखना चाहिए जबकि तद्धित प्रत्यय वाले नाम नहीं रखने चाहिए।

महर्षि वशिष्ठ भी दो या चार अक्षरों के नाम रखने की बात करते हैं तथा रेफान्त व लकारांत नाम ना रखने की सलाह भी देते हैं।

वहीं वेजवाप गृह्य सूत्र में नाम के अक्षरों की संख्या के संबंध में किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। उसमें  कहा गया है कि नाम एक अक्षर, दो अक्षर या बहु अक्षर के हो सकते हैं।

आश्वलायन ने नाम के अक्षरों की संख्या के आधार पर उसके गुणों को विहित किया है। यथा, प्रतिष्ठा या यश की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति का नाम दो अक्षरों में रखा जाना चाहिए।

कन्याओं का नामकरण –  धर्म शास्त्रों में कन्याओं के नामकरण को लेकर भी विचार किया गया है। इसमें कहा गया है कि कन्याओं के नाम में अक्षर संख्या विषम में होनी चाहिए। नाम आकारांत में होना चाहिए। कन्याओं का नाम तद्धित प्रत्यय से युक्त होना चाहिए। कन्याओं का नाम इस प्रकार होना चाहिए कि वह उच्चारण में सरल, कोमल, मधुर तथा मंगलसूचक हो।

वर्णों के अनुसार नामकरण – वर्णों के अनुसार नामकरण पर विचार करते हुए कहा गया है कि जन्म मास के देवता, कुलदेवता तथा लोकप्रचलित संबोधन के अनुसार नाम होने चाहिए।

नामकरण के लिए निषिद्ध दिवस – अमावस्या, भद्रा, संक्रांति आदि दिन होने पर नामकरण नहीं करना चाहिए।

निष्क्रमण संस्कार

जन्म के बाद बालक को पहली बार घर से बाहर ले जाने से यह संस्कार संबंधित है। बालक के पहली बार घर से बाहर जाने को निष्क्रमण कहते हैं। इस संस्कार के अंतर्गत बालक को पहली बार घर से बाहर निकलने पर सूर्य का दर्शन कराया जाता है। पारस्कर गृह्य सूत्र के अनुसार यह संस्कार जन्म के चौथे महीने में किया जाना चाहिए। वहीं, भविष्योत्तर पुराण में जन्म के 12वें दिन ही इस संस्कार के संपन्न होने की बात कही गई है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सूतिका गृह से शिशु के प्रथम बार बाहर निकलने पर इस संस्कार को संपन्न किया जाता है जो जन्म के 12वें दिन होता है। इस संस्कार को बालक के माता-पिता के द्वारा संपन्न किया जाता है। कुछ धर्म ग्रंथों में ऐसा कहा गया है कि इस संस्कार को बालक के मामा के द्वारा कराना चाहिए।

अन्नप्राशन संस्कार

 इस संस्कार के तहत पहली बार बालक को अन्न का प्राशन (चखाना) कराया जाता है, इसलिए इसे अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। जब बालक 6 या 7 महीने का हो जाता है तब उसे भोजन की आवश्यकता महसूस होती है। उसी को ध्यान में रखकर बालक को भोजन कराना प्रारंभ किया जाता है। इससे पहले तक बालक माता के दूध पर ही आश्रित रहता है। इस संस्कार को संपन्न करते समय बालक को विभिन्न साधनों से युक्त भोजन का मिश्रण खिलाया जाता है। मार्कण्डेय पुराण में मधु और घी के साथ खीर खिलाने की विधि बताई गई है।

चूड़ाकरण संस्कार

 इस संस्कार को चौल कर्म संस्कार भी कहा जाता है। बालक के दीर्घायु व सुंदर होने और उसके कल्याण के उद्देश्य से इस संस्कार को संपन्न किया जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि इस संस्कार को संपन्न ना करने से बालक की आयु का ह्राश होता है। महर्षि चरक का भी मानना है कि केश आदि के कटने से आयु, शुचिता और सौंदर्य में वृद्धि होती है।

इस संस्कार के समय केश काटकर किसी देवता को समर्पित किया जाता है। इस संस्कार को जन्म के प्रथम वर्ष के अंत से लेकर तृतीय वर्ष की समाप्ति तक संपन्न करने का विधान है।आश्वलायन के अनुसार इसे जन्म से तीसरे या पांचवें वर्ष में किया जा सकता है। आवश्यक होने पर इसे सातवें वर्ष में या उपनयन के साथ भी किया जा सकता है।

पहले वर्ष में चूड़ाकरण करने से बालक दीर्घायु होता है। तीसरे वर्ष में इस संस्कार को संपन्न करने से बालक की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। तीसरे वर्ष में इस संस्कार का किया जाना सर्वोत्तम माना जाता है। जब बालक की आयु सम वर्षों में हो तब यह संस्कार नहीं करना चाहिए।

वर्तमान समय में कुल परंपरा के अनुसार भी इस संस्कार को संपन्न किया जाता है। जब माता गर्भवती हों उस समय यह संस्कार नहीं करना चाहिए।

कर्णवेध संस्कार

यह संस्कार बालक के सौंदर्य और स्वास्थ्य से संबंधित है। महर्षि सुश्रुत के अनुसार बालक के कर्णवेध के कारण उसकी रोगों से रक्षा होती है। सुश्रुत के अनुसार कर्णवेध के कारण अंडकोष वृद्धि और आंतों में वृद्धि को रोकने में मदद मिलती है।

धर्म शास्त्रों के अनुसार इस संस्कार को बालक के जन्म से छठे, सातवें, आठवें या बारहवें महीने में संपन्न करना चाहिए। कुछ आचार्यों के अनुसार इसे शिशु के दांत निकलने से पूर्व करना चाहिए। इस संस्कार के तहत बालक के दाहिने कान में और कन्या के बाएं कान में छेद किया जाता है।

कर्णवेध के लिए स्वर्ण निर्मित सुई को सर्वोत्तम माना गया है। लेकिन व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार चांदी अथवा लोहे से निर्मित सुई का उपयोग भी कर सकता है।

विद्यारंभ संस्कार

विद्यारंभ संस्कार शिक्षा से संबद्ध संस्कार है। इस संस्कार को पांचवें या सातवें वर्ष में संपन्न किया जाता है। सूर्य के उत्तरायण होने पर किसी शुभ दिन इस संस्कार को संपन्न किया जाता है। इस दिन गणेश, सरस्वती तथा बृहस्पति आदि की पूजा कराई जाती है। इसके पश्चात गुरु के द्वारा बालक से अक्षरारम्भ कराया जाता है। विशेष प्रकार के कलम से या स्वर्ण निर्मित लेखनी से बालक फलक पर श्री गणेशाय नमः, श्री सरस्वत्यै नमः आदि वाक्य लिखता है। इस संस्कार को अक्षरारम्भ भी कहते हैं।

उपनयन संस्कार

वैदिक कालीन ग्रंथों में भी इस संस्कार का उल्लेख मिलता है। यह प्राचीनतम संस्कार है। इसका संबंध शिक्षा से है।

उपनयन का अर्थ होता है – पास या सन्निकट ले जाना। प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी। बालक को शिक्षा दिलाने के लिए जब गुरुकुल ले जाया जाता था तो वहां उपनयन संस्कार होता था। इस रूप में इसका अर्थ हो गया आचार्य के पास शिक्षण के लिए ले जाना।

आपस्तंबध धर्मसूत्र में कहा गया है कि उपनयन संस्कार उसके लिए किया जाता है जो विद्या सीखना चाहता है। गुरुकुल में जब किसी आचार्य के द्वारा बालक को अपना शिष्य बनाया जाता है तो आचार्य के द्वारा बालक को यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण कराया जाता है। यज्ञोपवीत शिष्य वर्ग में प्रवेश का एक चिन्ह है।

धर्म शास्त्रों में कहा गया है, यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत अत्यन्त पवित्र है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है।

इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान किया गया है। आधुनिक शोधों से यह स्थापित हो चुका है कि गायत्री मंत्र एक सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है।

जैमिनीय के अनुसार गर्भाधान काल से अथवा जन्म काल से पांचवें या आठवें वर्ष में ब्राह्मणों का यज्ञपवीत संस्कार, छठे तथा ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रियों का तथा आठवें और बारहवें वर्ष में  वैश्यों का यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इस कालावधि से दोगुना समय हो जाने पर जो यज्ञोपवीत संस्कार होता है उसे गौण सामान्य यज्ञोपवीत कहा जाता है।

उपनयन संस्कार के समय बालक एक मेखला धारण करता है, जो तीनों वर्णों के लिए अलग-अलग निर्धारित है। ब्राह्मण बालक मूंज की, क्षत्रिय धनुष की डोरी की और वैश्य ऊन के धागे की मेखला धारण करता है। उनके डंडे भी अलग-अलग लकड़ियों के होते हैं। ब्राह्मण ढाक या बेल का, क्षत्रिय बरगद का और वैश्य उदुंबर का डंडा धारण करता है।

उपनयन संस्कार ब्रम्हचर्य व्रत एवं विद्याध्ययन का प्रतीक है। किसी भी मनुष्य पर तीन ऋणों का भार होता है। जब वह यज्ञोपवीत धारण कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है तो गुरु ऋण को उतारता है। गृहस्थ धर्म का पालन कर संतानोत्पत्ति से पितृ ऋण और यज्ञों द्वारा देव ऋण से मुक्त होता है। यज्ञोपवीत के तीन सूत्र इन तीन ऋणों की याद दिलाते हैं। यज्ञोपवीत के तीन तार ज्ञान, कर्म और उपासना के त्रिविध कर्तव्यों के साथ-साथ इसके पालन के प्रतीक हैं। इनमें से एक सूत्र के भी टूट जाने से यज्ञसूत्र खंडित हो जाता है।

वेदारम्भ संस्कार

इस संस्कार का प्रथम उल्लेख व्यास स्मृति में मिलता है। उपनयन संस्कार के पश्चात किसी शुभ दिन में वेदारम्भ संस्कार किया जाता है। प्रत्येक वेद के अलग-अलग अध्येता होते हैं। अलग-अलग वेद के अध्येता के लिए अलग-अलग विधियां संपन्न कराई जाती हैं। इस संस्कार के संपन्न होने के बाद आचार्य के द्वारा ब्रह्मचारी को वेद का अध्ययन कराया जाता है।

केशान्त संस्कार

यह संस्कार तब किया जाता है जब ब्रह्मचारी बालक की मूछें आनी आरंभ होती हैं। इस संस्कार के अंतर्गत ब्रह्मचारी की मूछों का पहली बार मुंडन किया जाता है। इस अवसर पर आचार्य को गाय दान के रूप में दिया जाता है। इस कारण इस संस्कार को गोदान भी कहते हैं। 16 वर्ष की आयु में यह संस्कार संपन्न किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से ब्रह्मचारी बालक को एक बार पुनः ब्रह्मचर्य के व्रतों का स्मरण कराया जाता है।

समावर्तन संस्कार

बालक के द्वारा ब्रह्मचर्य की समाप्ति पर यह संस्कार संपन्न किया जाता है। इस संस्कार को स्नान के नाम से भी जाना जाता है। गुरुकुल में जब ब्रह्मचारी बालक की शिक्षा समाप्त हो जाती है और वह अपने घर के लिए प्रत्यावर्तन करता है तब यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से पहले ब्रह्मचारी बालक को गुरु की अनुमति लेनी होती है। विद्यार्थी अपनी सामर्थ्य से अपने गुरु को गुरु दक्षिणा देते हैं और अपने घर की ओर प्रस्थान करते हैं।

विवाह संस्कार

यह किसी व्यक्ति के जीवन का एक महत्वपूर्ण संस्कार है। यहां से कोई ब्रह्मचारी बालक गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। यह समस्त आश्रमों का मूल है। विवाह संस्कार का उल्लेख वैदिक ग्रंथों में भी मिलता है। ऋग्वेद से पता चलता है कि विवाह संस्कार को पूर्व वैदिक काल में ही मान्यता मिल चुकी थी।

स्मृतियों में विवाह के 8 प्रकार बताए गए हैं-

ब्राह्मो देवस्थथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।

गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचाश्चाष्टमोऽधमः।।

ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच, ये आठ प्रकार के विवाह हैं।

इन विवाहों को दो प्रकारों में विभक्त किया गया है – प्रशस्त और अप्रशस्त।  प्रथम चार प्रकार के विवाह प्रशस्त की श्रेणी में आते हैं जबकि बाद वाले चार अप्रशस्त की श्रेणी में आते हैं।

विवाह के प्रकार

ब्राह्म विवाह – हिन्दू धर्म में इस प्रकार के विवाह को सबसे अच्छा माना गया है। यह विवाह वर व कन्या के माता एवं पिता की पूर्ण सहमति से होता था। भारत में यह सर्वाधिक मान्य विवाह है।

देव विवाह – इस विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता एक यज्ञ की व्यवस्था करता है एवं वस्त्र-अलंकार से सुसज्जित कन्या का दान उस व्यक्ति को कर देता है जो उस यज्ञ को समुचित ढंग से पूरा करता है।

आर्ष विवाह – इस प्रकार के विवाह में विवाह का इच्छुक वर कन्या के पिता को एक गाय और एक बैल अथवा इनके दो जोड़े प्रदान करके विवाह करता है।

प्राजापत्य विवाह – इस प्रकार के विवाह में पिता सम्मानपूर्वक एक व्यक्ति को यह उपदेश देता है कि तुम दोनों एकसाथ रहकर आजीवन धर्म का पालन करो, एवं विधिवत वर की पूजा करके अपनी पुत्री उपहारस्वरूप देता था।

गन्धर्व विवाह – इस प्रकार को ‘प्रेम विवाह’ की भी संज्ञा दे सकते हैं। युवक-युवती तब परस्पर प्रेम या काम के वशीभूत होकर स्वेच्छा से संयोग कर लेते हैं तो ऐसे विवाह को गन्धर्व विवाह कहा जाता है।

आसुर विवाह – इस विवाह में व्यक्ति द्वारा कन्या और कन्या के परिवार के लोगों को शक्ति के अनुसार धन देकर अपनी इच्छा से कन्या का ग्रहण किया जाता है।

राक्षस विवाह – लड़ाई-झगड़ा करके, छीन-झपट कर, कपटपूर्वक या युद्ध में हरण करके किसी स्त्री से विवाह कर लेना राक्षस विवाह कहा जाता है।

पैशाच विवाह – यह सबसे निकृष्ट कोटि का माना गया है। पैशाच विवाह ऐसा विवाह है जिसमें निद्रारत, घबराई हुई, मदिरापान से प्रभावित या रास्ते में जाती हुई कन्या के साथ बल का प्रयोग करके यौन सम्बन्ध स्थापित करने के उपरान्त उससे विवाह किया जाता है।

इन विवाहों के अतिरिक्त अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह का वर्णन भी धर्म शास्त्रों में किया गया है। जब उच्च वर्ण का पुरुष निम्न वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता है तो उसे अनुलोम विवाह कहते हैं। जब निम्न वर्ण का पुरुष उच्च वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता है तो उसे प्रतिलोम विवाह कहते हैं।

विवाह की आयु ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति के बाद मानी गई है लेकिन स्मृतियों तक आते-आते बाल विवाह की परंपरा दृष्टिगत होने लगती है।

अंत्येष्टि संस्कार

यह जीवन का अंतिम संस्कार है। यह भी एक प्राचीन संस्कार है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में भी अंत्येष्टि का वर्णन मिलता है। किसी शिशु या किशोर की मृत्यु होने पर उसका दाह नहीं किया जाता था। अंत्येष्टि से पहले शव को स्नान कराने और उसे बैलगाड़ी से श्मशान भूमि ले जाने का वर्णन अथर्ववेद में मिलता है। ऋग्वेद में अंत्येष्टि स्मारक बनाने का भी उल्लेख है। विभिन्न धर्म ग्रंथों में भी इस संस्कार पर विशद विचार किया गया है।

सारांश 

इस आलेख में हिंदू धर्म ग्रंथों में वर्णित संस्कारों का वर्णन किया गया है। हालांकि संस्कारों की कुल संख्या को लेकर मतभिन्नता है परंतु लोकमान्य रूप से संस्कारों की संख्या सोलह है। ये संस्कार किसी मनुष्य के गर्भ में आने से लेकर उसकी मृत्यु तक व्याप्त हैं।

संस्कारों का मनोवैज्ञानिक महत्व भी है। गर्भाधान, पुंसवन व सीमन्तोन्नयन जैसे संस्कारों का महत्व रहस्यात्मक एवं प्रतीकात्मक है। वहीं नामकरण, अन्नप्राशन व निष्क्रमण जैसे संस्कारों का महत्व लौकिक है। इसमें लोकधर्मिता के तत्वों की झलक मिलती है। विवाह जैसे संस्कार का महत्व स्व से लेकर समाज तक है।

इन संस्कारों का उद्देश्य किसी भी मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास करना है। मनुष्य का जीवन पवित्र और मर्यादित हो इसके लिए इन संस्कारों का विधान किया गया है। इन संस्कारों के अनुपालन के माध्यम से यह आशा व्यक्त की जाती है कि मनुष्य के लौकिक और आध्यात्मिक जीवन का विकास होगा।

 


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2 thoughts on “भारतीय धर्म परंपरा में सोलह संस्कार”

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